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शुक्रवार, जून 20, 2014

भाग्य और पुरषार्थ में संतुलन (चर्चा मंच 1649)

नमस्कार मित्रों, आज के इस चर्चा में आपका हार्दिक स्वागत है।  
हमारे वर्तमान जीवन में हमारे भूतकाल का भी पूरा पूरा प्रभाव और नियंत्रण रहता है क्योकि हमारा जो आज है वह गुजरे कल से ही पैदा होता है और जो आने वाला कल है वह आज से यानि वर्तमान से पैदा होगा। यह जो कल, आज और कल वाली बात है यह काल गणना के अंतर्गत ही है वरना जो कालातीत स्थिति में है उनके लिए 'न भूतो न भविष्यति' के अनुसार न भूतकाल है न भविष्य काल है। उनके लिए सदा वर्तमान काल ही रहता है। शरीर तल पर भूत भविष्य होते हैं, आत्मा के तल पर सदैव वर्तमान काल ही रहता है। हमें शरीर के तल पर भूतकाल और भविष्य काल का अनुभव होता है और हम समझते हैं की पूर्व काल की कर्मो के फल हम भोग रहें हैं। दरअसल सारे कर्मो का फल वर्तमान काल में ही फलित हो रहें हैं। जो इस रहस्य को समझ लेते हैं वें भूत-भविष्य से परे उठकर सदैव वर्तमान में ही जीते हैं और कर्म और कर्मफल के तारतभय को जानते हैं।
अब चलते हैं आपके ब्लॉगों से चुने हुए कुछ लिंको की तरफ  .......... 

कालीपद प्रसाद जी 
नौ रसों से भरा है यह प्रकृति,
गौर से देखो इस प्रकृति को , 
रस-रंगों से ही सजीव है जीवन 
भरपूर जिओ इस जिंदगी को, 
इस बात का करो अहसास प्रिये 
यदि रस है सही संतुलन लिए ,
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रेखा जोशी जी 
हुआ आगमन 
मधुमास का 
मेरे आंगन 
आये ऋतुराज बसंत 
झूम रही डाल डाल
बह रही
दर्शन जंगरा जी 
ऐसे चुप हैं कि ये मंज़िल भी कड़ी हो जैसे
तेरा मिलना भी जुदाई कि घड़ी हो जैसे

अपने ही साये से हर गाम लरज़ जाता हूँ
रास्ते में कोई दीवार खड़ी हो जैसे
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रविकांत शर्मा जी 
संसार की सबसे बड़ी शक्ति ब्रह्मास्त्र है, जो प्रत्येक मनुष्य को भगवान के द्वारा प्राप्त है, शब्द "ब्रह्म" स्वरूप बांण के समान होते है और मुख "अस्त्र" स्वरूप धनुष के समान होता है।
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अनीता जी 
ब्रह्म साकार भी है निराकार भी, वह परमात्मा के रूप में हमारे हृदयों में रहता है. हमारे मन का आधार भी वही है. मन जब कृष्ण समाहित होता है तो वह भीतर-बाहर उसे ही देखता है. मन के पार दोनों एक ही हैं. पर साधक यहीं आकर ठहर नहीं जाता, इसके बाद भक्ति के फूल खिलाता है. भक्ति के बाद ही जीवन में रस मिलता है,
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' जी 
समय के साथ हम भी कुछ, बदल जाते तो अच्छा था।
नदी के घाट पर हम भी, फिसल जाते तो अच्छा था।

महकता था चमन सारा, चहकता था हरेक बूटा,
चटकती शोख़ कलियों पर, मचल जाते तो अच्छा था।
योगी सारस्वत जी 
हौज़ ख़ास देश विदेश में आई आई टी के कारण ज्यादा फेमस है लेकिन इसी हौज़ ख़ास में देखने को , वीकेंड बिताने को बहुत कुछ है ! हौज़ ख़ास तक मेट्रो लीजिये या फिर ग्रीन पार्क तक बस या टैक्सी जैसा मन करे वो लीजिये और एक दिन बढ़िया तरह से एन्जॉय करिये !
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विजय लक्ष्मी जी 
"स्याही से नहीं बनती आजादी की तहरीरे,
लहू से सींचकर ही ये पौध उगाई जाती है .

