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सोमवार, फ़रवरी 28, 2022

'का पर करूँ लेखन कि पाठक मोरा आन्हर !..'( चर्चा अंक 4355)

 सादर अभिवादन ! 

सोमवारीय प्रस्तुति में आपका हार्दिक स्वागत है ।

 आज की चर्चा का शीर्षक व काव्यांश आ. अमृता तन्मय जी की रचना 'का पर करूँ लेखन कि पाठक मोरा आन्हर !..' से है -

जाहिर है कि लेखन भी सिर्फ उन विलुप्त प्रजाति के अदृश्य पाठकों की पसंद-नापसंद का मोहताज हो गया है जो अब सच में आन्हर हो गये हैं। वे भला आन्हर क्यों न हों? आखिर कब तक उन भोले-भाले पाठकों की आँखों में इसतरह के कचरा-लेखन को झोंक-झोंक कर, अपने शौक और सनक से आन्हर हुए, तथाकथित लेखक गण ऐसे वैचारिक शोषण कर सकते हैं? आखिर कब तक सीधे-सादे पाठक, जानबूझकर उनपर थोपे हुए मानसिक विलासितापूर्ण लेखन की गुलामी करते रहेंगे? इसलिए अब वें अपने पढ़ने की तलब को ही अपना त्रिनेत्र खोल कर आग लगा रहें हैं। वें अपना विद्रोही बिगुल भी जोर-जोर से फूँक कर अपने आन्हर और बहिर होने का डंका भी पीट रहें हैं। तब तो वें लेखकों के लाख लुभावने वादे या गरियाने- गिरगिराने के बावजूद भी उन्हें पढ़ने नहीं आ रहें हैं। न चाहते हुए भी अब लेखक गण अपना लेखन-खाल उतार कर संन्यास लेने को मजबूर हैं। आखिर पापी प्रतिष्ठा का भी तो सवाल है। फिर अपने रुदन-सम्मेलन में सामूहिक रूप से विलाप भी कर रहें हैं कि- "का पर करूँ लेखन कि पाठक मोरा आन्हर।"

आइए अब पढ़ते हैं आज की पसंदीदा रचनाएँ-

--

दोहे "चमन हुआ गुलजार" 

धूप खिली है गगन मेंपछुआ चली बयार
मौसम है मधुमास काचमन हुआ गुलजार।।
--
कितना निर्मल बह रहा, गंगा जी में नीर।
जल में डुबकी लगा कर, पावन करो शरीर।।
जो छोटी-सी नैया लेकर
उतरे करने को उदधि-पार,
मन की मन में ही रही, स्वयं
हो गए उसी में निराकार!
उनको प्रणाम!
बाली की चौगान घनेरी
दादा की एक खटोली
श्याम खरल में घोटा चलता 
जड़ी बूटियों की थैली 
स्मृतियों की गुल्लक से निकली
मुद्रित यादें नाम लिखी।।
झुंझलाते, झल्लाते 
वातावरण में
बांटा जा रहा है 
डिस्पोजल ग्लास में पानी
पीने वालों को 
हर घूंट कड़वा लग रहा है
लेकिन फिर भी पी रहें हैं
घूंट घूंट पानी
जीवन अपूर्ण लिए हुए
पाता कभी खोता कभी
आशा निराशा से घिरा,
हँसता कभी रोता कभी
गति-मति न हो अवरूद्ध,
इसका ध्यान आठो याम है,
चलना हमारा काम है।
कहाँ बजे और कौन सुने
यह धुन मैं ही जानूँ 
सकल प्रीत की उठती ज्वाला
लपट हृदय बिच भानू
खेल नहीं ये मन ही जाने
क्या पहचानें पोंगी ?
साँकल द्वार लगी कि लगी
अभ्यंतर आय बसा जोगी ।।
पापा के मुँह से "हूँ"  सुनकर आगे बोला, "तो फिर कब आऊँ पापा" ?
"जब तुम्हें छुट्टी मिले आ जाना" कहकर पापा ने फोन रख दिया।
अगले ही दिन निधि को साथ लेकर अनुज घर पहुंच गया और दोनों ही बड़े संस्कारी बन माँ -पापा की देखभाल एवं सेवा में लग गये ।मौका देखते ही अनुज बोला "पापा ! घर खरीदने के लिए पार्टी तैयार है कहो तो कल बुला लें मीटिंग के लिए, फिर जैसा आप ठीक समझें"।पापा बोले,  "ठहर बेटा ! कल नहीं मेरी मीटिंग तो आज ही है बस वकील साहब आते ही होंगे"।
तो उसके इस बेबाकी को बस पूज्यनीय पाठक गण दिल पर न लें। उन्हें दिमाग पर भी लेने की कतई जरूरत है ही नहीं (वैसे नामचीनों को भी कौन पाठक दिलो-दिमाग पर लेता है, बस वे ही नामचीन होने का वहम दिलो-दिमाग पर लिए फिरते हैं )। ये कुबूलनामा इस दीन-हीन, खिसियानी बिल्ली की तरह, खार खाए हुए लेखक का वो दर्द है, जिसे लिए वह पाठकों का बात-लात खा-पीकर भी हासिए से बाहर होना नहीं चाहता है।
--

