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बुधवार, नवंबर 30, 2011

"पग ठहरता नहीं, आगमन के बिना" (चर्चा मंच-714)

बुधवार का चर्चा मंच भी मुझे ही सजाना है "कुछ कहना है" आदरणीय रविकर जी को! छितराए-पन्नेभगवती शांता परम सर्ग पढ़ लीजिए ना! --क्योंकि "दल उभरता नहीं, संगठन के बिना"*स्वर सँवरता नहीं, आचमन के बिना। पग ठहरता नहीं, आगमन के बिनाये जग झूठा नाता झूठा खुद का भी आपा है झूठा फिर सत्य माने किसको मन बंजारा भटका फिरता कोई ना यहाँ अपना दिखता फिर अपना बनाए किसको कैसी मची है आपाधापी...जहाँ बाड खेत को खुद है खाती ! इसी लिए तो कहता हूँ कि ‘‘तीखी-मिर्च सदा कम खाओ’’ साझीदार बने हो तो, सौतेला मत व्यवहार दिखाओ! पढ़िए नव्या में प्रकाशित कविता औकातनिर्णय के क्षण कर्ण की कशमकश से सम्बन्धी कविता छः किश्तों में ब्लॉग साहित्य सुरभि पर प्रस्तुत की गई थी. यह कविता सूनी सूनी हैं अब ब्रज गलियाँ, उपवन में न खिलती कलियाँ. वृंदा सूख गयी अब वन में, खड़ी उदास डगर पर सखियाँ. जब से कृष्ण गये तुम बृज से, अब मन बृज में लागत नाहीं! इसीलिए तो कहता हूँ कि आखिर कहां जा रहे हैं हम?  किताबें पढ़ी , मन का मंथन किया खूब सोचा-समझा और जांचा ऐ-दोस्त तुझे .... राहे-जिन्दगी में ख़ुशी मिले ना मिले सुकून जरुर मिले| दोस्ती...... हो तो किताबो से ही हो! परिवास योग्य एक ग्रह पृथ्वी जैसा"निरंतर" की कलम से.....निकली हैं क्षणिकाएं  *बड़े अरमानों से* बड़े अरमानों से हमने उन्हें फूल भेंट किये भोलेपन से वो पूछने लगे कहाँ से खरीदे ? हमें भी किसी ख़ास को देने हैं बहुत शिद्दत से बताने लगे! मंजिल तलाशते रहे ....  परछाइयों के साथ / उगते रहे बबूल भी , अमराइयों के साथ / सीने पे ज़ख्म खा के भी , खामोश है कोई , अब गम मना रहे हैं वो , शहनाइयों के साथ...! ग़ाफ़िल की अमानत में हैं-कुछ ख़ास अलहदा शे’र -  जिसमें से कुछ तो किसी ग़ज़ल की ज़ीनत बने और कुछ अब तक अलहदा ही हैं! कुछ उलझे हुए विचार आज बस मन हुआ कि कुछ लिखा जाये, मगर क्या? तो ऐसे ही मन में कुछ खयाल आने लगे कुछ ऐसे विचार जिनका न कोई सर था न कोई पैर! सिर्फ एक पंक्ति फेसबुक की दिवार पर - "मैंने अपनी महिला मित्र को छोड़ दिया. अब मैं आजाद हूँ." और नतीजा... उस लडकी ने शर्मिंदगी और दुःख में आत्महत्या कर ली...जीना यहाँ.. मरना यहाँ ..! इसके सिवा जाना कहाँ?? -मेरा दिल ये कहे ; हम रहें न रहें  शान से ये तिरंगा लहरता रहे !  साँस चलती रहे ; साँस थमती रहें ये वतन का गुलिस्ता महकता रहे! स्वीकार सको तो स्वीकार लेना क्योंकि ज़िन्दगी…एक खामोश सफ़र ही तो है! मटर दिलों में प्रेम बढ़ाता...... मटर, भाव की हद को चूमें मटरगश्ती कर मद में झूमे. मटक-मटक कर है मदमाता जेब को मेरी रोज चिढ़ाता. छत्तीसगढ़ में पेड-पत्तियों और वनस्पतियों के साथ भी रिश्ते बांधने (बदने)की परम्परा है। और ऐसे बदे गए रिश्तों में पीढ़ियों का निर्वाह होता है... अहिरन के साथ रिश्ते बाँध कर गयी हैं., इंदिरा गोस्वामी तभी तो कर रही हैं..."प्यारी-प्यारी बातें"छा रहा इस देश पर कोहरा घना है -! ऐसे मेंचतुर्वर्ग फल प्राप्ति और वर्तमान मानव जीवन  का क्या होगा? तुमसे है दुनियाँ खुशियों की बौछार तुम्हीं हो उदासी की तलवार तुम्हीं हो तुम्हीं हो मेरी गंगा -यमुना हर मौसम का प्यार तुम्ही हो !  चलते-चलते थक जाती पाती न पंथ की सीमा अवरोधों से डिगता धैर्य फिर भी न होता धीमा प्यासी आँखे बहती है बूंद-बूंद में हुआ जीना... आहों में .. आइए देखें चलते-चलते
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मंगलवार, नवंबर 29, 2011

