मित्रों!
प्रस्तुत है जून के अन्तिम गुरुवार की चर्चा!
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दोहे "मना रहा है ईद" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
मेले से लाता नहीं, चिमटा आज हमीद।
हथियारों के साथ अब, मना रहा है ईद।।
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खून-खराबे का चला, रमजानों में दौर।
आयत पर कुरआन की, नहीं किसी का गौर।।
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राजकीय मेडिकल कॉलेज परिसर में आवास मिलने के बाद इसे हरा-भरा बनाने की कोशिश कर रहा हूँ। साग-सब्जी और फूल-पत्ती उगाने के उपक्रम प्रारम्भ हो चुके हैं जो निराई-गुड़ाई की निरंतरता मांगते हैं। मेरे सहयोगी मोहनलाल इसे बखूबी कर रहे हैं। इसके साथ ही अहाते में कुछ स्थायी करने की इच्छा व्यक्त करने पर मेरे सहकर्मी सोहन बाबू आज मुझे अम्बाला रोड पर स्थित 'बगिया नर्सरी' नामक पौधशाला में लेकर गये। हमने परिसर में उपलब्ध स्थान को देखते हुए दो आम्रपाली, दो आंवले, एक नीबू और एक अमरूद का पेड़ खरीदा। घर लाकर उसे तत्काल गढ्ढा खोदकर रोप दिया। इस कार्य मे सहयोग स्वरूप बॉबी माली व वाहन चालक जावेद ने भी श्रमदान किया।--
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शीत-घाम की राह में ,
वक़्त का पहिया चला करे ।
बन के साहस एक दूजे का ,
सदा सर्वदा साथ चले ॥
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हर संघर्ष जन्म देता है सृजन को
अत: भागना नहीं है उससे
चुनौती को अवसर में बदल लेना है
कई बार बहा ले जाती है बाढ़
व्यर्थ अपने साथ
और छोड़ जाती है
कोमल उपजाऊ माटी की परत खेतों में
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घनेरी घटाओं का आलय – मेघालय – 9
12 मई – शानदार शिलौंग के भव्य दर्शनीय स्थल
11 मई का दिन बहुत रोमांचक तथा शारीरिक और मानसिक थकन भरा था ! लिविंग रूट ब्रिज, जिसके बारे में आपने विस्तार से पिछली पोस्ट में पढ़ा होगा, तक जाना और आना, फिर दूर पार्किंग में खड़ी बस तक पहुँचने की कवायद और फिर मावलिन्नोंग विलेज में पैदल घूमना कुल मिला कर शरीर पर कुछ अधिक ही अत्याचार सा हो गया ! ये डर था अगले दिन सुबह समय से उठ भी पायेंगे या नहीं, उठ गए तो ठीक से खड़े भी हो पायेंगे या नहीं
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संत व शास्त्र कहते हैं, विद्यामाया विशिष्ट चेतन के कारण ब्रह्म ईश्वर की उपाधि ग्रहण करता है और अविद्यामाया विशिष्ट चेतन के कारण ब्रह्म जीव की उपाधि ग्रहण करता है। जीव और ईश्वर का एकत्व उनके ब्रह्म होने में है और भेद विद्या और अविद्या के कारण है। ईश्वर माया का अधिपति है और जीव माया का सेवक है। ईश्वर योगमाया का उपयोग करके जगत का कल्याण करता है, जीव महामाया के वशीभूत होकर विकारों से ग्रस्त हो जाता है। ईश्वर सदा अपने चैतन्य स्वरूप को जानता है, जीव स्वयं को जड़ देह और मन आदि मान लेता है। जिस क्षण जीव को अपने ब्रह्म होने का भान हो जाता है, वह ईश्वर से जुड़ जाता है।
डायरी के पन्नों से अनीता
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रात्रि के नौ बजने वाले हैं। आज मौसम अपेक्षाकृत गर्म है। कहीं से एक बच्चे के रोने की आवाज़ आ रही है, जो सदा ही उसे विचलित कर देती है। शायद वह गिर गया हो, या उसे किसी बात पर डांट पड़ी हो। असम में कितनी बार बाहर जाकर रोते हुए बच्चों को हंसाने की कोशिश करती थी,
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मेरी कलम से संग्रह समीक्षा कोशिश माँ को समेटने की....संजय भास्कर
दिगंबर जी चाहते थे जब भी उनकी पहली किताब का प्रकाशन हो माँ को समर्पित हो क्योंकि लिखने की प्रेरणा उन्ही से मिली....इसमे नासवा जी लिखते है इसे किताब कहूँ, डायरी या कुछ और जो भी नाम दूँ इसे पर ये गुफ्तगू है मेरी मेरे अपने साथ आप कहेंगे अपने साथ क्यों... माँ से क्यों नहीं? मैं कहूँगा माँ मुझसे अलग कहाँ लम्बा समय माँ के साथ रहा लम्बा समय नहीं भी रहा पर उनसे दूर तो कभी भी नहीं रहा... ये एक ऐसा अनुभव जिसको सोते जागते, हर पल मैंने महसूस किया है...
