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मंगलवार, जुलाई 14, 2015

(चर्चा अंक-2036)

मित्रों।
मंगलवार की चर्चा में आपका स्वागत है।
आज  आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' के ब्लॉग

"गीत सलिला" की एक पोस्ट  

"नवगीत: जैसा बोया" 

का पोस्टमार्टम प्रस्तुत है

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' हिन्दी ब्लॉगिंग के
ऐसे हस्ताक्षर हैं जो कई विधाओं में 
अपनी लेखनी चलाते हैं। 
लेकिन छन्दबद्ध रचनाओं में 
उनकी कोई सानी नहीं है।
जीवन के धरातल पर लिखा गया 
उनका यह नवगीत नारी की
वेदना को कहने में सफल है।
नवगीत का प्रत्येक अन्तरा 
सन्देशपरक और मार्मिक है।
देखिए उनका यह पूरा नवगीत-
*
जैसा बोया
वैसा पाया
.
तुमने मेरा
मन तोड़ा था
सोता हुआ
मुझे छोड़ा था
जगी चेतना
अगर तुम्हारी
मुझे नहीं
क्यों झिंझोड़ा था?
सुत रोया
क्या कभी चुपाया?
जैसा बोया
वैसा पाया
.
तुम सोये
मैं रही जागती
क्या होता
यदि कभी भागती?
क्या तर पाती?
या मर जाती??
अच्छा लगता
यदि तड़पाती??
केवल खुद का
उठना भाया??
जैसा बोया
वैसा पाया
.
सात वचन
पाये झूठे थे.
मुझे तोड़
तुम भी टूटे थे. 
अति बेमानी
जान सके जब
कहो नहीं क्यों
तुम लौटे थे??
खीर-सुजाता ने
भरमाया??
जैसा बोया
वैसा पाया
.
घर त्यागा
भिक्षा की खातिर?
भटके थे
शिक्षा की खातिर??
शिक्षा घर में भी
मिलती है-
नहीं बताते हैं  
सच शातिर 
मूरत गढ़
जग ने झुठलाया
जैसा बोया
वैसा पाया
.
मन मंदिर में
तुम्हीं विराजे
मूरत बना
बजाते बाजे
जो, वे ही
प्रतिमा को तोड़ें
उनका ढोंग
उन्हीं को साजे
मैंने दोनों में
दुःख पाया
जैसा बोया
वैसा पाया
.
तुम, शोभा की
वस्तु बने हो
कहो नहीं क्या
कर्म सने हो?
चित्र गुप्त
निर्मल रख पाये??
या विराग के
राग घने हो??
पूज रहा जग
मगर भुलाया 
जैसा बोया
वैसा पाया
------
आज के लिए बस इतना ही।
आप लिखते रहिए हम आपकी पोस्ट
पोस्टमार्टम के लिए खोजते रहेंगे।
कसी न किसी दिन आपकी भी 
किसी पोस्ट का नम्बर जरूर आ जायेगा।

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