"पिंजरे में पंछी किस्‍म किस्‍म के" (चर्चा मंच-713)

मित्रों!
जय हनुमान ज्ञान गुण सागर!...
आइए सुबह-सुबह पवनवेग से कुछ ब्लॉगों का भ्रमण कर लेता हूँ!
आप भी भगवान परशुराम के जीवन की एक महत्वपूर्ण घटना है भगवान राम से भेंट। *महर्षि वाल्मीकि* कृत *आर्षरामायण से देख लीजिए! इन्द्रियां इतनी बलवान हैं कि यदि उन्हें चारों तरफ़ से घेरा जाय तो ही वे प्रभावकारी अहिंसक शस्त्र बन जाती हैं। आज गिरीश बिल्लोरे 'मुकुल', सुमन कपूर 'मीत' का जनमदिन है! इन सभी को चर्चा मंच परिवार की ओर से शुभकामनाएँ प्रेषित करता हूँ! ''अजी सुनते हो ! अपने पड़ोस की दुकान में अण्डे और सी एफ एल बल्ब नहीं मिल रहे हैं !'' पत्नी ---''पिछले हफ्ते ही तो मुन्नू को भेज कर मंगवाए थे .आज फिर आने लगे फिरंगीजिंदगी की किताब खोली * *देखा !* *कितने पन्नें पलट गए * *कुछ भरे* *कुछ खाली.... * *कुछ में बैठे हैं शब्द * *मेहमां बनकर * *और * *कुछ में हैं...आखिरी इबारत! लेकिन पिंजरे में पंछी किस्‍म किस्‍म के कैद हो ही जाते हैं! मतला और एक शेर............ -साज़िशें हवाओं ने कुछ मेरे साथ इस तरह कीं| दिल सुलगता देखकर, रुख अपना हमारी ओर कर दिया | मेरी मुहब्बत का सिला , मेरे महबूब ने इस तरह दिया | तेरे शहर का क्या नाम है? तेरे शहर का क्या नाम है? क्या वहां दो पल का आराम है? यहाँ तो हर शहर मदहोश है, न किसी को चैन है, न ही कहीं होश है I क्या वहां लोग दिल खोल के हँसते हैं? प्यार मंजिल है ,दोस्ती रास्ता है -*जो दिल को चुभ जाये वो प्यार , जो दिल को छु जाये वो दोस्ती* ** * जो झुकाए वो प्यार , जो झुक जाये वो दोस्ती!"मेरी चलती रूकती सांसों पर ऐतबार तो कर, ये हँसता हुआ झील का कवल, मेरे बातों पर ऐतबार तो कर, तू यूँ ही खिल जायेगा जैसे दमकता माह , बस एक बार मुस्कुरा के ...! और शाम ढल गई....  कितना अजीब जिन्दगी का सफ़र निकला ! सारे जहाँ का दर्द अपना मुकद्दर निकला ! जिसके नाम जिन्दगी का हर लम्हां कर दिया  ... ! परिकल्पना के सन्दर्भ से ....!!! कोई आने वाला है मेहमान कहीं पे ,आहट कदमों की है महसूस हो रही जमीं पे ।कैसा होगा मंजर आमद पर उसकी ,गूंज उठेंगी दरो-दीवार उसकी हंसी पे .....। वेरा पावलोवा ( जन्म : १९६३ ) रूसी कविता की एक प्रमुख हस्ताक्षर हैं। उनकी कविताओं के अनुवाद दुनिया भर की कई भाषाओं में हो चुके हैं। देखिए इनकी कविता का अनुवाद...जो सुनाई दे उसे गाओऋचा और देव एक दुसरे से बहुत प्रेम करते थे लेकिन विवाह के बंधन में बंध नहीं सकते थे क्यूंकि माता-पिता, भाई-बहन , मित्र और समाज की आपत्ति थी उनके रिश्ते पर। काश मैं तुम्हारा पति होता... समाचार पत्र में हम जैसे सामाजिक प्राणियों के लिए सबसे अधिक उपयोगी पेज- होता है- पेज चार। समाचार पत्र आते ही मुख्‍य पृष्‍ठ से भी अधिक उसे वरीयता मिलती है।...क्‍या भगवान की उपाधि किसी सामान्‍य मनुष्‍य को दी जानी चाहिए? अक्सर किसी को कहते सुना होगा--क्या करें , दिल नहीं मानता । इन्सान के दिल और दिमाग में एक द्वंद्ध हमेशा चलता रहा है । दिल कुछ और कहता है , दिमाग कुछ और...