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मंगलवार, जनवरी 31, 2017

हाथ छोड़ के, "गोड़ से", चरखा रहे चलाय-; चर्चामंच 2587



Sudhinama पर sadhana vaid 

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बजट देश का बनाम घर का 

देवेन्द्र पाण्डेय 

हम हिंदूस्तान को भूल गये, 

kuldeep thakur 

वे जड़े ढूंढ रहे हैं 

smt. Ajit Gupta 

अवन्तिका चल बसी 

ZEAL 
 ZEAL 

सबके अपने युद्ध अकेले 

Praveen Pandey 

व्यंग्य जुगलबंदी -  

घर-घर, देश-देश का बिगड़ा बजट

Ravishankar Shrivastava 

गीत  

"सबके मन को भाया बसन्त"  

(डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’) 

उतरी हरियाली उपवन में,
आ गईं बहारें मधुवन में,
गुलशन में कलियाँ चहक उठीं,
पुष्पित बगिया भी महक उठी, 
अनुरक्त हुआ मन का आँगन।
आया बसन्त, आया बसन्त।१।

हाए! 

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ 

ऐतिहासिक चरित्रों से निकलती चिंगारी 

राजीव कुमार झा 

अहम् ... 

Digamber Naswa 
रिश्तों में कब, क्यों 
कुछ ऐसे मोड़ आ जाते हैं की अनजाने ही 
हम अजनबी दीवार खुद ही खड़ी कर देते हैं ...  
फिर उसके आवरण में अपने अहम्, 
अपनी खोखली मर्दानगी का प्रदर्शन करते हैं ... 

मुलायम की हाँ या ना? 

pramod joshi 

औरत गुलाम है. 

Shalini Kaushik 

लिये लुकाठी हाथ ! 

प्रतिभा सक्सेना 

तब और अब 

Asha Saxena 

कार्टून :- आ वैलेंटाइन्‍स डे, आ... 

Kajal Kumar 

रविवार, जनवरी 29, 2017

"लोग लावारिस हो रहे हैं" (चर्चा अंक-2586)

मित्रों 
रविवार की चर्चा में आपका स्वागत है। 
देखिए मेरी पसन्द के कुछ लिंक।

(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक') 

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बालगीत  

"प्रकाश का पुंज हमारा सूरज" 


पूरब से जो उगता है और पश्चिम में छिप जाता है। 
यह प्रकाश का पुंज हमारा सूरज कहलाता है।।  
भानु रात और दिन का हमको भेद बताता है।  
रुकता नही कभी भी चलता रहता सदा नियम से,  
दुनिया को नियमित होने का पाठ पढ़ा जाता है।  
यह प्रकाश का पुंज हमारा सूरज कहलाता है... 
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प्रेम 

आज तुम्हारा चित्र हाथ में क्या आया 
गुजरा कल फिर से यादों में जीवन्त हो उठा... 
धीरेन्द्र अस्थाना 
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और नहीं तो! 

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ 
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लाखों सपनों का शहर -  

कोटा. 

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जाले पर पुरुषोत्तम पाण्डेय 
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704 

भारत माँ ने आँखें खोलीं 
(चौपाई 
ज्योत्स्ना प्रदीप 
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अच्छा तो लगता है 

जब धीरे से कोई कानों में कह जाता है 
प्यार के दो रसीले शब्द... 
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तू नशे में था - 

*तू नशे में था * 
*तेरे घर की आबरू * 
*नीलाम हो गई -*  
*तू नशे में था *  
*तेरी ड्योढ़ी बदनाम हो गई ... 
udaya veer singh 
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बदस्तूर...........अच्युत शुक्ल 

मेरे इश्क़ का मसला ये तमाम हुआ, 
मैं तो बदनाम सरेआम हुआ... 
मेरी धरोहर पर yashoda Agrawal 
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सप्ताहांत नहीं मासांत के लिए फिल्म बनाइये 

कुछ अलग सा पर गगन शर्मा 
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गुठली 

चूसकर फेंकी गई जामुन की एक गुठली 
नरम मिट्टी में पनाह पा गई, 
नन्ही-सी गुठली से अंकुर फूटा, 
बारिश के पानी ने उसे सींचा, 
हवा ने उसे दुलराया. 
धीरे-धीरे एक पौधा, 
फिर पेड़ बन गई... 
कविताएँ पर Onkar 
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सबके अपने युद्ध अकेले 

और स्वयं ही लड़ने पड़ते, 
सहने पड़ते, कहने पड़ते, करने पड़ते,  
ह सब कुछ भी, 
जो न चाहे कभी अन्यथा... 
Praveen Pandey 
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अवमूल्यन किसका हुआ है 

Upchar और प्रयोग 
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कविता  

"अब बसन्त आने वाला है"  

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वे जड़े ढूंढ रहे हैं 

गणतंत्र दिवस अपनी उपादेयता बताकर चले गया, मेरे अंदर कई पात्र खलबली मचाने लगे हैं। देश के गण का तन्त्र और देश के मन की जड़े दोनों को खोद-खोदकर ढूंढने का ढोंग कर रही हूँ। जी हाँ हम ढोंग ही करते हैं। देश के प्रतीक के रूप में अपने ध्वज के समक्ष जब सल्यूट करने को हाथ उठते हैं तब उसके तंत्र की ओर ध्यान ही नहीं जाता... 
smt. Ajit Gupta 
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