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रविवार, जुलाई 29, 2018

"चाँद पीले से लाल होना चाह रहा है" (चर्चा अंक-3047)

मित्रों! 
रविवार की चर्चा में आपका स्वागत है। 
देखिए मेरी पसन्द के कुछ लिंक। 

(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक') 

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आदमी  

(ग़ज़ल) 

आदमी यह आम है बस इसलिये नाकाम है  
कामना मिटती नहीं, कहने को निष्काम है... 
Smart Indian  
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ग़ज़ल- 

हौसलों को परखना बुरा तो नहीं  
टिमटिमाता दिया मैं बुझा तो नहीं  
बादलों में छुपा चंद्रमा तो नहीं... 
Vandana Ramasingh 
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जरूरत का फूल 

डॉ. अपर्णा त्रिपाठी 
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580.  

गुमसुम प्रकृति  

(प्रकृति पर 10 सेदोका) 

1.   
अपनी व्यथा   
गुमसुम प्रकृति   
किससे वो कहती   
बेपरवाह   
कौन समझे दर्द   
सब स्वयं में व्यस्त... 
डॉ. जेन्नी शबनम  
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बातें हैं तो हम-तुम हैं 

बातें – बातें और बातें, बस यही है जिन्दगी। चुप तो एक दिन होना ही है। उस अन्तिम चुप के आने तक जो बातें हैं वे ही हमें जीवित रखती हैं। महिलाओं के बीच बैठ जाइए, जीवन की टंकार सुनायी देगी। टंकार क्यों? टंकार तलवारों के खड़कने से भी होती है और मन के टन्न बोलने से भी होती है। झगड़े में भी जीवन है और प्रेम में भी जीवन है। मैं जब महिलाओं के समूह को पढ़ती हूँ तो वहाँ मुझे जीवन की दस्तक सुनायी देती है, कहीं चुलबुली हँसी बिखर रही होती है तो कहीं शिकायत का दौर, लेकिन लगता है कि हम सब खुद को अभिव्यक्त कर रहे हैं। जहाँ अभिव्यक्ति नहीं वहाँ मानो जीवन ही नहीं है... 
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4 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर चर्चा. मेरी रचना शामिल की. शुक्रिया

    जवाब देंहटाएं
  2. सुन्दर रविवारीय चर्चा। आभार आदरणीय 'उलूक' के पीले से लाल होते चाँद की खबर को चर्चा के शीर्षक पर स्थान देने के लिये।

    जवाब देंहटाएं
  3. मेरी रचना 'नाविकों के तन सहजता से मनुजता ढो रहे हैं' शामिल करने के लिए आपका आभार.
    बहुत सार्थक चर्चा.

    जवाब देंहटाएं

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