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हिन्दू संस्कृति का रहस्य और विज्ञान
हमारे देश में ऐसी कई चीज़ें होती हैं, जिनके पीछे की वजह के बारे में हम नहीं जानते। कुछ बातों का पालन हम अपने पूर्वजों को देख कर करते चले आ रहे हैं। कुछ चीज़ें हम दूसरों की देखा-देखी करने लगते हैं। आज यहां चर्चा करेंगे हिंदू परम्पराओं के पीछे छिपे वैज्ञानिक तथ्यों के बारे में। सनातन हिंदू धर्म को मानने वाले इस लेख को अवश्य पढ़ें और साथ ही विज्ञान को मानने वाले भी। हिंदू परम्पराओं पर हँसने वाले और उसे ढकोसला कहने वाले लोगों की सोच शायद यह लेख पढ़कर बदल जायेगी। क्योंकि सदियों से चली आ रही परंपरा के पीछे कितने ही वैज्ञानिक तथ्य छुपे हुए हैं।
1. नदी में सिक्के डालना
नदी में सिक्के क्यों फेंके जाते हैं? बस या ट्रेन से सफर करते समय जब हम नदियों से गुजरते हैं, तो लोगों को नदियों में सिक्के डालते हुए देखते हैं।
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जीवन यह संदेश सुनहरा !
छोटा मन विराट हो फैले
ज्यों बूंद बने सागर अपार,
नव कलिका से कुसुम पल्लवित
क्षुद्र बीज बने वृक्ष विशाल !
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मूँदी पलकों से ... पर .. पगली ! .. यूँ भी युवा आँखें इन मौकों पर तब वैसे भी तो खुली कहाँ होती थीं भला !? खुली-अधखुली-सी .. मूँदी पलकों से ही तो पढ़ा करते थे हम 'ब्रेल लिपि' सरीखी एक-दूजे की बेताबियाँ .. बस यूँ ही ...
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तिल वाला लड़का उसके दायें कंधे पर तिल नहीं था मगर ये तो बस उसे पता था. मुझे इतना मालूम है कि आज लिखने की मेज पर जब बैठी तभी अचानक मेरे मन में एक रुमान उभरा...अगर प्रेमी के दायें कंधे पर तिल हो, प्रेमिका अपने होंठ उस पर रखे तो प्रेमी के मन की सिहरन मेरी कविता के पन्नों को कितना गुलाबी कर सकेगी...
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सुखद भ्रमों का झूला टूटा।
पेंगों ने रह-रह कर लूटा॥
लटक रहा रेशम डोरी पे,
झूला था मन के आँगन में।
झूल रहा था रोम-रोम मेरा,
वो बाँधे निज आलिंगन में।
मैं झूली कुछ ऐसे झूली
भूल गई अपनी काया भी,
खुलती जाती डोर स्वयं से
बिखरा जाता बूटा-बूटा॥
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अभी भी विकल्प है जब तुम स्वयं नहीं सिखाओगे तो कोई और सिखा जाएगा जब तुम खुद नहीं बताओगे तो कोई और पाठ पढ़ाएगा यही होता आया है और आगे भी यही होगा तुम्हारे बच्चो का भविष्य दिशा
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सैकिला द्वी पय्या
दगड़ रिंगण, दगड़ घिसण
पल-हरपल इंच-इंच खपण
जबाबदरी पर बरोबर
अग्वाड़ी-पिछवाड़ी अदला-बदली।
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डायरी - यशपाल निर्मल | राष्ट्रीय पुस्तक न्यास
कहानी
गर्मियों की छुट्टियाँ शुरू हो गई थी और गनेश को खुश होना चाहिए था। वह खुश तो था पर इस खुशी में थोड़ी परेशानी भी घुली हुई थी क्योंकि गनेश की हिंदी शिक्षिका ने उन्हें छुट्टी की एक डायरी बनाने को कहा था।
गनेश इन गर्मियों की छुट्टियों में अपने नाना जी के घर अखनूर जाना चाहता था।
पर अब यह डायरी का चक्कर उसे परेशान किए हुए था। गनेश को समझ नहीं आ रहा था कि वह अपनी इस डायरी में क्या लिखेगा।
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आज के लिए बस इतना ही...!
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