फ़ॉलोअर



यह ब्लॉग खोजें

मंगलवार, मार्च 31, 2015

"क्या औचित्य है ऐसे सम्मानों का ?" {चर्चा अंक-1934}

मित्रों!
कल आदरणीया अनुषा जैन ने 
बहुत सुन्दर ढंग से चर्चा की थी।
आज देखिए मेरी पसन्द के कुछ लिंक।
-- 
"गीत-देवभूमि अपना भारत" 
जब बसन्त का मौसम आता,
गीत प्रणय के गाता उपवन।
मधुमक्खी-तितली-भँवरे भी,
खुश हो करके करते गुंजन।।

पेड़ और पौधें भी फिर से,
नवपल्लव पा जाते हैं,
रंग-बिरंगे सुमन चमन में,
हर्षित हो मुस्काते हैं,
नयी फसल से भर जाते हैं,
गाँवों में सबके आँगन।
मधुमक्खी-तितली-भँवरे भी,
खुश हो करके करते गुंजन।।... 
--
--
जाते -जाते  वो मुझे इक ऐसी कहानी दे गया 
के खुशबू अपनी रंग अपना जाफरानी दे गया 

चंद लम्हों को सजा कर लिख दिया ऐसी किताब 
ले   सफे  से  हाशिए  तक  रंग  धानी दे गया ... 
--
--

जिसके कर कमलों से ये घर स्वर्ग सा बना 

जिसके कर कमलों से यह घर, स्वर्ग सा बना। 
 उस माँ की हम, निस दिन मन से, करें वंदना। 
जिसके दम से, हैं जीवन में, सदा उजाले, 
उसके जीवन, में उजास की, रहे कामना... 
गज़ल संध्यापरकल्पना रामानी 
--

रह जाती ख्वाहिशें आधी अधूरी 

जी रहे हम सब यहाँ 
कतरा कतरा ज़िंदगी 
न जाने क्यों हमारी 
रह जाती ख्वाहिशें आधी अधूरी... 
Ocean of Bliss पर Rekha Joshi 
--
--
--
--
--
--

प्यार : 

कुछ मुक्तक - 10 

धनवानों के लिए प्यार है 
ताज - सरीखी एक इमारत , 
पढ़े - लिखों के लिए प्यार 
ढाई अक्षर की एक इबारत ; 
किन्तु प्यार क्या है... 
--
--
--

हम सब हैं किताब 

हम सब हैं किताब , पढ़ने वाला न मिला 
या खुदा ऐसा भी कोई ,चाहने वाला न मिला 

हाथ में हाथ लिये चलते रहे हम यूँ ही 
दूर तक कोई भी साथ निभाने वाला न मिला... 
गीत-ग़ज़लपरशारदा अरोरा 
--
--

बाहर के दायरों से घर तक 

घर की दुनिया कितनी अपनी सी है। घर का कोना-कोना आपका होता है, दीवारें लगता है जैसे आपको बाहों में लेने के लिए आतुर हों। इस अपने घर में पूर्ण स्‍वतंत्र हैं, चाहे नाचिए, चाहे गाइए या फिर धमाचौकड़ी मचाइए, सब कुछ आपका है। बाहर की दुनिया में ऐसा सम्‍भव नहीं है। इस पोस्‍ट को पढ़ने के लिए इस लिंक पर... 
smt. Ajit Gupta 
--
--

सोमवार, मार्च 30, 2015

चित्तचोर बने, चित्रचोर नहीं (चर्चा - 1933)

चर्चा-मंच के सभी पाठकों को मेरा नमस्कार. 

यूं कुछ समय से व्यस्तता के कारण हर चर्चा को गहराई से बांचने का समय तो नहीं निकाल पाती थी, पर मैं चर्चा मंच की पुरानी पाठक हूं. सम्माननीय चर्चाकारों की चुनिंदा कढ़ियों संग हमारे लिए चर्चा तो ऐसी है, जैसे हिंदी ब्लॉग्स के सागर में से चुने हुए मोती.

मैं उनकी तरह साहित्य की ज्ञाता तो नहीं हूं, (दसवीं के बाद हिंदी कभी मेरा विषय नहीं रहा, परंतु हिंदी पढ़ने की रुचि बनी रही)  पर चर्चा की रोचकता को बनाए रखने का पूरा प्रयास करूंगी.

