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रविवार, सितंबर 30, 2018

"तीस सितम्बर" (चर्चा अंक-3110)

मित्रों! 
रविवार की चर्चा में आपका स्वागत है। 
देखिए मेरी पसन्द के कुछ लिंक। 

(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक') 

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भूखा हूं मैया
 कुछ खाने को दे दो
 कहती गैया... 
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माँ मुझको भी रंग दिला दे 

माँ मुझको भी रंग दिला दे
मुझको जीवन रंगना है  
सपनों के कोरे कागज़ पर
इन्द्रधनुष एक रचना है... 
Sudhinama पर 
sadhana vaid 
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और रूह रिस रही है.... 

पूजा प्रियंवदा 

तुम तक पहुँचने का रास्ता
बहुत अकेला था
लम्बा भी
कड़ी धूप थी
और तुम्हारे इश्क़
की गर्मी
झुलसाती रही मेरी रूह को
मुसलसल... 
yashoda Agrawal 
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पावस की अमावस की रात 

पावस की अमावस की रात 
किसी पापी के मन सी काली 
घोर डरावनी 
गंभीर मेघ गर्जन 
 दामिनी की चमक कर देती है 
विरहणी को त्रस्त... 
Jayanti Prasad Sharma 
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मतलबी 

आज की दुनिया में

मतलबियों की दूकान लगी है
हैं इतने मतलबी कि
 मतलब निकल गया तो
पहचानते नहीं... 
Akanksha पर 
Asha Saxena 
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आने दो, माँ को, मेरी! 

मैं अयप्पन!  
मणिकांता, शास्ता! 
शिव का सूत हूँ मैं! 
और मोहिनी है मेरी माँ! 
चलो हटो! 
आने दो माँ को मेरी.... 
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एक विचार 

“मजहब नहीं सिखाता 
आपस में बैर करना…” 
कालीपद "प्रसाद"  

शनिवार, सितंबर 29, 2018

"पावन हो परिवेश" (चर्चा अंक-3109)

मित्रों! 
शनिवार की चर्चा में आपका स्वागत है। 
देखिए मेरी पसन्द के कुछ लिंक। 

(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक') 

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प्रॉपर्टी -  

लघुकथा 

"अभी आ रही हो,  
इतनी रात गए कहाँ थी तुम?"  
"मैं तुम्हारी प्रॉपर्टी नहीं  
जो तुम मुझपर बन्धन लगाओ" ,,, 
ऋता शेखर 'मधु' 
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बिना मालिक के भी कोई जीवन है? 

हाय रे हाय, कल मुझसे मेरा मालिक छिन गया! कितना अच्छा तो मालिक था, अब मैं बिना मालिक के कैसे गुजरा करूंगी? मेरी आदत मालिक के पैरों में लौटने की हो गयी थी, उसकी जंजीर से बंधे रहने की आदत हो गयी थी। मैं किताब हाथ में लेती तो मालिक से पूछना होता, यदि कलम हाथ में लेती तो मालिक से पूछना होता, हाय अब किससे पूछूगी? मेरी तो आदत ही नहीं रही खुद के निर्णय लेने की, मैं तो पूछे बिना काम कर ही नहीं सकती... 

smt. Ajit Gupta 

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रंगसाज़ 

सफेद जिंदगी
एक माँ अनेक रंगों की
एक इंतजार रंगीन हो जाने का
एक उतावलापन रंगों को जनने का.
मिलन हो उनसे तो पनपे
वो रंग जो तितलियाँ
अपने पंखों में सजाये रखती है.
वो सिंदूरी
जो सूरज ढल आई शाम को
आसमाँ की गालों पर
हक से लगा देता है. ... 
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नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि 

प्रायः हम सभी, मौत से डरते हैं और यह भी सच है कि एक ना एकदिन मरते हैं। गीता कहती है, आत्मा को, ना तो शस्त्र काट सकता, ना हवा सुखा सकती है, ना पानी गला सकता, ना ही आग जला सकती है। यानि आत्मा अमर है फिर मौत से किस बात का डर है? सिर्फ शरीर ही तो मरता है और आत्मा हमेशा जिन्दा रहती है। बावजूद इसके, मानवता मौत से डरी हुई है... 
मनोरमा पर श्यामल सुमन