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रविवार, अगस्त 31, 2014

"कौवे की मौत पर" :चर्चा मंच :चर्चा अंक:1722

जाने कहाँ से एक कौवा उड़ता हुआ आया
और लोकल से कुछ कहने के प्रयास में
जा टकराया
बिजली के नंगे तार से

दोनों हाथ हवा में उठाकर
रे-रे-अरे करती,
कौवे को रोकने की कोशिश में
रूक गई लोकल
जाने कहाँ गुम हो गए बोल

टूटे तार से फूट कर निकली
गुस्से से भरी बिजली की लुतियां
हवा में पसर गई
पंख/चमड़ी
और रक्त की मिली-जुली गंध
पल भर में इस तरह झुलसा दिया उसे
जैसे जंगल की आग में गिरा हो उड़ता हुआ

कौवा,जलने के बाद
लटक रहा था बिजली के खंभे से बेजान
इस तरह खुली थी उसकी चोंच
जैसे पूछना चाहता था / जलते हुए भी

कौवे की मौत का / क्या मातम मनाए लोकल
जब रोज मरते हों आठ से दस लोग
कुछ गिरकर, कुछ कटकर
और कुछ झुलस कर

उसकी निगाहें टिकी थीं
डी सी से ए सी हुए
पचीस हजार वोल्ट के उस हत्यारे तार पर
जिसके नीचे से कल बारिश में गुज़रते
छाते में करेंट आ गया था और बच्चे के संग
झुलस गई थी एक औरत

(साभार : निलय उपाध्याय) 
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नमस्कार !
इस महीने की अंतिम चर्चा में आपका स्वागत है.
एक नज़र आज की चर्चा में शामिल लिंकों पर....
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चैतन्य
रश्मि प्रभा 

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हमसफ़र सपने
हिमकर श्याम 

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"जो निशां मैं तेरे दिल-ओ-जहन पे छोड़ आई थी"
परी 'ऍम' श्लोक 

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बहाना ख़राब है !
सुरेश स्वप्निल
मेरा फोटो
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सुमिरन की सुधि यों करो ,ज्यों गागर पनिहारी ; बोलत डोलत सुरति में ,कहे कबीर विचारि।
वीरेन्द्र कुमार शर्मा 
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तुम्हारी चाहना
सु..मन 

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क्या ये हमारी संस्कृति के अंग नहीं हैं ?
महिमा श्री
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छूट गये दर्ज़ होने से
अलकनंदा सिंह 

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हमारे रक्षक हैं पेड़ !
कालीपद प्रसाद 

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"जय-जय-जय गणपति महाराजा" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

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कभी ‘कुछ’ कभी ‘कुछ नहीं’ ही तो कहना है
सुशील कुमार जोशी 

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कुँआरी नदी
प्रतिभा सक्सेना 

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" खारापन बसने लगा मिठास खो रही हूँ "
विजयलक्ष्मी 

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कुछ दिल से
अंशु त्रिपाठी 

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१३७. नाटक
ओंकार 

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साझीदार
अनिता 

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मीठे शब्द
अपर्णा खरे 

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तन्हाईयाँ Tanhayiyan
नीरज द्विवेदी 

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कृपया छुट्टे पैसे देवें
कीर्तिश भट्ट 

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एक अनुरोध :  गूगल +  प्रोफाइल वाले ब्लॉग का कमेंट विंडो नहीं खुल पाने के कारण, ब्लॉगर को यहाँ शामिल पोस्ट की जानकारी देना संभव नहीं हो पाता है.ब्लॉगर मित्रों से अनुरोध है कि यदि संभव हो अपने ब्लॉग का प्रोफाइल गूगल + से ब्लॉगर प्रोफाइल कर लें.

धन्यवाद !

शनिवार, अगस्त 30, 2014

"गणपति वन्दन" (चर्चा मंच 1721)

मित्रों।
शनिवार की चर्चा में आपका स्वागत है।
देखिए मेरी पसंद के कुछ लिंक।
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"गणेश वन्दना" 

गणेश चतुर्थी की बहुत-बहुत शुभकामनाएँ!
मेरी जीवन संगिनी
श्रीमती अमर भारती के स्वर में!
मेरी लिखी हुई यह गणेश वन्दना सुनिए
और आप भी साथ-साथ गाइए!

