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शुक्रवार, मई 20, 2016

"राजशाही से लोकतंत्र तक" (चर्चा अंक-2348)

मित्रों
शुक्रवार की चर्चा में आपका स्वागत है।
देखिए मेरी पसन्द के कुछ लिंक।

(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

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भुला दिए वो हमें यूँ किसी कसम की तरह

हमारे दिल में समाएँ हैं जो बचपन की तरह॥

वही ख्याल वही गम वही है शोख समां

ये राज़ तेरी मुहब्बत का है शबनम की तरह॥...  
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उपन्यास काँच के शामियाने (समीक्षा )

रश्मि रविजा का उपन्यास काँच के शामियाने जब मिला थोड़ी व्यस्तता थी तो कुछ गर्मी के अलसाए दिन। कुछ उपन्यास की मोटाई देखकर शुरू करने की हिम्मत नहीं हुई। फेसबुक और व्हाट्स अप के दौर में इतना पढ़ने की आदत जो छूट गई। दो एक दिन बाद पुस्तक को हाथ में रखे यूं ही उलटते पुलटते पढ़ना शुरू किया। सबसे ज्यादा आकृष्ट किया प्रथम अध्याय के शीर्षक ने 'झील में तब्दील होती वो चंचल पहाड़ी नदी ' वाह जीवन के परिवर्तन को वर्णित करने का इससे ज्यादा खूबसूरत तरीका क्या हो सकता था / फिर जो पढ़ना शुरू किया तो झील के गर्भ में बहती धार सी कहानी में उतरती चली गई... 
कासे कहूँ?परkavita verma 
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*मुक्त-ग़ज़ल : 187 -  

इम्तिहाँ 

जीवन बिताने पूछ मत कि हम कहाँ चले ? 
हर ओर मृत्यु नृत्यरत है हम वहाँ चले ॥ 
तैयारियाँ तो अपनी कुछ नहीं हैं किन्तु हम , 
देने कमर को कसके सख़्त इम्तिहाँ चले... 
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मैं खुद कविता बन जाऊं....!!! 

क्यों ना मैं इक चित्रकार बन जाऊं, 
तुम्हारी तस्वीर बनाऊं और,  
रंग तुम्हारी जिंदगी में भरती जाऊं... 
'आहुति' पर Sushma Verma 
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सिंहस्थ में 

Akanksha पर Asha Saxena 
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nari 

बस मैं बलात्कार कांड मैं सांसद मैं महिलाओं का क्रोध धधक रहा था लेकिन पुरुष वर्ग निस्तेज बैठा था जैसे ऐसी क्या खास बात हो गई यह तो रोज की बात है औरते तो बस रोना रोती हैं निकली कही को किसने कहा था सिनेमा जाये घर मैं बैठे खाये पिएं और मौज मारे घर से निकल कर आजादी की साँस लेना है पटक दी बढ़िया करके चैन आगया फालतू मैं हल्ला गुल्ला १४ होय दो पढ़ने पढ़ने की जरूरत क्या है कौन रोटी थोपवे मैं पढाई चाहिए वो ही काम ठीक है अब १४ साल की छोकरी को अगर पढ़ा लिखा आदमी चाहिए तो उसकी उम्र २६ -२७ तो होगी तो क्या बात है आदमी की न जात न उम्रन रंग रूप चाहिए देखा जाये तो बस आदमी होना चाहिए... 
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लखनऊ के उदीयमान कवि  
तरुण प्रकाश से हाल में परिचय हुआ ,  
पर मैं उन के गीत पढ कर मुग्ध हो गया ।  
उन के गीत नूतन विम्बों की लड़ियाँ हैं... 
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आम नहीं केवल आम 

 ये है रिश्तों और भावनाओं की मीठी मीठी याद --- ( जिन्ने अम्बियां ते अम्ब नीं खाए , ओ जम्मया नहीं ) आम का मौसम है कच्ची अंबिया लग चुकी हैं बाज़ार में रसायनों से पके आम आ चुके हैं लेकिन डाल पर पका आम अभी नहीं आया है... 
रसबतिया पर -सर्जना शर्मा  
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हार...... 

जब मैं तुम्हारी घुप्प चुप्पी से
परिशां होकर चुप हो जाता हूँ
तब मेरी चुप्पी चुपचाप आकर
मुझे यूँ चुपचाप रहने से रोक
ये समझा कर सिहर जाती है
कि चुप्पी से कुछ हासिल नहीं
कुछ कहो ..यूँ चुपचाप न सहो
बेआस लहरों का साहिल नहीं
चुपचाप रह जाना तो एक और
नई घुप्प चुप्पी का आगाज है
ये सहनशीलता पे एक वार है...
ये महज एक हार है,,,हार है!!!
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-समीर लाल समीर’ 
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आदमी की बात आदमी जाने 

कैसे, कब , कितना टूटा, 
क्यों टूटाआदमी 
इससे सरोकार क्यों रखिए 
यह तो आदमी की बात है... 
udaya veer singh 
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अनज़ान रास्तों पे निकलना न परिन्दो  
जीवन को हँसी-खेल समझना न परिन्दो  

आगे कदम बढ़ाना ज़रा देख-भाल कर 
काँटों से तुम कभी भी उलझना न परिन्दो... 

1 टिप्पणी:

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