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मंगलवार, सितंबर 19, 2017

सुबह से ही मगर घरपर, बड़ी सी भीड़ है घेरी-चर्चामंच 2732


सुबह से ही मगर घरपर, बड़ी सी भीड़ है घेरी- 

; रविकर 
मिली मदमस्त महबूबा मुझे मंजिल मिली मेरी।
दगा फिर जिन्दगी देती, खुदारा आज मुँहफेरी।

कभी भी दो घरी कोई नहीं यूँ पास में बैठा

सुबह से ही मगर घरपर, बड़ी सी भीड़ है घेरी।

अभी तक तो किसी ने भी नहीं कोई दिया तोह्फा।

मगर अब फूल माला की लगाई पास में ढेरी।

तरसते हाथ थे मेरे किसी ने भी नहीं थामा

बदलते लोग कंधे यूँ कहीं हो जाय ना देरी।

कदम दो चार भी कोई नही था साथ में चलता

मगर अब काफिला पीछे, हुई रविकर कृपा तेरी।।

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10 टिप्‍पणियां:

  1. शुभ प्रभात..
    आभार रविकर भाई
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  2. सुन्दर रविकर चर्चा। आभार 'उलूक' के सूत्र को जगह देने के लिये।

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत से नए सूत्र ... अबह्र मुझे भी आज शामिल करने का ...

    जवाब देंहटाएं
  4. वाह !
    सामयिक विचारणीय सूत्रों के साथ आज का चर्चामंच।
    सभी चयनित रचनाकारों को बधाई एवं शुभकामनाऐं।

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत बहुत शुक्रिया, मयंक जी।

    जवाब देंहटाएं
  6. सदा की तरह पठनीय सूत्रों से सजा है चर्चा मंच का यह अंक भी, आभार मुझे भी इसमें शामिल करने के लिए.

    जवाब देंहटाएं
  7. बहुत ही उम्दा लिंक प्रस्तुतीकरण विशेष कर मुझे रेवा जी पोस्ट और मृणाल पण्डे जी से सम्बंधित पोस्ट अच्छी लगी इसमें ऐसे बिंदु उठाये गये है जिनपर भी विचार करना जरुरी है मेरी रचना को यहाँ स्थान देने के लिए हार्दिक आभार

    जवाब देंहटाएं

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