विघ्न विनाशक-सिद्धि विनायक।
कृपा करो हे गणपति नायक!!
सबसे पहले तुमको ध्याता,
चरणयुगल में शीश नवाता,
आदि देव जय-जय गणनायक।
कृपा करो हे गणपति नायक!!
--
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गज़ल-कुञ्ज 
(3) 
कंटाल 
(4) 
झरबेरी-गुलाब 
(ख) 
रहे गुलाब दुखी हो बोल !
रहे गुलाब दुखी हो बोल !
"ऐ झरबेरी धीरे डोल !!
"तू तो अपनी मौज में है-
घायल मेरे अधर कपोल !!
--
झरीं नीम की पत्तियाँ 
(दोहा-गीतों पर एक काव्य) 
(5) 
समाज-चर्चा 
(घ) 
कितनी गहरी ‘खाइयाँ’ !
लोभ ‘कुर्सियों का’ तथा, डिगा हुआ ‘ईमान’ |
इन दोनों के ‘मेल’ से, दुखी सभी ‘इंसान’ 
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पारसा बना डाला ! 

ख़ाक ले कर ख़ुदा बना डाला 
ज़ौक़े-इंसां ! ये क्या बना डाला...
Suresh Swapnil
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तुझे नींद आ न जाए 

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल
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टूटे हुए आईनों की हकीकत को बताया जाए 

क्यों  न   हर  शाख पे  फूल  
मोहब्बत  का  खिलाया  जाए
सिलसिला   जिंदगी  का   
कुछ   इस  तरहा  चलाया  जाए ... 
मधु सिंह : बेनक़ाब पर
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एक कविता की व्यथा 

स्वराज सिंह
हे श्रोताओ ! मैं  कविता   बोल रही  हूँ
आज मैं तुमसे अपनी व्यथा खोल रही हूँ
पहले मुझे विभिन्न छन्दों में रचा जाता था
हर कवि काव्यशास्त्र   का ज्ञाता  था
आरोह-अवरोह का मुझसे ही तो नाता था
भाषा-विज्ञान का पूरा ध्यान रखा जाता था
आज के तथाकथित कवियों ने ऐसा किया हैं
जिससे   मेरा   जीवन  दुश्वार   हुआ है
--
"मन प्रदूषण" 
उलूक टाइम्स 
मेरे मन
के ग्लेशियर
से निकलने
वाली गंगा
तेरे प्रदूषण
को
घटते बढ़ते
हर पल
हर क्षण
महसूस किया
है मैंने...

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होते होते नहीं 

मजा तो है होने के बाद 

कुछ देर में 

कुछ कुछ कहने का 

उलूक टाइम्स पर सुशील कुमार जोशी
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शुक्रवार, अगस्त 29, 2014

"सामाजिक परिवर्तन" (चर्चा मंच 1720)

