फ़ॉलोअर



यह ब्लॉग खोजें

शुक्रवार, दिसंबर 31, 2021

'मत कहो अंतिम महीना'( चर्चा अंक-4295)

सादर अभिवादन। 

शुक्रवारीय  प्रस्तुति में आपका स्वागत है

शीर्षक व काव्यांश आ.कल्पना मनोरमा जी की रचना 'मत कहो अंतिम महीना' से-

मत कहो अंतिम महीना मुझे प्यारे
नए का निस्तार देकर जाऊँगा ।।
इस बरस की खूबियों
को याद रखना
स्वा भूल से लेना सबक
अवशेष लिखना

आइए अब पढ़ते हैं आज की पसंदीदा रचनाएँ-

 --

गीत "जनसेवक खाते हैं काजू, महँगाई खाते बेचारे!!" 

नव-वर्ष खड़ा द्वारे-द्वारे!
नव-वर्ष खड़ा द्वारे-द्वारे!
जनसेवक खाते हैं काजू,
महँगाई खाते बेचारे!!
एक चिंता सतत मन को
सालती है
फूल आगी का बना
कब मालती है
कौम के गम में डिनर खाते हैं हुक्काम के साथ
रंज लीडर को बहुत हैं मगर आराम के साथ
अकबर इलाहाबादी

किसी का ख़ून बहाना हो,

तो भीड़ जमा हो जाती है,

किसी की जान बचानी हो,

तो मैं अकेला रह जाता हूँ. 

--

लिख़ने को बस तेरा एक नाम बाक़ी है..

आग सब बुझ गयी बस राख बाक़ी है

तुम कैसे कहते हो रगो में इंक़लाब बाकी है

कोई कत्ल कोई जेल गया कोई डर के भाग गया

कौन अब शहर में इनके ख़िलाफ़ बाकी है,

--

कुछ तो नवीन करना है

करें कुछ नव सृजन, नव वर्ष में प्रण आज लेकर हम ।
वो धरती से जुड़ा, नभ से हो या हो प्रकृति का संगम ।।

राष्ट्र का हर मनुज गर, एक दो प्रण ले ले जीवन में ।

जगत कल्याण होगा, ठान ले सद्कर्म कुछ मन में ।।

यह सृष्टि बनी  है क्रीडाँगन 

दिव्य चेतना शुभ मेधा की, 

नित्य नवीन रहस्य खुल रहे 

है अनंत प्रतिभा दोनों की !

--

 नज़्म- मेरी गिरवी रखी साँसें।

अपनी साँसों को तुम्हारे पास

गिरवी रखके मैं समंदर की

 ख़ाक छान रहा हूँ

अपनी प्यास बुझाने को

समंदर दूर भाग रहा है

रेत के टीले बन रहे हैं

दिल बंजर होता जा रहा है

--

ज़िगरी दोस्त

"लाला एक पाव मसूर की दाल देना"-- हरि को एक सुरीली आवाज  आई ।
हरि अभी दुकान में झाड़-पोंछ कर ही रहा था सुबह सुबह--
पीछे मुड़ के देखा तो अपने मोहल्ले में ही काम करने वाली कान्ता सामने खड़ी थी ।
उसने इंतज़ार करने को बोल हरि ने काम निपटा, धूप बत्ती जलाई । उसे दाल तौल के दे दी । पैसे लिए -- माथे से लगाये और गल्ले में डाल दिये ।
और गद्दी पर आकर बैठ गया ।

गुरुवार, दिसंबर 30, 2021

'मंज़िल दर मंज़िल'( चर्चा अंक-4294)

 सादर अभिवादन। 

गुरुवारीय प्रस्तुति में आपका स्वागत है। 

शीर्षक व काव्यांश आ.शांतनु सान्याल जी की रचना 'मंज़िल दर मंज़िल' से-

कहते हैं
यहाँ कभी था
इक लहराता
हुआ झील
दूर तक,

दरख़्त, न कोई साया, न
जाने किधर वो कारवां
गए, 

आइए अब पढ़ते हैं आज की पसंदीदा रचनाएँ-

--

दोहे "सीमा पर घुसपैठ को, झेल रहा है देश" 

