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सोमवार, अप्रैल 27, 2020

'अमलतास-पीले फूलों के गजरे' (चर्चा अंक-3683)

सादर अभिवादन।
सोमवारीय प्रस्तुति में आपका स्वागत है। 
--
 'शब्द-सृजन-१९ का विषय है- 
"मुखौटा " 
आप इस विषय पर अपनी रचना (किसी भी विधा में) आगामी शनिवार (सायं 5 बजे) तक  चर्चा-मंच के ब्लॉगर संपर्क फ़ॉर्म (Contact Form ) के ज़रिये  हमें भेज सकते हैं।  चयनित रचनाएँ आगामी रविवासरीय चर्चा-अंक में  प्रकाशित की जाएँगीं।

-- सजीव सारथी जी की मुखौटे पर सृजित रचना आपकी नज़र-

पहचान लेता है चेहरे में छुपा चेहरा - मुखौटा,
मुश्तैद है, तपाक से बदल देता है चेहरा - मुखौटा।

कहकहों में छुपा लेता है, अश्कों का समुन्दर,
होशियार है, ढांप देता है सच का चेहरा - मुखौटा।

बड़े-छोटे लोगों से, मिलने के आदाब जुदा होते हैं,
समझता है खूब, वक्त-ओ-हालात का चेहरा - मुखौटा।

देखता है क्यों हैरान होकर, आइना मुझे रोज,
ढूँढ़ता है, मुखौटों के शहर में एक चेहरा - मुखौटा।
साभार: कविता कोश 
*****
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*****
*****
*[१]* इतिहासः प्रधानार्थः श्रेष्ठः सर्वागमेष्वयम् 
इतिहासोत्तमे ह्यस्मिन्नर्पिता बुद्धिरुत्तमा 
स्वरव्यञ्जनयोः कृत्स्ना लोकवेदाश्रयेव वाक् 
अस्य प्रज्ञाभिपन्नस्य विचित्रपदपर्वणः 
भारतस्येतिहासस्य श्रूयतां पर्वसंग्रहः ..
*****

कलयुग का काँटा

*****तालाबंदी में किसी अज्ञात की खोज : विजय कुमार
उदास रोते हुए विवरण होंगे

एक लालची दुनिया की चिपचिपाहट

मुरझाये हुए गुलदस्तेबर्गर किंग,

ऑनलाइन पेमेंट के डेबिट कार्ड

भयभीत देहों से झर रहा होगा जिये हुए जीवन का पलस्तर

रोबदार समझी गयी हर आवाज में

भरी होगी अनिश्चय की कोई सड़ांध
*****
कहकहे लगाती दुनिया के भीड़ में चल रहे सभी!
एक ठहराव आगया जिंदगी में जिन्दगी के साथ!!
दिल न जाने क्यों कभी मोम बन पिघलने लगता!
अश्क बन आँखों से होकर बहता बेबसी के साथ!
*****
उम्मीद का थामे हाथ किताबें

जीवन मूल्यों से अंतस भरती,
 नियति का बोध करातीं किताबें,
नवाँकुर को वृक्ष रुप में गढ़ती,
प्रारब्ध को सुगम बनातीं किताबें।


नदी सो रही है 
रेत पर 
भींगती हुई 
खाली पाँव 
वह मजदूर लड़की 
भी एक नदी है 
खेत में खोई है 
*****



bhagwan%2Bparashuram
ऐ मूढ़ जनक तू सच बतला, ये धनुवा किसने तोड़ा है।
इस भरे स्वयंवर में सीता से नाता किसने जोड़ा है।
जल्दी उसकी सूरत बतला, वरना चैपट कर डालूँगा।
जितना राज्य तेरा पृथ्वी पर, उलट-पुलट कर डालूँगा।




अक़्सर कई घरों में
चहारदीवारी के भीतर
अनुशासन के साथ
बिना शोर-शराबे के भी
जलते हैं कई सपने
सुलगते हैं कई बदन
मेरी ही तरह क्योंकि एक
हम ही नहीं वेश्याएँ केवल
ब्याहताएँ भी तो कभी-कहीं
सुलगा करती हैं साहिब !
*****
आज बस यहीं तक 
फिर मिलेंगे अगले सोमवार। 
रवीन्द्र सिंह यादव 
-- 

9 टिप्‍पणियां:

  1. उपयोगी लिंकों के साथ सुन्दर चर्चा।
    आपका आभार आदरणीय रवीन्द्र सिंह यादव जी।

    जवाब देंहटाएं
  2. आज के अंक में अमलतास के चटक क़ुदरती रंगों वाले गजरे/झूमर के साथ-2 कुदरत के और भी कई आयाम और समसामयिक कोरोना, पौराणिक कथाओं के संग इन्द्रधनुषी प्रस्तुति के अंत में मेरी रचना/विचार को स्थान देने के लिए आपका आभार "आदरणीय" रवीन्द्र जी ☺

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत अच्छी चर्चा प्रस्तुति में मेरी पोस्ट शामिल करने हेतु आभार!

    जवाब देंहटाएं
  4. सुन्दर लिंक्स से सजी बहुत सुन्दर चर्चा प्रस्तुति ।

    जवाब देंहटाएं
  5. बेहतरीन प्रस्तुति सर ,सभी रचनाकारों को हार्दिक शुभकामनाएं एवं सादर नमस्कार

    जवाब देंहटाएं
  6. लाज़वाब पोस्ट, हमारी रचना को शामिल करने के लिए आभार

    जवाब देंहटाएं
  7. बेहतरीन प्रस्तुति आदरणीय सर. मेरी रचना को स्थान देने हेतु सादर आभार.

    जवाब देंहटाएं
  8. बहुत सुंदर चर्चा प्रस्तुति

    जवाब देंहटाएं

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