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शनिवार, जुलाई 23, 2016

"आतंक के कैंसर में जकड़ी दुनिया" (चर्चा अंक-2412)

मित्रों 
शनिवार की चर्चा में आपका स्वागत है। 
देखिए मेरी पसन्द के कुछ लिंक।

(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

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 राजनेताओं  को यह समझना होगा कि अपने राजनीतिक नफे-नुकसान के लिए किसी व्यक्ति या संस्था पर झूठे आरोप लगाना उचित परंपरा नहीं है। कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राहुल गांधी शायद यह भूल गए थे कि अब वह दौर नहीं रहा, जब नेता प्रोपोगंडा करके किसी को बदनाम कर देते थे। आज पारदर्शी जमाना है। आप किसी पर आरोप लगाएंगे तो उधर से सबूत मांगा जाएगा। बिना सबूत के किसी पर आरोप लगाना भारी पड़ सकता है। भले ही कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष इस मामले पर माफी माँगने से इनकार करके मुकदमे का सामना करने के लिए तैयार दिखाई देते हैं लेकिन, कहीं न कहीं उन्हें यह अहसास हो रहा होगा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर महात्मा गांधी की हत्या का अनर्गल आरोप लगाकर उन्होंने गलती की है। इसका सबूत यह भी है कि वह अदालत गए ही इसलिए थे ताकि यह प्रकरण खारिज हो जाए। गौरतलब है कि गांधी हत्या का आरोप संघ पर लगाने के मामले में कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके सीताराम केसरी को भी माफी का रास्ता चुनना पड़ा था। प्रसिद्ध स्तम्भकार एजी नूरानी को भी द स्टैटसमैन अखबार के लेख के लिए माफी मांगनी पड़ी थी... 
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गीत 

"पा जाऊँ यदि प्यार तुम्हारा" 

(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक') 

कंकड़ को भगवान मान लूँ
पा जाऊँ यदि प्यार तुम्हारा! 
काँटों को वरदान मान लूँ
पा जाऊँ यदि प्यार तुम्हारा!... 
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भरोसा... 

ढ़ेरों तकनीक हैभरोसा जतानेऔर भरोसा तोड़ने कीसारी की सारी इस्तेमाल में लाई जाती है परभरोसा जताने यातोड़ने के लिएलाज़िमी है किभरोसा हो । 
लम्हों का सफ़र पर डॉ. जेन्नी शबनम 
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चिट्टे चमकते चोले ओढ़ आए हैं - 

माई तेरे गाँव में कुछ लोग आए हैं  
हाथों में नगाड़े और ढ़ोल लाये हैं... 
udaya veer singh 
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निल्को का ये उद्दघोष है 

मैंने खोया अब होश है  
देखोगो अब वो मेरा जोश है 
बंद करो इन सापो को दूध पिलाना 
पूरी दुनिया को निल्को का ये उद्दघोष है... 
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भढुवे 

ये भढुवे हैं, रखते हैं स्त्री को वक्त की चाक पर; 
पर भूल जाते हैं, धुरी में रहने वाली स्त्री को । 
न चाहकर भी, स्त्री हो जाती है विवश कि 
बचा रहे स्त्रीत्व वक्त की चाक पर । 
अन्तर्गगन पर धीरेन्द्र अस्थाना 
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याद तेरी हमें आज आने लगी 
ज़िंदगी अब मधुर गीत गाने लगी ....  
Ocean of Bliss पर Rekha Joshi 

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जिंदगी मुबारक ! 

...हमारे ऑफिस के प्रांगण में सामने की तरफ खाली पड़ी जगह थी जिसमें मैं पौधे लगाना चाहती थी पर सभी द्वारा मेरी बात नज़रअंदाज़ की जाती रही | मैंने कुदाली खरीद कर खुद क्यारी बनाई और इधर उधर से लकड़ी लाकर बाड़ लगा दिया क्योंकि आवारा पशु यहाँ वहां घूमते रहते और पौधों को तोड़ देते | पास के एक घर में काफी पौधे लगे थे उनसे मांग कर लगाये | रोज़ पानी देती | ऑफिस के लोग जो ज्यादातर गाँव से आते हैं मुझे देख कर हंस कर कहते कि सुमन... 
बावरा मन पर सु-मन 
(Suman Kapoor) 
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वक्त कम है, बहुत काम मुझे जाने दे !! 