चर्चामंच के संस्थापक* आदरणीय रूपचन्द्र शास्त्री जी ने २००९ में इस चर्चा करते चिट्ठे की शुरुआत की थी.


देखना चाहेंगे ये ऐतिहासिक चिट्ठा? तो यादों के पिटारे से निकाली - ये रही चर्चामंच की पहली चर्चा की कढ़ी:



ये तो हुआ इतिहास. अब तनिक वर्तमान की सुध लें? शास्त्री जी की अनुमति से मैं सोमवार की अपनी चर्चा में कुछ नए स्तंभ* भी जोड़ने जा रही हूं. आपकी प्रतिक्रियाओं के अनुसार इनमें विकाशन* करती रहूंगी.

आज प्रारंभ एक सुंदर गीत से करते हैं. आने वाला पल, जाने वाला है. 








पल पल में जीवन, हर पल में जीवन. तो चर्चा-मंच पर अगले पलों को को कैसे बिताया जाए?

कुछ काम की बात हो जाए? कई ब्लॉगर मित्र अपने ब्लॉग के लिए चित्र “गूगल से साभार” लेते हैं. मेरे सहचिट्ठाकारों को बताना चाहूंगी, कि गूगल खोज (सर्च) पर प्रदर्शित चित्रों का न तो गूगल स्वामी है, न ही उनके पास अधिकार हैं उन चित्रों के. गूगल केवल आपको आपकी आवश्यकता अनुसार, डाली हुई क्वेरी के हिसाब से चित्रों के लिंक व प्रिव्यू दिखाता है. ठीक उसी तरह, जैसे चर्चामंच में हम चुने हुए ब्लाग्स की कढ़ियां आप के लिए दर्शाते हैं, रचयिता के किसी  भी विशेषाधिकार को भंग करे बिना.

ये चित्र प्राय: ही कॉपीराइट नियमों के अंतर्गत सुरक्षित होते हैं - बिना अनुमति अपने ब्लॉग पर इनका उपयोग करना गलत होगा. चित्रों के स्वामी द्वारा शिकायत करने पर आप मुसीबत में पढ़ सकते हैं. आपके ब्लॉग को ब्लॉक भी किया जा सकता है. हमारी एक साथी चिट्ठाकार के साथ ऐसा हो भी चुका है. इस बारे में विस्तार से यहां पढ़ें कॉपीराइट और वॉटरमार्क के महत्व को समझें - १
अब तो गूगल भी चित्रों की नकल को भी ढ़ूंढने में समर्थ है. नकल की हुई सामग्री आपके ब्लॉग के पेजरैंक / रैंकिंग आदि पर भी बुरा असर डालेगी.
(क्या आप जानते हैं, कि एक चित्र डाल कर आप उस जैसे अन्य चित्रों को भी ढ़ूंढ सकते हैं?)
पाठक कहेंगे, फिर उपयुक्त चित्र कहां से लाएं? चिंता न करें, उसके लिए कई उपाय हैं, जिनसे मैं आपको अवगत कराउंगी. पर अनुरोध है, कृपया अपने उत्कृष्ट लेखन से चित्तचोर बनें, “चित्रचोर” न बनें.
(अन्य चित्रचोरों से बचने के लिए करें वाटरमार्क का प्रयोग - कैसे, ये जाने मेरी अगली चर्चा में)  

एक वेबसाइट है, जिसका नाम है पिक्साबे. इसपर कई अनुभवी छायाचित्रकार* अपने चित्रों को प्रयोग करने की अनुमति सहित प्रदान करते हैं. इस साइट, और ऐसी कई अन्य साइट के लिंक्स और कॉपीराइट से संबंधित अन्य आवश्यक व उपयोगी सामग्री यहां पाएं - कॉपीराइट और वॉटरमार्क के महत्व को समझें - २



इस चर्चाकार ने चर्चा की कार (गाड़ी) को आगे बढ़ाने हेतु पिछले कुछ दिन अच्छी रचनाएं, अच्छे लेखकों की खोज में बिताए. और मेरे जैसे “सॉफ्टवेयर डेवेलपर्स” से और क्या अपेक्षा कीजिएगा, मैंने उन्हें व्यवस्थित करने हेतु श्रेणियों में विभाजित कर दिया. हम कंप्यूटर से रोजी-रोटी जुड़े वाले लोग भी न… भले टेबल पर कागज फैले रहें पर डेस्कटॉप पर सब फाइल्स को फोल्डर्स में डाल अवश्य व्यवस्थित कर लेंगे.   