उच्चारण सुधरा नहींबना नहीं परिवेश।
अँगरेजी के जाल मेंजकड़ा सारा देश।१।
--
अपना भारतवर्ष हैगाँधी जी का देश।
सत्य-अहिंसा के यहाँमिलते हैं सन्देश।२।
--
सर ज़मीं ए ख़्वाब दिखा कर,
लोग न जाने कहाँ गए,
मुसलसल बियाबां
के सिवा कुछ
न था हम
जहाँ  
गए, उनका अपना है जो
चश्म ए अंदाज़, कैसे
कोई बदले,
आज तक तन ही सँवारा 
डोर इक मनपर बँधी थी
पूज्य बनकर मान पाया
खूँट गौ बनकर बँधी थी
हौसले के दर खुलेंगे
राह सुलझेगी अगारी।।
मौन हो चुके सम्बन्धों को क्यों छेड़ूँ
किस लिए मनाऊँ ?
समझ नहीं आता है कारण
किस विधि छोड़ूँ,किसे बुलाऊँ ?
भाग्य में लिखा है 
तुम्हारा न मिलना 
और मेरा न लौटना
कैलेंडर केवल
कुछ पन्नों का
महज एक दस्तावेज है
--
मन पक्षी बन उड़ रहा
मार कुलाँचे जोर
फिर सूरज की रश्मियाँ
पकड़ाती हैं छोर
देख हुए तब बावरे
शीघ्र मिले वो गाँव।।
कभी मन में बेचैनी होती
इतना इन्तजार किस लिए
कब तक राह देखी जाए
नव वर्ष जल्दी से क्यूँ न आए |

        उस दिन राजेश जल्दी में था तो नाश्ता छोड़ ऑटो लेकर वो नई दिल्ली स्टेशन पहुँचा, भागते हुए ट्रैन पकड़ ही ली । आज ड्यूटी पानीपत लगी थी ।सीट मिलते ही भूख की तरफ ध्यान गया ।ट्रैन में कोल्ड ड्रिंक बेचले वाले की आवाज़ धीरे-धीरे पास आने लगी । हर माल मिलेगा 10 रुपैया , हर माल मिलेगा 10 रुपैया । हमारे कम्पार्टमेंट में आते ही उसने उसे आवाज़ दी - ए कैम्पा ? राजेश ने एक फैंटा औऱ दो वेफर्स के पैकेट लिए औऱ 10-10 के तीन नॉट दिए ।"क्या बाऊजी आप भी न !! पहली बार इस गाड़ी मा बैठे हो का" -- मुस्कराता हुआ वो वेंडर फिर उसे बोला ।----"10 रुपैया में भी कोई चीज़ आता है का ?'

--

बिटिया का घर बसायें संयम से

"क्या हुआ माँ जी ! आप यहाँ बगीचे में....? और कुछ परेशान लग रही हैं" ? शीला ने सासूमाँ (सरला) को घर के बगीचे में चिंतित खड़ी देखा तो पूछा। तभी पीछे से सरला का बेटा सुरेश आकर बोला,"माँ !  आप  निक्की को लेकर वही कल वाली बात पर परेशान हैं न ? माँ आप अपने जमाने की बात कर रहे हो, आज जमाना बदल चुका है । आज बेटा बेटी में कोई फर्क नहीं । और पूरे दस दिन से वहीं तो है न निक्की।और कितना रहना, अब एक चक्कर तो अपने घर आना ही चाहिए न। आखिर हमारा भी तो हक है उसपे " ।
--
देश के विभिन्न हिस्सों की यात्रा के बनिस्पत, सुदूर स्थित, अंडमान जाना कुछ अलग मायने रखता है ! वर्षों से वहाँ जाने का सपना पलने के बाव  जूदविभिन्न कारणों से वह साकार नहीं हो पा रहा था ! पर पिछले दिनों महामारी से कुछ हद तक उबरने के पश्चात अपनी #RSCB (Retired and Senior Citizen Brotherhood) संस्था द्वारा उपलब्ध अवसर को, काफी इट्स-बट्स, शंका-कुशंका, हाँ-ना, फेर-बदल, कुछ-कुछ विपरीत हालात-परिस्थितियों के बावजूद, बेजा ना जाने देने का निर्णय ले ही लिया ! इसमें दो साल पहले की केरल यात्रा के साथी श्री और श्रीमती बेदी जी तथा सुश्री कैलाश जी का साथ भी मिल गया। यात्रा 11 दिसम्बर से 16 दिसंबर तक की थी।
कई बार ऐसा होता है कि जब हम बाजार से प्लास्टिक कंटेनर खरीद कर लाते है, तो वे शुरू में तो एयरटाइट होते हैं, लेकिन समय के साथ-साथ उनका ढक्कन ढीला हो जाता है और उनका इस्तेमाल भी सही से नहीं हो पाता है। कभी कभी प्लास्टिक कंटेनर के ढक्कन ज्यादा टाइट रहने से भी हमें दिक्कत होती है। ऐसे कंटेनर्स को बदलकर हम दूसरा भी नहीं ला सकते क्योंकि ये काफी महंगे आते हैं। ऐसे में कितना अच्छा हो यदि हम पुराने कंटेनर्स के ही ढक्कन टाइट या ढीले कर सके? 

