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शनिवार, जून 30, 2018

"तुलसी अदालत में है " (चर्चा अंक-3017)

मित्रों! 
शनिवार की चर्चा में आपका स्वागत है। 
देखिए मेरी पसन्द के कुछ लिंक। 

(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक') 

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...तो फिर तो दूल्हा भिखारी हुआ? 

आप जैसे हो वैसे के वैसे चले आइए। फौरन। मैंने अभी-अभी दादा का वो व्यवहार का पंचशील वाला ब्लॉग पढ़ा है। मेरे पास भी आपको सुनाने के लिए वैसी ही जोरदार बात है। दादा की ही। आप चले आओ। मैं आपही राह देख रहा हूँ।’ उधर से सुभाष भाई बोल रहे थे। उन्होंने मेरे लिए बोलने को कुछ रखा ही नहीं। सब कुछ तय कर चुके थे। मुझे जाना ही था। सुभाष भाई रतलाम के, गिनती के उन लोगों में हैं जिन्हें मैं अपना संरक्षक मानता हूँ। उनकी कई बातों से मैं दुःखी होने की सीमा तक असहमत हूँ और वे भी मुझसे इतने ही दुःखी हैं। हम लोग आपस में खूब बहस, तर्क-वितर्क करते हैं। बात-बात पर असहमत होते हैं। और हर बार ... 
एकोऽहम् पर विष्णु बैरागी 
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रेलयात्रा में चोरी, 

दानापुर, पटना, बिहार 

बहुत दुखी मन से घटना लिख रही हूं,जो हुआ वो किसी के साथ न हो, जरूर कोई पुण्य आड़े आया होगा जो जान बची वरना चलती ट्रेन से एक महिला के गिरने की खबर भर होती मैं .......इस घटना ने बिहार के प्रति मेरे विश्वास की धज्जियां उड़ा दी ... 
अर्चना चावजी Archana Chaoji  
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दर्द 

सु-मन (Suman Kapoor)  
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विश्वास बड़ी चीज है 

विश्वास बड़ी चीज होती है, लेकिन यह बनता-बिगड़ता कैसे है, इसका किसी को पता नहीं। शतरंज का खेल सभी ने थोड़ा बहुत खेला होगा, खेला नहीं भी हो तो देखा होगा , इसमें राजा होता है, रानी होती है, हाथी होता है घोड़ा होता है, ऊँट है तो पैदल भी हैं। सभी की चाल निश्चित है, खिलाड़ी इन निश्चित चालों के हिसाब से ही अपनी चाल चलता है। उसे घोड़ा मारना है तो अपनी रणनीति तदनुरूप बनाता है और हाथी मारना है तो उसी के अनुसार। राजनीति भी एक शतरंज के खेल समान है, दोनों तरफ सेनाएं सजी हैं और दोनों ही सेनाएं अपनी-अपनी योजना से खेल को खेल रही हैं। खिलाड़ी को पता है कि मुझे क्या चाल चलनी है लेकिन दर्शक को पता नही.. 
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शुक्रवार, जून 29, 2018

"हम लेखनी से अपनी मशहूर हो रहे हैं" (चर्चा अंक-3016)

मित्रों! 
शुक्रवार की चर्चा में आपका स्वागत है। 
देखिए मेरी पसन्द के कुछ लिंक। 

(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक') 

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“ग़ज़लियात-ए-रूप” की भूमिका”  

(डॉ. राजविन्दर कौर) 

क्या ग़ज़ल सिर्फ उर्दू की जागीर है
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक
       मैंने सोशल साइटों पर देखा है कि डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक जी ने अब तक अनेकों पुस्तकों की भूमिकाएँ और समीक्षाएँ लिखी हैं और अब भी कई पुस्तकें समीक्षाएँ लिखने के लिए उनके पास कतार में हैं। यह मेरा सौभाग्य है कि एक बड़े साहित्यकार की पुस्तक की भूमिका लिखने का मुझे अवसर मिला है।
       सर्वप्रथम मैं उनके प्रथम ग़ज़ल संग्रह ग़ज़लियात-ए-रूप’ के प्रकाशन के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ प्रेषित करती हूँ। मयंक जी से मेरी प्रथम भेंट सितारगंज में एक सम्मान समारोह में हुई थी।
      मैं जब ग़ज़लियात-ए-रूप’ की भूमिका लिख रही थी तो मेरे मन में ग़ालिब,  मीर और निदा फाज़ली का ख्याल आ रहा था। जिन्होंने आम आदमी की पीड़ा को अनुभव करते हुए अपनी कलम चलाई थी। मुझे ग़ज़लकार डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक’ भी उन्हीं की श्रेणी के लगे। ग़ज़ल में प्रेमी-प्रेमिका की बातचीत के अतिरिक्त समाज में जो घट रहा है उसको भी अपनें शब्दों में ढालना होता है। जिसे ग़ज़लकार ने बाखूबी अपनी ग़ज़लों में उतारा है.... 
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बाल कविता  

"मेरी माँ"  

( राधा तिवारी " राधेगोपाल ") 

सुबह सवेरे चार बजे, 
मेरी माता जग जाती है l

दिन भर की आपाधापी में, 
आराम कहाँ वो पाती है... 
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अहद यह थी के उस ही दम ज़माना छोड़ देना था 

मुझे है याद क्या क्या जाने जाना छोड़ देना था;  
तेरा हर हाल मुझको आज़माना छोड़ देना था... 
चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ 
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त्याग की देवी 

प्यार पर Rewa tibrewal