नमस्कार मित्रों, आज के चर्चा मंच पर आपका हार्दिक अभिनन्दन है। 
सामाजिक परिवर्तन समाज के आधारभूत परिवर्तनों पर प्रकाश डालने वाला एक विस्तृत एवं कठिन विषय है। इस प्रक्रिया में समाज की संरचना एवं कार्यप्रणाली का एक नया जन्म होता है। इसके अन्तर्गत मूलतः प्रस्थिति, वर्ग, स्तर तथा व्यवहार के अनेकानेक प्रतिमान बनते एवं बिगड़ते हैं। समाज गतिशील है और समय के साथ परिवर्तन अवश्यंभावी है। जैसा कि महान दार्शनिक अरस्तू ने भी कहा है- परिवर्तन संसार का नियम है। परिवर्तन किसी भी वस्तु, विषय अथवा विचार में समय के अन्तराल से उत्पन्न हुई भिन्नता को कहते हैं। परिवर्तन एक बहुत बड़ी अवधारणा है और यह जैविक, भौतिक तथा सामाजिक तीनों जगत में पाई जाती है किंतु जब परिवर्तन शब्द के पूर्व सामाजिक शब्द जोड़ कर उसे सामाजिक परिवर्तन बना दिया जाता है तो निश्चित हीं उसका अर्थ सीमित हो जाता है। परिवर्तन अवश्यम्भावी है क्योंकि यह प्रकृति का नियम है। संसार में कोई भी पदार्थ नहीं जो स्थिर रहता है। उसमें कुछ न कुछ परिवर्तन सदैव होता रहता है। स्थिर समाज की कल्पना करना आज के युग में संभव नहीं है। समाज में सामंजस्य स्थापित करने के लिए परिवर्तन आवश्यक है।
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अब चलते है आपके कुछ चुनिंदा लिंकों की तरफ .......
राजीव कुमार झा 
मिथ्याभाषी या झूठा कहलाना कोई पसंद नहीं करता,पर वास्तविकता यह है कि हम-सभी दिन में शायद,एक बार नहीं,कई बार झूठ बोलते हैं.एक विशेषज्ञ की राय है,’एक औसत व्यक्ति वर्ष में लगभग एक हजार बार झूठ बोलता है.’एक अन्य विशेषज्ञ की राय इससे कुछ भिन्न है.उनका कहना है कि ‘एक वयस्क व्यक्ति दिन में दो सौ बार और वर्ष में लगभग तिहत्तर हजार बार झूठ बोलता है.’
विजयलक्ष्मी 
एक सच सुनाऊ ..
मनन करना तुम 
बताना क्या गलत हूँ मैं 
मैं जानती हूँ 
समझती हूँ तुम्हे 
और तुम
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घुघूती बासूती
अपेक्षाओं के पेड़ उथले छोटे गमले में उगाना
उन्हें अधिक खाद पानी न खिलाना पिलाना
न अधिक धूप दिखाना व धूप से ही बचाना
उन्हें कमरे की खिड़की के आले पर न रखना.
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तुषार राज रस्तोगी 
सिलसिला-ए-गुफ़्तगू चलता रहा तुमसे
 इत्तफ़ाक नहीं करता था मैं जानबूझकर
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रंजना वर्मा 
बूँद बूँद बारिश के गिरते जितने
तेरे यादों में मेरी आंखों से अश्रु बहते उतने
प्रतिभा वर्मा 
तुम्हारी मासूम सी सूरत देखकर
कुछ ख्याल आते हैं मन में,
शायद कोई दर्द छुपा है
इस दिल में,
या हज़ारों राज़ दबे हैं
इन पलकों में,
तुम्हारी खामोश आँखे
कुछ कहती हैं मुझसे
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सरस 
अक्सर
हादसा होने के बाद....
उसके अंजाम के डर से ....
सन्नाटे गूँजा करते हैं भीतर..... !
और खड़े हो जाते हैं पहाड़ पलों के -
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जयश्री वर्मा 
सूरज की लाली ,पृथ्वी की हरियाली,
सागर का धैर्य,नदिया की लहरें मतवाली,
पंछियों का कलरव,भँवरों का गुनगुन का हौसला,
पुष्पों की रंग और मनभावन ख़ुश्बू बनी रहे,बनी रहे।
कविता रावत
भगवान श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव के बाद इन दिनों भाद्रपद मास के कृष्णपक्ष की चतुर्थी से लेकर अनंत चतुर्दशी तक दस दिन तक चलने वाले भगवान गणेश जी के जन्मोत्सव की धूम मची है। एक ओर जहाँ शहर के विभिन्न स्थानों पर स्थानीय और दूर-दराज से आये अधिकांश मूर्तिकारों द्वारा प्लास्टर आॅफ पेरिस के स्थान पर पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए मिट्टी से भगवान श्रीगणेश की मनमोहक प्रतिमाओं का निर्माण किया जा रहा है वहीं दूसरी ओर गली-मोहल्लों और बाजारों के पांडालों में गणपति स्थापना हेतु बने चबूतरों की साफ-सफाई और विद्युत् साज-सज्जा की तैयारी में श्रद्धालुजन रात-दिन