दिल और दिमाग की द्वंद्ध में किसकी सुनें ? वे चिंतन में थे कि गाल तन का ही बेहद मुलायम हिस्‍सा है, नेताई गाल पर पड़ा तमाचा अब बना सुर्खियों का हिस्‍सा है...क्‍या आप चांटा खाने वालों में शुमार होना चाहते हैं ? बाबा "क्षमा" करना शायद किसी की तेज रफ़्तार ने उसके पाँव कुचल डाले थे खून बिखरा दर्द से कराहता आँखें बंद --माँ --माँ --हाय हाय ... बाबा "क्षमा" करना!.... जी हां मैं मुम्बई से सीधा प्रसारण करूँगा...! मुझे शिकायत है वायदे टूट जाते हैं अक्सर...! किताब के पन्नों को पलटते हुए ये ख्याल आया यूं पलट जाए जिन्दगी सोचकर रोमांच हो आया । ख्वाबों में जो बसते हैं सम्मुख आ जाएँ तो क्या हो किताब ...! शीत बढ़ा**, **सूरज शर्माया।*आसमान में कुहरा छाया।।*** *चिड़िया चहकी**, **मुर्गा बोला**,* *हमने भी दरवाजा खोला**,* *लेकिन घना धुँधलका पाया। मनुष्य के जीवन में तीन सच्चे साथियों का साथ होना जरुरी है ....एक डूबता हुआ सूरज* फिर खिल उठा खुल गए कई बंद रास्ते न, तुम कहां आए आई बस ज़रा-सी याद तुम्हारी और दिन थम गया रात रुक गई सांस चलने लग...तुम्हें खोकर, खो दिया सब कुछ! मंहगाई बढाने वाली सरकारी नीतियां, और जारी है सरकार का अहंकार....... वह अहंकार जिसके अधीन होकर ....सरकार का अनर्थशास्त्रअर्थशास्त्र जारी है ...... !हमेशा से अपनी रही होगी तभी तो इतनी जल्दी अपनी हो गयी, एक स्मृति... एक चमक... और फिर सारी वेदना खो गयी सुख दुःख की परिभाषाएं यहाँ भिन्न हैं, अभिभूत था मन...कविता के आँगन में...! उत्तराखंड राज्य के जनपद सीमान्त जनपद पिथौरागढ़ से धारचूला जाने वाले मार्ग पर लगभग सत्तर किलोमीटर दूर स्थित है कस्बा थल जिससे लगभग छः किलोमीटर दूर स्थित है ...एक अभिशप्त देवालय: हथिया देवाल (थल)...मिला हो दर्द तुम्हें गम -ए -गुनाही का , गिला नहीं करते - जले चिराग जलो वैसे यारा , लिए जजज्बात जला नहीं करते...(बेबाक)वर्तमान परिदृश्य में जिस तरह से जनता राजनेताओं और राजनीतिज्ञों के प्रतिअप ने गुस्से का इज़हार कर रही है , बेशक वो भारतीय जनता के स्थापित व्यवहार के खिलाफ... जनता का गुस्सा ही होगा। कब तक पढ़ना कितना पढ़ना , अब तलक चलता रहा | तलवार परीक्षा की , अनकहा कुछ न रहा || जो भी कोशिश की थी तुमने , काम तो आई नहीं | बहुत दिनों से कोई कविता लिखी नहीं , कई बार यूँ ही खामोश रह जाना अच्छा लगता/रहता है ... जैसे समुद्र के किनारे बैठे लहरों को गिनते रहना ...लिख देना फिर कभी कोई प्रेम भरा गीत .... *नदी - 1* नदी ने जब-जब चाहा गीत गाना रेत हुई कंठ रीते धूल उड़ी खेत हुई *नदी - 2* चट्टानों से खूब लड़ी बढ़ती चली ...नदी को लेकर तीन कवि‍ताएं हैं आप ब्लॉग खोलकर पढ़ लीजिए ज़नाब! बोली लगाओ देश बिक रहा है : जियो मेरे लाल....! मेरे पति पूरे दिन नेट पर बैठे रहते हैं। पहले यह मुझे बहुत अखरता था मगर अब मैंने भी ब्लॉगिंग में रुचि लेना शुरू कर दिया है। आज मैं अपनी पहली पोस्ट अपने ब्लॉग पर लगा रही हूँ!
आइए मज़ेदार खीर बनाते हैं! क्योंकि "मैं भी ब्लॉगिंग सीख रही हूँ"
अन्त में देखिए यह कार्टून...!