चाँद की तन्हा चांदनी रात लुभाती रही , 
हर सुबह सूरज से आँख मिलाई जाती हैं
वन्दना गुप्ता जी 
हाथ उठाये यूँमुझे मेरे अक्स ने आवाज़ दी
सैंकड़ों कहानियां बन गयीं
दर्जनों अक्स चस्पां हो गए 
कुछ गर्म रेतीले अहसासों के 
बेजुबान लफ्ज़ रूप बदल गए
कहीं एक डाल से उड़ता
अजित सिंह जी 
राजस्थान के राजपूतों का इतिहास शौर्य की गाथाओं से भरा पड़ा है . मेरा बचपन राजस्थान में बीता . हाडौती अंचल में रहने का मौका मिला . हाडौती यानि कोटा , बूंदी , झालावाड और बाराँ , इन चार जिलों का संभाग हाडौती कहलाता है . यहाँ हाड़ा राजपूतों का शासन हुआ करता था . मुझे कोटा में पढने का और बूंदी में नौकरी करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ
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आमिर जी 
अक्सर बहुत ज्यादा फाइल्स या सोफ्ट्वेयरस की वजह से या वायरस की वजह से कंप्यूटर की स्पीड कम हो जाती है. किसी फ़ाइल पर डबल क्लिक करने के बाद भी खुलने में वक्त लगता है ,तो समझ लीजिये की आपके कंप्यूटर की स्पीड कम हो चुकी है.यूँ तो..
अर्पणा खरे जी  
वक़्त पूरा हो गया
आज कोई सबको छोड़ कर
दुनिया से चल दिया
रह गये पीछे चिल्लाते
दो छोटे बच्चे...........
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' जी 
बात करते हैं हम पत्थरों से सदा,
हम बसे हैं पहाड़ों के परिवार में।
प्यार करते हैं हम पत्थरों से सदा,
ये तो शामिल हमारे हैं संसार में।।
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सुरेश स्वप्निल जी 
मजमूं तड़प रहे हैं रिहाई के वास्ते
लब खोलिए जनाब ख़ुदाई के वास्ते

गर्दो-ग़ुबार रूह तलक आ न पाएंगे
कहते हैं शे'र दिल की सफ़ाई के वास्ते

तहज़ीब तिरे शह्र से कुछ दूर रुक गई
मिलते हैं लोग रस्म-अदाई के वास्ते
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आशा सक्सेना जी 
मैं धरती तू गगन
कैसे पहुंचू तुझ तक
दूरी कम न होती
यही सह न पाती |
उग्र हुआ तपता सूरज
तेरा ताप न कम होता
यशोदा अग्रवाल जी 
तुमने रखा मेरी गुलाबी हथेली पर
एक जलता हुआ शब्द-अंगारा
और कहा कि चीखना मत
बस यही सच है रिश्ता हमारा।
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मैं और तुम
कविता विकास जी 
शहर के शोर - गुल से दूर
स्याह अँधेरे में
जब दुनिया होती है
नींद के आगोश में
तब मिलते हैं
मैं और तुम।
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अमर वीरांगना झाँसी की महारानी लक्ष्मीबाई के
187वें जन्म-दिवस पर उन्हें अपने श्रद्धासुमन समर्पित करते हुए
श्रीमती सुभद्राकुमारी चौहान की
यह अमर कविता सम्पूर्णरूप में प्रस्तुत कर रहा हूँ!
सिंहासन हिल उठेराजवंशों ने भृकुटि तानी थी,
बूढ़े भारत में भी आई फिर से नई जवानी थी,
गुमी हुई आजादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी,
चमक उठी सन् सत्तावन में वह तलवार पुरानी थी।
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी...
"धन्यवाद"

10 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर मेहनत से सुंदर सूत्रों के साथ आज की शुक्रवारीय चर्चा राजेंद्र जी ।

    जवाब देंहटाएं
  2. शुभ प्रभात भाई राजेन्द्र जी

    आभारी हूँ

    सचमुच अच्छी रचनाओं का संकलन करते हैं आप

    सादर

    जवाब देंहटाएं
  3. सुन्दर समूहन सूत्रों का
    मेरी रचना शामिल करने के लिए आभार सर \

    जवाब देंहटाएं
  4. उपयोगी सूत्रों के साथ बढ़िया चर्चा।
    आपका आभार भाई राजेन्द्र कुमार जी।

    जवाब देंहटाएं
  5. सुंदर सार्थक सूत्रों से सुसज्जित मंच ! बढ़िया चर्चा !

    जवाब देंहटाएं
  6. उपयोगी सूत्रों के साथ बढ़िया चर्चा।
    मेरी पोस्ट को आज की चर्चा में आप ने सामिल की बहुत बहुत आभार राजेंद्र जी

    जवाब देंहटाएं
  7. बढ़िया पठनीय सूत्र व प्रस्तुति , आ. राजेंद्र भाई , शास्त्री जी व मंच को धन्यवाद !
    I.A.S.I.H - ( हिंदी में समस्त प्रकार की जानकारियाँ )

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  8. बहुत बढ़िया चर्चा प्रस्तुति..
    आभार!

    जवाब देंहटाएं

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