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Sunday, May 31, 2020

शब्द-सृजन- 23 'मानवता,इंसानीयत' (चर्चा अंक-3718)

स्नेहिल अभिवादन। 
रविवासरीय प्रस्तुति में आपका स्वागत है।  
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पेश है शब्द-सृजन का नया अंक जिसका विषय दिया गया था-
मानवता / इंसानीयत 
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मानवता अर्थात ऐसा मूल्य जो व्यक्ति को मानव होने, सामाजिक होने, संवेदनशील होने, सकारात्मक होने, सहअस्तित्त्ववादी होने का एहसास कराता रहता है। 
मानवता सर्वोत्तम सामाजिक मूल्य है जो संसार में विद्यमान है। हम सब इस मूल्य को यथाशक्ति धारण करते हुए जीवन को सार्थक बनाते हैं। 
-अनीता सैनी 
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आइए पढ़ते हैं मानवता / इंसानीयत विषय पर सृजित कुछ रचनाएँ-
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उच्चारण 
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मानवता की बात वहाँ बेमानी है 

मूल्यहीन हो जिनके जीवन की शैली
आत्मतोष हो ध्येय चरम बस जीवन का
नहीं ज़रा भी चिंता औरों के दुःख की
आत्मनिरीक्षण की आशा बेमानी है !
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मानवता 

हुई मानवता शर्मसार 
रोज देखकर अखबार 
बस एक ही सार हर  बार 
**
"मानवता" 

अरे ओ पत्थर दिल वालों । 
कभी इनकी भी सुध तो लो ।। 
छोड़ कर तूं- मैं  तुम अपनी । 
कभी तो जन-सेवा कर  लो ।। 
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सिसकती मानवता 
सिसकती मानवता
कराह रही है ,
हर ओर फैली धुंध कैसी है,
बैठे हैं एक ज्वालामुखी पर
सब सहमें से डरे-डरे,
बस फटने की राह देख रहे ,
फिर सब समा जायेगा
एक धधकते लावे में ।
**

मन इतना उद्वेलित क्यों......… 

मात्र मानव को दी प्रभु ने बुद्धिमत्ता !
बुद्धि से मिली वैचारिक क्षमता....
इससे पनपी वैचारिक भिन्नता !
वैचारिक भिन्नता से टकराव.....
टकराव से शुरू समस्याएं ?
उलझी फिर "मन" से मानवता !
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एक श्रमिक कुटी में बंधित,
भूखे बच्चों को बहलाता ।
एक श्रमिक शिविर में ठहरा,
घर जाने की आस लगाता।
गेहूँ पके खेत में झरते,
मौसम भी कर रहा ठिठौली।
महाशक्ति लाचार खड़ी है,
त्राहिमाम मानवता बोली ।
**

निराधार नहीं अस्तित्त्व में लीन 
पुण्यात्मा  से बँधी करुणा हूँ। 
मधुर शब्द नहीं कर्म में समाहित 
नैनों से झलकता स्नेह अपार हूँ।

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चलते-चलते पढ़ते हैं आदरणीय रवीन्द्र सर की जीवन के सार्थक सवाल उठाती एक गंभीर लघुकथा-

कल -आज-कल / लघुकथा 

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वह एक शांत सुबह थी जेठ मास की जब बरगद की छांव में
स्फटिक-शिला पर बैठा वह सांस्कृतिक अभ्युदय की कथा सुना रहा था
नए संसार के साकार होने का सपना अपने सफ़र पर था जो नए-नए
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आज सफ़र यहीं  तक 
फिर मिलेंगे आगामी अंक में 
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-अनीता सैनी
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Saturday, May 30, 2020

'आँचल की खुशबू' (चर्चा अंक-3717)