बहुत मसरूफ हूँ , मत रोक मुझे जाने दे !
वक्त कम है,  बहुत  काम ! मुझे जाने दे    !!
मैं  तो उसमें समाना चाहता हूँ...
वो लहर जा रही है मत रोक चले जाने दे... 
गिरीश बिल्लोरे मुकुल 
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उपहार 

उपहार अनमोल होते हैं 
अगर दिल से दिये जायें 
उपहार हर उम्र में 
सचमुच कितने अच्छे लगते हैं... 
गुज़ारिश पर सरिता भाटिया 
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आतंक के कैंसर में जकड़ी दुनिया 

हमारी वर्तमान दुनिया की एक बड़ी त्रासदी यह है कि भारी संख्या में मासूम लोग आतंकवाद की भेंट चढ़ रहे हैं। आतंकवाद से मुकाबला करने के लिए सुरक्षा आदि के उपायों पर जो भारी खर्च हो रहा हैए वह भी पूरी तरह से अनुत्पादक है। इससे भी बड़ी मुसीबत यह है कि आतंकवाद को धर्म से जोड़ दिया गया है। लगभग दो सप्ताह पहले ;जुलाई 2016,अमरीका के ओरलैंडो स्थित पल्स क्लब में 49 लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया। इस भयावह घटना की दो व्याख्याएं की जा रही हैं.पहला, यह जिहादी आतंकवाद है और दूसरा, यह एक ऐसे व्यक्ति की करतूत है जो समलैंगिकों से घृणा करता था... 
Randhir Singh Suman  
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मोरचा सम्भाले... 


हिन्दी में दो तरह का मोरचा प्रचलित है। एक मोरचा वह है जो लोहे को ख़राब कर देता है। धार कुंद कर देता है। जिसे ज़ंग लगना कहते हैं। संयोग से दूसरा मोर्चा भी जंग से ही जुड़ा है, बस नुक़ते का फ़र्क़ है। उसे जंग का मोरचा कहते हैं। दोनो ही मोरचे फ़ारसी से आयातित हैं। ग़ौर करें कि हिन्दी में युद्धस्थल पर तैनाती की जगह वाला मोरचा ज़्यादा प्रचलित है। ज़ंग के अर्थ वाला मोरचा अब हिन्दी में कम प्रयोग होता है। हाँ आंचलिक बोलियों में बना हुआ है। मोरचा मूलतः مورچال है यानी मोरचाल जो मीम वाव रे चे अलिफ़ लाम से मिलकर बनता है। पर हिन्दी में मोरचा ही प्रचलित हुआ... 
शब्दों का सफर पर अजित वडनेरकर 
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विगत दो वर्षों से साहित्यम का नियमत अद्यतन नहीं हो पा रहा। अंक के स्तर पर काम करने के लिये जिन तत्वों की आवश्यकता होती है वह सम्भव या समेकित [consolidated / Integrated] नहीं हो पा रहे। यदा-कदा रचनाधर्मी भी अद्यतन के विषय में पूछताछ करते रहते हैं। बड़ी ही विचित्र स्थिति है। मन में विचार आ रहा है कि कुछ मित्रों के सुझाव व आग्रह पर आरम्भ किये गये मासिक / त्रैमासिक अंक-स्वरूप को तजते हुए पहले के जब-तब-टाइप-सिस्टम पर वापस लौट चलें J मतलब जब समय उपलब्ध रहे तब वेब-पोर्टल को अपडेट कर दिया जाये। शायद वही ठीक रहेगा।
आइये, भाई मयंक अवस्थी जी की एक शानदार ग़ज़ल पढ़ते हैं।
सादर
बाल उलझे हुये दाढी भी बढाई हुई है
तेरे चेहरे पे घटा हिज्र की छाई हुई है
जैसे आँखों से कोई अश्क़ ढलकता जाये
तेरे कूचे से यूँ आशिक की विदाई हुई है... 
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तन्त्र-मन्त्र-संयन्त्र को, दे षडयंत्र हराय।शकुनि-कंस की काट है, केवल कृष्ण उपाय।।
बारिस होती देख जब, पंछी रहे लुकाय।
बादल के ऊपर उड़े, बाज बाज ना आय।।
बाज बाज आये नहीं, बादल पे चढ़ जाय ।।
विकट-परिस्थिति तोड़ दे, अगर आत्म-विश्वास।
देखो व्यक्ति-विशेष को, तोड़ चुका जो फाँस।।
राजनीति जब वोट की, करें सिद्ध वे स्वार्थ |
राष्ट्र-नीति बीमार है, मोहग्रस्त है पार्थ || 
भारी बारिस में जहाँ, पंछी रहे लुकाय।
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