आज का सफ़र यहीं तक 

@अनीता सैनी 'दीप्ति'

रविवार, फ़रवरी 27, 2022

"एहसास के गुँचे'"( चर्चा अंक 4354)

 सादर अभिवादन

आज की विशेष प्रस्तुति में आप सभी का हार्दिक स्वागत है।

आज की युवा पीढ़ी की लड़कियों को अपनी प्रतिभा को प्रमाणित करने के लिए ज्यादा संघर्ष नहीं करना पड़ता लेकिन आज से 25 साल पहले हम स्त्रियों को खुद के वजुद के लिए भी बहुत संघर्ष करना पड़ा है, अपनी इच्छाओं को मारना पड़ा है अपनी काबिलियत को भी दफनाना पड़ा है। ऐसी स्थिति में यदि हम कुछ कर पाए हैं तो ये हमारे लिए बहुत बड़ी उपलब्धि है। मेरा मानना है कि प्रत्येक स्त्री के भीतर एक कावित्री छिपी होती है बस उन्हें एक अवसर चाहिए होता है और इस ब्लॉग जगत ने हमें वो अवसर प्रदान किया है । जहां हम अपनी जिम्मेदारियों का भलीभांति निबाह करते हुए भी अपनी रचनात्मक को भी संवार पाए है। ऐसी ही एक प्रतिभाशाली रचनाकार हैं हम सभी की प्रिय आदरणीया अनीता सैनी जी जो इस मंच की उन्दा चर्चाकारा भी है।

अनीता जी ने अपने घर परिवार की जिम्मेदारियों को बाखुबी निभाते हुए साहित्य जगत में अपनी एक अमिट छाप छोड़ी है।

आज का ये विषेश अंक उन्ही को समर्पित है।

******शुरुआत करते हैं एक हृदयस्पर्शी प्रार्थना के साथ...प्रार्थना

दैहिक दर्द बढ़े पल-पल 
 किंचित मुझ में क्षोभ न हो। 
 रोम-रोम पीड़ा से भर दो 
 यद्धपि मन में मेरे विक्षोभ न हो। 
 हतभाग्य विचार न छूए मन को 
हे!प्रभु ऐसी शुभ अभिव्यक्ति दो। 
 कर्म-कष्ट सहूँ आजीवन बस 
मुझ में इतनी शक्ति दो। 

*******

 वीर जवानों की प्रशस्ति में जो लिखा जाए थोड़ा है माटी के लाल को श्रद्धासुमन अर्पित करती हुई उनकी लाजवाब सृजन

माटी के लाल

सैनिकों की प्रीत को परिमाण में न तोलना 
वे प्राणरुपी पुष्प देश को हैं सौंपतें।
स्वप्न नहीं देखतीं उनकी कोमल आँखें 
नींद की आहूति जीवन अग्नि में हैं झोंकते।

ऐंठन की शोथ सताती,चेतना गति करती।
ख़तरे के शंख उनके कानों में भी हैं बजते।
फिर भी दहलीज़ की पुकार अनसुनी कर 

दुराशा मिटाने को दर्द भरी घुटन हैं पीते।

*******
नारी के आंतरिक खामोशी की व्यथा को शब्दों में पिरोना आसान नहीं.... स्त्री के मासुमियत को उसकी कमजोरी समझने वाले इस समाज के संकीर्ण मानसिकता के विरुद्ध खुद को  साबित करना भी आसान नहीं.. आपकी लेखनी ने इस रचना में स्त्री के व्यथा कथा को हृदय स्पर्शी शब्दों में पिरोया है

वह देह से एक औरत थी

उसने कहा पत्नी है मेरी 
वह बच्चे-सी मासूम थी 
उसने कहा बेअक्ल है यह
अब वह स्वयं को तरासने लगी
उसने उसे रिश्तों से ठग लिया 
वह मेहनत की भट्टी में तपने लगी 
उसने कर्म की आँच लगाई 
 वह कुंदन-सी निखरने लगी 
******

"मां"सृष्टि की एक ऐसी सृजन...जिसके लिए जितना लिखो कम है.... माँ...कभी धूप कभी छांव

माँ...
 उजली धूप बनी जीवन में,
कभी बनी शीतल छांव, 
पथिक की मंज़िल बनी,
कभी पैरों की बनी ठांव 
माँ... 
भूखे की रोटी बन सहलाती,
 बेघर को मिला गंतव्य गांव, 
माँ तुम हृदय में रहती हो मेरे,
हो प्रेरक प्रेरणा की ठंडी छांव
माँ... 