बुधवार, दिसंबर 29, 2021

"भीड़ नेताओं की छटनी चाहिए" (चर्चा अंक-4293)

 मित्रों!

बुधवार की चर्चा में आपका स्वागत है। 

--

गीत "खोज रहे हैं शीतल छाया, कंकरीट की ठाँव में" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक') 


सन्नाटा पसरा है अब तो,
गौरय्या के गाँव में।
दम घुटता है आज चमन की,
ठण्डी-ठण्डी छाँव में।।
--
नहीं रहा अब समय सलोना,
बिखर गया ताना-बाना,
आगत का स्वागत-अभिनन्दन,
आज हो गया बेगाना,
कंकड़-काँटे चुभते अब तो,
पनिहारी के पाँव में।
दम घुटता है आज चमन की,
 ठण्डी-ठण्डी छाँव में।। 

उच्चारण 

--

मरवण जोवे बाट 

बीत्या दिनड़ा ढळा डागळा
भूली बिसरी याद रही। 
दिन बिलखाया भूले मरवण 
नवो साल सुध साद रही।।

गूँगी गुड़िया 

--

हो निशब्द जिस पल में अंतर 

शब्दों से ही परिचय मिलता

उसके पार न जाता कोई,

शब्दों की इक आड़ बना ली

कहाँ कभी मिल पाता कोई !

मन पाए विश्राम जहाँ 

--

आज दुष्यंत कुमार होते तो यही कहते 

इस चुनावी माहौल में आप कहाँ हैं दुष्यंत कुमार? 

1.    हो गयी है भीड़,

नेताओं की,

छटनी चाहिए,

बन गए जो ख़ुदख़ुदा,

औक़ातघटनी चाहिए. 

तिरछी नज़र 

--

दोहे राजनीति पर 

1 - उत्सव होइ चुनाव का , बजैं जाति के ढोल। 

      खाई जनता में बढ़े , सुन सुन कड़ुवे  बोल।। 

2 - जातिवाद अभिशाप है , लोकतंत्र के देश। 

     समाज सेवा होइ नहि ,जातिय झंडा शेष।। 

काव्य दर्पण 

--

अहम का भाव और मैं 

कुछ तो वादा होगा मेरा खुद से ।
खुदगर्जी आच्छादित दर्पी बेखुद से ।।

ऐसे कहाँ बदलती है तल्खी औ तेवर ।
पहने अक्स निहारूँ आभाओं के जेवर ।।
डर ही जाती दिखते दर्पण के ही बुत से । 

जिज्ञासा की जिज्ञासा 

--

हमने भी करके देख लिया, 

ये इश्क गुलाबों वाला 

वो मातमी मंजर था ,जलती सी चिताओं वाला ।
अश्कों की बारिशों में, चुभती सी हवाओं वाला ।