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आनन्द वर्धन ओझा
सुबह हुई तो चिड़िया-चिरगुन
और परिंदे हैरत में थे,
कहाँ गए वे छप्पर-छाजन और मुंडेर
जिन पर जा बैठा करते थे,
कहाँ गई वह पूरी बस्ती
जो कल रात यहां सोई थी,
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रेवा टिबड़ेवाल 
कभी-कभी घर का काम
करते -करते कुछ गानों के शब्द
ऐसे मन को छू जातें हैं की
बैठ कर उसे पूरा सुनने को 
और उस गीत मे
खो जाने को मन करता है
जाने क्यूँ………
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कमला सिंह 'ज़ीनत'
सिगरेट कहाँ है इमरोज़ ?
सुलगाओ न 
सुनो ,दो सुलगाना 
एक मेरे लिए और दूसरा खुद के लिए 
आओ बैठो मेरे पास 
कुछ अपनी कहें, कुछ तुम्हारी सुनें 
दुनिया का दिल बहुत जल चुका 
अब अपना दिल जलाएं
क्या हुआ … ?
अर्पणा खरे 
सच एक एहसास हो तुम 
जीवन का विश्वास हो तुम
(अनुवादक-डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
"काव्यानुवाद"
-0-0-
आज तुम्हारे बिना हमारा,
कितना शान्त अकेला घर है।
नये-पुराने मित्रवृन्द के लिए
प्रशंसा के कुछ स्वर हैं।
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विनीत वर्मा 
पार्वती नंदन व रिद्दी सिद्धी के दाता गणेशजी का जन्मोत्सव 'गणेश चतुर्थी' के अवसर पर पूरे देश में धूम मची हुई है। गणपति धाम व गणेश जी के प्रमुख मंदिरों में जहां भव्य सजावट का दौर जारी रहा वहीं उनके दर्शन के लिए भक्तों की लम्बी कतार भी देखी गई| यह त्यौहार महाराष्ट्र और गोवा में कोंकणी लोगों का सबसे ज्यादा लोकप्रिय त्यौहार है, जिसे वह बड़ी धूम-धाम और श्रद्धा के साथ मानते हैं। इसके साथ ही गुजरात, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश के अलावा भारत के सभी राज्यों में इस त्यौहार में बड़ी धूम रहती है।
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अनीता जी 
रात्रि काल में हम जो स्वप्न देखते हैं, वे हमारी इच्छा से नहीं आते, एक तरह से वे हम पर थोपे जाते हैं. जब भीतर की चेतना जगती है, तब सपनों पर हमारा अधिकार हो जाता है. जो स्वयं को सोये हुए देख लेता है वह भय से छूट जाता है
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फ़िरदौस खान 
मेरे महबूब
कितने पहर
मैं ढूंढती रही
तुम्हारे हाथ की लकीरों में
अपना वजूद...
जब कुछ समझ न पाई
तब
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लोकेन्द्र सिंह 
पत्तों की खडख़ड़ाहट
कोयल की कूक सुनी है। 
नीम के आंचल से 
चारों ओर ठण्डी हवा चली है।
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वीणा  सेठी 
हे विध्नहर्ता 
धरती पर आओ 
संकट हरो
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पारुल चन्द्रा
 कितने रंग निखर आये हैं 
तेरे प्यार के मुझपर, 
कभी दिन में सुरमई, 
रातों में अक्सर सियाह सी, 
तेरी यादों में पीली..
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आशा सक्सेना 
सुत गौरी के 
रिद्धि सिद्धि के दाता
प्रथम पूज्य |

बाल गणेश 
सवारी मूषक की 
माँ दिल हारी |
अनुपमा  त्रिपाठी 
दादुर ,मोर ,पपीहा गायें,
रूस रूस राग मल्हार सुनायें ,

बूंदों की लड़ियों में रिमझिम ,
गीत खुशी के झूमें आयें
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कच्ची सड़को को छोड़ 
जब चढ़ता हूँ 
पक्की सड़क पर 
पीछे छूट जाती है 
मेरी पहचान
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धन्यवाद, आपका दिन मंगलमय हो