*******
सन 2000 से पहले का परिवेश.. जहां सुख समृद्धि तो कम थी मगर खुशी और शांति भरपूर... समाज में सद्बुद्धि और संस्कार कुछ हद तक व्याप्त था... लेकिन 2019 आते-आते...? 

इस दर्द को वया कर रही है कावित्री अपने शब्दों में

मैं 2019 का परिवेश हूँ

मैं  2019 का परिवेश हूँ,  

मेरी अति लालसाओं ने,  

मेरा बर्बर स्वभाव  किया, 

परिवर्तित होने की राहें, 

परिवर्तन की चाह में, 

इतिहास के अनसुलझे, 

 प्रश्नों को रुप साकार दिया |

*****
कभी कभी खुद का अक्स ही 
कई प्रश्न करने लगता है.. 
कभी कभी तो खुद से ही विद्रोह करने लगता है...
मन के कशमकश को व्यक्त करती 
बहुत ही सुन्दर रचना.
मैं और मेरा अक्स

अँजुरी से छिटके जज़्बात 

मासूम थे बहुत ही मासूम 

पलकों ने उठाया 

वे रात भर भीगते रहे 

ख़ामोशी में सिमटी

लाचारी ओढ़े निर्बल थी मैं। 

*****

कवि हृदय कोमल होता है 

वो अपनी लेखनी में प्रत्येक हृदय की पीड़ा को ही नहीं वरन समस्त सृष्टि की पीड़ा को 

समेट लेना चाहता है, 

ऐसा ही दर्द सिमटा है 

इस बेहतरीन सृजन में.. 

टूटे पंखों से लिख दूँ मैं... नवगीत

टूटे पंखों से लिख दूँ मैं,
बना लेखनी वह कविता।
पीर परायी धंरु हृदय पर,
छंद बहे रस की सरिता।

मर्मान्तक की पीड़ा लिख दूँ,
पूछ पवन संदेश बहे।
प्रीत लिखूँ छलकाते शशि को,
भानु-तपिश जो देख रहे,
जनमानस की हृदय वेदना,
अहं झूलती सृजन कहे।
प्रियतम की यादों में खोई... 
एक विरहन की पाती... 


पाखी मन व्याकुल है साथी 
खोई-खोई मौन प्रभाती।
भोर धूप की चुनरी ओढ़े 
विकल रश्मियाँ लिखती पाती।।

मसि छिटकी ज्यूँ मेघ हाथ से
पूछ रहे हैं शब्द कुशलता
नूतन कलियाँ खिले आस-सी
मीत तरु संग साथ विचरता
सुषमा ओट छिपी अवगुंठन 
गगरी भर मधु रस बरसाती।।
******
प्रत्येक व्यक्ति को खुद से एक बार ये प्रश्न अवश्य पुछना चाहिए... सिर्फ आध्यात्म के दृष्टि से नहीं... स्वयं का आंकलन करने हेतु भी...कौन हूँ मैं ?
कौन हूँ मैं ?
पुकारने पर यही प्रश्न 
लौट आता है।
स्वयं को जैसे आज 
भूल चुकी हूँ।
ज़रुरत कहूँ कि ज़िम्मेदारी 
या  नियति का खेल।
कभी-कभी मैं एक 
पिता का लिबास पहनती हूँ 
कि अपने बच्चों की 
ज़रूरतों के लिए दौड़ सकूँ।
*****
कावयित्री के एहसासों ने बड़ी जतन से एक-एक फुल चुनने शुरू किए और एक दिन हम सभी के समक्ष एक गुलदस्ते के रूप में प्रस्तुत कियाउनकी लेखनी संग्रह "एहसास के गुँचे" पुुस्तक को  अपार सफलता मिली है।पुस्तक प्राप्त करने हेतु लिंक -Ehsas Ke Gunche by Anita Saini • indiBooks
"एहसास के गुँचे' 
एहसास के गुँचे' मेरा प्रथम काव्य-संग्रह छपकर मेरे हाथ में पुस्तक के रूप में आया तो ख़ुशी का ठिकाना न रहा। यह ख़ुशी आपके साथ साझा करते हुए भावातिरेक से आल्हादित हूँ। *****"सच, अपनी प्रथम पुस्तक का हाथों में होना... बड़े सौभाग्य की बात होती है। वैसे,कवयित्री ने हिंदी के साथ साथ राजस्थानी लोक भाषा में भी महारत हासिल की है। राजस्थानी भाषा की कविताओं को मैंने नहीं जोड़ा क्योंकि इस भाषा का मुझे बिल्कुल ज्ञान नहीं है।मां सरस्वती आदरणीया अनीता सैनी जी की लेखनी पर अपनी कृपा दृष्टि बनाएं रखें..यही प्रार्थना करती हूं********आज का सफर यही तक, अब आज्ञा देआप का दिन मंगलमय होकामिनी सिन्हा