फिर बेचैनियों के दरमियां,मौसम की खबर आई

अब अर्थ खो चुका है, हर लफ्ज़ बफाओं वाला।  

अभिव्यक्ति मेरी

--

एक लप्पड़ मार के तो देख! समीक्षा - कविता संग्रह - यूँ ही अचानक कुछ नहीं घटता 

कविता रावत का कविता संग्रह - यूँ ही अचानक कुछ नहीं घटता - कई मामलों में विशिष्ट कही जा सकती है. संग्रह की कविताएँ वैसे तो बिना किसी भाषाई जादूगरी और उच्चकोटि की साहित्यिक कलाबाजी रहित, बेहद आसान, रोजमर्रा की बोलचाल वाली शैली में लिखी गई हैं जो ठेठ साहित्यिक दृष्टि वालों की आलोचनात्मक दृष्टि को कुछ खटक सकती हैं, मगर इनमें नित्य जीवन का सत्य-कथ्य इतना अधिक अंतर्निर्मित है कि आप बहुत सी कविताओं में अपनी स्वयं की जी हुई बातें बिंधी हुई पाते हैं, और इन कविताओं से अपने आप को अनायास ही जोड़ पाते हैं.

एक उदाहरण -

माना कि स्वतंत्र है

अपनी जिंदगी जीने के लिए

खा-पीकर,

देर-सबेर घर लौटने के लिए

संग्रह में हर स्वाद की कविताएँ मौजूद हैं जिससे एकरसता का आभास नहीं होता, और संग्रह कामयाब और पठनीय बन पड़ा है. जहाँ आज चहुँओर घोर अपठनीय कविताओं की भरमार है, वहाँ, कविता रावत एक दिलचस्प, पठनीय और सफल कविता संग्रह प्रस्तुत करने में सफल रही हैं.

छींटे और बौछारें 

--

प्रतिलिपि 

प्रतिलिपि लिखी जिन गुमनाम गुलजारों की l
मिली वो इस अंजुमन के प्यासे रहदारों  सी ll

सूनी दीवारें सजी थी किसी दुल्हन सेज सी l
कुरबत जिसके उतर आयी थी महताब बारात की ll 

RAAGDEVRAN 

--

गजल -- रोज़ नए गम हैं  

रोज नये गम हैं कुछ घटा लीजिये ,

दो घड़ी साथ हंस कर बिता लीजिये |                                         

ईर्ष्या द्वेष से कुछ न होगा कभी ,

खुद को सबसे ऊंचा उठा लीजिये  |                                                                                       -     

जिन्दगी ये महाकाव्य 

हो जायेगी ,                                                                                                                                                          कोई दर्द ह्रदय में बसा लीजिये 

Surbhi 

--

उनके हिस्से चुपड़ी रोटी,बिसलेरी का पानी है 

मेरा सृजन 

--

Watch: ऐसी मोटरसाइकिल जिस पर बैठ सकते हैं 12 लोग 

पाकिस्तान में पुलिसकर्मी ने बनाई 16 फीट की मोटरसाइकिल, कराची के अली मुहम्मद मेमन ने साढ़े 3 लाख रुपए से डेवेलप की बाइक, 370 किलोग्राम की बाइक में 300 सीसी का इंजन, दो स्टैंड, तीन ब्रेक 

देशनामा 

--

लॉक उन डेज़- कामना सिंह यूँ तो यह उपन्यास मुझे उपहारस्वरूप मिला। फिर भी मैं अपने पाठकों की जानकारी के लिए बताना चाहूँगा कि इस 216 पृष्ठीय उम्दा उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है अनन्य प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 250/- रुपए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

हँसते रहो 

--

देहरादून में लेखिका सुरभि सिंघल के कहानी संग्रह और लेखक देवेन्द्र प्रसाद के उपन्यास का हुआ विमोचन 

देहरादून में लेखिका सुरभि सिंघल के कहानी संग्रह और लेखक देवेन्द्र प्रसाद के उपन्यास का हुआ विमोचन
सुरभि सिंघल, विकास नैनवाल, देवेन्द्र प्रसाद
देहरादून में आयोजित एक कार्यक्रम में 
लेखिका सुरभि सिंघल के कहानी संग्रह ‘बियर टेबल’ 
और लेखक देवेन्द्र प्रसाद के उपन्यास 
‘कब्रिस्तान वाली चुड़ैल’ का विमोचन हुआ। 
यह कार्यक्रम पटेल नगर में मौजूद 
वालनट रेस्टोरेंट में 26 दिसम्बर 2021 को 
आयोजित किया गया। 

एक बुक जर्नल 

--

आज के लिए बस इतना ही...!

--