सोमवार, नवंबर 28, 2011

आ गये फ़कीर हैं (सोमवारीय चर्चामंच-712)

मेरा फोटो
दोस्तों मैं चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ एक अर्सा बाद आप लोगों से मुख़ातिब हो रहा हूँ। दरअसल मेरी चाची जी का इन्तकाल हो जाने के नाते उनके क्रियाकर्म की व्यस्तता से आज निज़ात पाया हूँ, आख़िर एकमात्र मैं ही उनका वारिस जो ठहरा। इस दौरान मेरे सेड्यूल पर चर्चामंच लगाने के लिए अपने चर्चामंच के सहयोगियों का आभार व्यक्त करता हूँ और शुरू करता हूँ आज की चर्चा-
 नं. 1-
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’ उच्चारण 'आ गये फ़कीर हैं'
उच्चारण
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2-
ये ब्लॉग अच्छा लगा...बस एक थप्पड़ !!??
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3-
ये लीजिए साहब! मेथी की भाजी 
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4-
परशुराम राय जी प्रस्तुत कर रहे हैं कुछ बच्चन जी के जन्मदिन पर
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5-
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6-
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8-
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9-
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भगवती शांता परम-सर्ग-4, शिक्षा और संस्कार-भाग-1, शान्ता के चरण
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11-
"मोती के लाल" -निवेदिता
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"भूभल" उपन्यास से कथा अंश 
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मौनी बाबा 
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23-
इस देस में वापस आकर -आशा जोगळेकर
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24-
बात बेचारी
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और अन्त में
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आज के लिए इतना ही, फिर मिलने तक नमस्कार!