शनिवार, फ़रवरी 26, 2022

'फूली सरसों खेत में, जीवित हुआ बसन्त' (चर्चा अंक 4353)

 सादर अभिवादन। 

शनिवारीय प्रस्तुति में आपका स्वागत है। 

आइए पढ़ते हैं आज की पसंदीदा रचनाएँ-

दोहे "वासन्ती परिवेश" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

फूली सरसों खेत में, जीवित हुआ बसन्त।

आसमान से हो गया, कुहरे का अब अन्त।३।

--

शिव-तेरस का आ रहा, अब पावन त्यौहार।

बम-भोले की हो रहीअब तो जय-जयकार।४।

*****

तुम“

पूर्णचन्द्र की पूर्ण ज्योत्सना 

इन्द्रधनुषी सुन्दरता तुम ।


उतुंग गिरि की उर्ध्व शिखा पर

हिम किरीट सी आभा तुम ।

*****
रेत के घर को तो ढहना था, ढहा, अच्छा हुआ
अब समंदर के किनारे खेलना है फिर !!!

हम परिंदे भाँप लेते हैं हवा की नीयतों को
आज तूफां के इरादे, जानना है फिर !!!
*****

अम्माँ की बोली 

गुणकारक जैसे 

नीम निबोली 


अम्माँ की बोली 

उनींदी पलकों पे 

मीठी सी लोरी 

*****

हम आनंद लोक के वासी

सब इसकी है कारगुजारी 
मन है एक सधा व्यापारी, 
इसके दांवपेंच जो समझे 
पार हो गया वही खिलाड़ी!
*****

लिखते रहे हो दर्द सारे जमाने का,

फुर्सत मिले तो अपना, 

लिखना जरूर जी।

*****

एक सामयिक गीत -शांति के कपोतों के रास्ते कठिन

जियो और

जीने दो

होकर विषपायी,

बारूदी

गन्धों में

भर दो अमराई,

चुप क्यों 

हो टालस्टाय

और गागरिन।

*****अब वसंत ने दी है दस्तक

कल देखो होगी हरियाली
 नयी कोंपलें 
 'बौर' आम 
 कोयल की कूक 
 बारिश रिमझिम
 पीले मेढक 
 सरसों के वे पीले फूल 
कहीं नाचता मोर दिखेगा
*****
युद्ध
न आप, न मैं
कदाचित कभी न गुज़रेंगे
युध्द की इति के उत्सव से
यह फसल
आयुधों की लहलहाती 
पहुँचाएगी हमें 
शायद 
सृष्टि के पतझड़ तक
*****
पंखुड़ी भी पुष्प की 
ठोकती है तालियाँ प्रीत की गाथा यही बोलती हैं बालियाँ यूँ बयारी नृत्य का देखा नव्य प्रकार।।*****बुलावा पत्र

”अच्छा, बताओ बहू कहा है? बड़े बुजुर्गो के आगे ढोक देना भी भूल गई क्या?”

रोहिणी चारपाई से उठती है, निगाहें कमरा तो कभी किचन की तरफ़ दौड़ाती है।

"बुआ जी आप तो मिठाई खाइए,  स्टेट बैंक में मेरा सिलेक्शन हुआ है, दो दिन बाद जॉइनिंग है।”

दीक्षा प्लेट में मिठाई लिए आती है।

”मैं कहूँ न, लाखों में एक है हमारी दीक्षा; तुम तो बौराय गई हो भाभी।”

झोंके-सी बदलती रोहिणी दीक्षा की बलाएँ लेते हुए अपने सीने से लगा लेती है।

*****
आज बस यहीं तक 
फिर मिलेंगे आगामी सोमवार। 
रवीन्द्र सिंह यादव