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रविवार, नवंबर 08, 2015

"अच्छे दिन दिखला दो बाबू" (चर्चा अंक 2154)

मित्रों।
रविवार की चर्चा में आपका स्वागत है।
देखिए मेरी पसन्द के कुछ लिंक।

(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

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दोहे "दीपावली"


दीपक जलता है तभी, जब हो बाती-तेल।
खुशिया देने के लिए, चलता रहता खेल।१।
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तम हरने के वास्ते, खुद को रहा जलाय।
दीपक काली रात को,  आलोकित कर जाय।२... 
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तुम्हारी देहरी से लौट आई हूँ... 

मैं अक्सर तुम तक जा कर, 
तुम्हारी देहरी से लौट आई हूँ, 
कल रात भी हवाओं के साथ, 
तुम्हारी पर गयी थी, 
देखा की तुम मेरे ही, 
ख्वाबो में सो रहे थे, 
सोचा सांकल खटखटा आऊं, 
तुमको जगा कर कहूँ, कि 
तुम्हारे ख्वाबो से निकल कर, 
तुम्हारे पास आई हूँ...  
'आहुति' पर Sushma Verma 
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अच्छे दिन दिखला दो बाबू 
रोजगार दिलवा दो बाबू 
दो जून की रोटी का 
हमको अधिकार दिला दो बाबू ... 
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मेरे दादाजी 

गाँव में सभी अपनो से बड़ो या छोटो को भी जिन्हें सम्मान देना होता है उसे "पालागी" (इस शब्द को मै अभी तक नमस्ते का समानार्थी शब्द मानता आया हूँ, लेकिन शायद इस शब्द का अर्थ निकलना मेरी सबसे बड़ी भूल होगी) कहकर संबोधित करते है | मेरे दादाजी जो उस समय ग्राम प्रधान थे जब मै पैदा भी नहीं हुआ था, उन्हें पुरे गाँव बहूत सम्मान की दृष्टी से देखता था... 
मेरे मन की पर Rushabh Shukla 
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मादक हो तुम मदिरालय फिर क्यों जाना 

चित्र : राजा रवि वर्मा 
मादक हो तुम मदिरालय फिर क्यों जाना 
क्यों कर मद क्रय कर फिर घर लाना ..!!
जब मानस में मधु-निशा आभासित हो-
तो फिर क्यों कोई मदिरालय परिभाषित हो 
विकल कभी अरु कभी तुम्हारा मुस्काना !
              मादक हो तुम.... 
इश्क-प्रीत-लव पर Girish Billore 
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सपनो का घर 

मेरे सपनो का घर, 
सुन्दर तो नही लेकिन, 
मेरे सपनो कि एक उम्मीद है ! 
चन्द ईटो से बना, 
ये आशियाना 
यह मेरे सपनो कि मजबूत नीव है... 
Rushabh Shukla 
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विचलन 

प्रतीक्षा के लिए चित्र परिणाम
मन की बातें मन में ही
उलझी सी सदा बनी रहतीं
कभी सजग कभी सुप्त
उसे अशांत किये रहतीं
कितना भी प्रयत्न करें
पिंड छोड़ नहीं पातीं... 
Akanksha पर Asha Saxena 
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कितनी उदास शाम है... !! 

उदासी नयी बात नहीं है... 
इसमें भी कुछ नया नहीं कि 
खुद ही खुद को समझा कर 
थोड़ा सा और मन को उलझा कर 
लौट जाएगी शाम... 
अनुशील पर अनुपमा पाठक 
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"इतना क्या उदास होना" 

ये लम्बे रास्ते हैं,  
हैं मगर कुछ दूर तक ही,  
उम्र को यूँ अज़ल तक ढोना नहीं है,  
हर कुछ, तपे जो आग में, 
सोना नहीं है। 
यूँ पूरी किसी की होती नहीं हैं 
तमन्नायें... 
मीमांषा  पर rashmi savita 
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मन जब खो जाता है ...... 

मन जब खो जाता है 
कहीं किसी अनजान दुनिया में 
बहुत मुश्किल होता है तब 
उसे जगाना और उबारना... 
Yashwant Yash 
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वैसे लोग 

आजकल बेवकूफ कहलाते हैं 

होश संभालने से लेकर किशोरावस्था का समय दिलो-दिमाग के परिपक्व होने का होता है। इस काल के दौरान घटी घटनाऐं या बातें ताउम्र के लिए अपनी छाप छोड़ जाती हैं। मेरे यादों के गलियारे की दीवारों पर टंगे फ्रेमों में लगीं कुछ तस्वीरें ऐसी हैं जो मुझे कभी नहीं भूलतीं। मैं उनके पदचिन्हों पर हूबहू ना भी चल पाया होऊं पर उनकी नैतिकता, उनके आदर्श, उनकी सच्चाई, उनका भोलापन, उनका ममत्व, उनकी निस्पृहता कभी भी मेरे मानस-पटल से ओझल नहीं हो पाते... 
कुछ अलग सा पर गगन शर्मा 
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हर जंग कलम ने ही जीती है... 

ओ लिखने वालो 
तुम्हारे पास वो शब्द हैं 
जो बदल सकते हैं पवन की दिशा 
जिन के बल पर तुम क्रांति ला सकते हो... 
तुम्हारे पास कलम की ताकत है 
वो कलम जिसका लिखा 
रामायण का एक एक शब्द 
भविष्य में सत्य हुआ...  
kuldeep thakur 

लोकतंत्र बचाने के लिए जरूरी है 

पुरस्कार वापसी 

पिछले कुछ हतों में लेखकों, वैज्ञानिकों और कलाकारों के सम्मान लौटाने की बाढ़ देखी गई। पुरस्कार लौटाने के जरिये ये सम्मानित और पुरस्कृत लोग अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए खड़े हुए हैं। बढ़ती असहिष्णुता और हमारे बहुलतावादी मूल्यों पर हो रहे हमलों पर अपनी चिंता जाहिर करते हुए इन शिक्षाविदों, इतिहासकारों, कलाकारों और वैज्ञानिकों के कई बयान भी आए हैं। जिन्होंने अपने पुरस्कार लौटाए हैं वे सभी साहित्य, कला, फिल्म निर्माण और विज्ञान के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान देने वाले लोगों में से हैं। इस तरह सम्मान लौटाकर उन सभी लोगों ने सामाजिक स्तर पर हो रही घटनाओं पर अपने दिल का दर्द बयान किया है... 
Randhir Singh Suman 

1 टिप्पणी:

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