स्नेहिल अभिवादन। 
शनिवासरीय प्रस्तुति में आपका स्वागत है। 
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समकालीन परिस्थितियों पर कविवर शैलेन्द्र जी की कालजयी रचना का अंश पढ़िए-
ये ग़म के और चार दिन, सितम के और चार दिन,
ये दिन भी जाएंगे गुज़र, गुज़र गए हज़ार दिन,
कभी तो होगी इस चमन पर भी बहार की नज़र!
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर!.... तू ज़िन्दा है
- शैलेन्द्र
आइए पढ़ते हैं मेरी पसंद की रचनाएँ-
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कौन जानता था कि किसी रोज
रुग्णों की हरतरफ कतार होगी,
स्व:जनों के बीच मे रहकर भी,
मिल-जुल पाने से लाचार होगी।
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"उषा इधर आओ”
“हाँ....क्या ?”
"चलो तुम ये भिंडी काटो”
"हैं भिंडी ...पर क्यों.....मैं क्यों ?”
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बिसना की आँखों में अचानक अँधेरा छागया .
 दो दिन से अन्न का दाना भी मुँह में नहीं गया था .
 पैरकाँप रहे थे ,आँतें सिकुड़ गईँ थीं . 
पग पग चलना दूभर हो रहा था .
 दिल्ली से देवगढ़ लगभग तीन सौकिलो मीटर की यात्रा .
**
यदि मूर्ख बनोगे तो प्यारे,
दुनिया में आदर पाओगे।
जी, छोड़ो बात मनुष्यों की,
देवों के प्रिय कहलाओगे!
 प्रेम का वायरस
प्रतीक एवं साक्षी लम्बे समय से लिव-इन-रिलेशनशिप में रह रहे थे, 
परंतु विगत कुछ दिनों से इन दोनों में अनबन चल रही थी।
 बात इतनी बिगड़ गई कि दोनों ने अलग रहने का फैसला किया। 
उनके बीच की समस्या ऐसी नहीं थी कि पैचअप न हो सके,
**

 इन्तजार..
और प्यार करने का हक उनका भी है  
तभी तो क्वींसलैंड के नीले समुद्री 
छोर पर पर्यटकों का इन्तज़ार करती हैं 
डॉल्फिनस्…

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जागरूक माँ बनें ! 

माँ बनना हर स्त्री के लिए गौरव की बात होती है
 और स्वस्थ संतान की कामना भी हर माँ करती है।
 मैंने लगातार बच्चों के विकास को देखते हुए
 इस बात पर दृष्टि रखी हुई है। 
समय और विचारों के अनुरूप साथ ही 
अपने करियर के प्रति जागरूकता ने विवाह की उम्र बढ़ा दी है

**

आखिर कौन हो तुम ? 

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वक्त  किसी  के लिए
ठहरता नही
मगर तुम्हें उम्मीद है
कि वो ठहरेगा
सिर्फ और सिर्फ
तुम्हारे लिए
और इंतजार करेगा
तुम्हारा
**
यादें बाकी रह जाती हैं, 
वक़्त गुज़र जाता है।
जिसे भूलना चाहो अक्सर,
 वही नज़र आता है।
जीवन की यह नदी डूब कर,
 पार इसे करना है,
मन में जिसके संशय हो वह,
 नहीं उबर पाता है।
**
समुद्र तट के बैठ किनारे 
सुन रहीं हूँ शोर 
आती जाती, उठती गिरती
लहरों का 
डोलती रहेगी जीवन नैया भी 
सुख दुख की लहरों पर 
**
  मैं अनुपयोगी सी खड़ी अपनी पुरानी साइकिल को देख रहा था।
जिसने मुझे 'साइकिल वाले पत्रकार भाई' की पहचान दी है। 
अन्यथा कोईकिसी को यह तो नहीं कहता न कि कार वाले पत्रकार
 -बाइक वाले पत्रकार ? 
मन खुश कर ही देते हैं 
ये चाँद है जो हर रात 
नज़र आता है आसमान पर 
और कभी कभी 
दिख जाता है खिड़की से भी 
ये हमारे मिज़ाज़ को नज़रअंदाज़ कर देता है 
दिन चाहे जैसा भी बिता हो 
ये हर रोज़ अपनी चांदनी की ठंडक 
भेज थपकी दे के कर सुला देता है 
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शब्द-सृजन-23  का विषय है- मानवता / इन्सानियत आप इस विषय पर अपनी रचना  (किसी भी विधा में)  आगामी शनिवार (सायं 5 बजे)
तक चर्चा-मंच के ब्लॉगर संपर्क फ़ॉर्म (Contact Form ) के ज़रिये हमें भेज सकते हैं।  चयनित रचनाएँ आगामी रविवासरीय चर्चा-अंक में 
प्रकाशित की जाएँगीं। -- आज सफ़र यहीं  तक
 
कल फिर मिलेंगे।
-अनीता सैनी   --