कल्पना की कोख से जन्मे किस्से / कहानियां, और कुछ विशेष रस की कविताएं तो कालातीत होती ही हैं, कई  आलेख भी समसामयिक होने के उपरांत भी लम्बे समय के लिए तक संबद्ध* बने रहते हैं. तो इसीलिए, इन कढ़ियों में कुछ तो ऐसी हैं, जो अभी हाल ही में नई-ताज़ा प्रकाशित हुई हैं, और कुछ विगत समय के पिटारे - यानि आर्काइव से चुन कर आपके लिए प्रस्तुत कर रही हूं.  

सबसे पहले कढ़ियां कुछ कहानियों की. पहली दो तो व्यंग्य कसती, समाज का विडंबनीय प्रतिबिंब* दर्शाने वाली रचनाएं हैं, और तीसरी कहानी है आशा की. और इन तीनों कहानियों को यहां एक साथ प्रस्तुत कर, संकेत है उस संतुलन की ओर, जिसकी हमें आज हर ओर आवश्यकता है.       


विक्रम प्रताप सिंघ (बुलबुला) की कहानी
    ऋषभ शुक्ला (हिंदी साहित्य का झरोखा) की कहानी


    अमृत वृद्धाश्रम




    कथा और कविता का भी कैसा रिश्ता है. जुड़ाव भी, अलगाव भी. पड़ाव भी, भटकाव भी.


    यूं तो कविता भी किस्सा कह सकती है. पर जितना कथा कहती है, उतना कविता नहीं कहती. और कभी कभी बिना कहे, जैसे गागर में गूढ़ार्थ का सागर भी भरती है.



    मैंने परी जी कि कुछ कविताएं पढ़ीं. गहराई होते हुए भी शब्दों की सहजता को सहेजे रखना… ये वास्तव में चुनौतीपूर्ण है. लेकिन नैसर्गिक गुणवान लेखिका की किंचित सहज प्रवृत्ति होती है. आप भी पढ़ें और आनंद लें.  

      बचपन में बढ़ी रेखा को बिना छुए बस उसके समीप और बढ़ी रेखा खींच कर उसे छोटा करने वाली कहानी हम सब ने सुनी थी, फिर भी गलाकाट स्पर्धा के इस दौर में लोग बढ़ा बनने के बजाय औरों को छोटा करते हैं. एक सार्थक विरोध है ये कविता


      पहली कविता पढ़ी वेदना भरी, और दूसरी में विरोध के संग मिश्रित संदेश भी है.  
      अब फिर से संतुलन का ध्यान रखते हुए - एक कविता आत्मसम्मान की बात कहती, आत्मविश्वास बरसाती. कुछ लड़ती, कुछ मनवाने का प्ररत्न करती… सच तो ये है, कि इस कविता से में आप क्या पाएंगे, वो काफी हद तक आपके  विचारों पर भी निर्भर करेगा. तो आप की आज की चर्चाकार की कलम से -


      तो किस्से भी हुए, और कवि सम्मेलन को भी उम्मीद है आपने रोचक पाया,
      पर काफिया पूछे, अनूषा, देश की आत्मा ग्राम के भला ये क्या काम आया?

      ये बस काफिया मिलाया है, गांव और छोटे शहरों में प्रकृति के अधिक समीप रहते लोग तो साहित्य के हर रस का असीम आनंद लेने का अधिक सामर्थ्य रखते हैं. पर फिर भी, कुछ काम की बात भी तो हो. 

      तो लीजिए, कुछ जानकारी उनके लिए, जो धरती में सभ्यता के मूल कारण का बीज बोते हैं. लाभ इससे सभी उठा सकते हैं - बागबानी में दिलचस्पी रखने वाले भी, और ई-कामर्स की दुनिया में कुछ नया करने की चाह रखने वाले भी.











      एक लेख श्री रूपचन्द्र शास्त्री जी का - 


      पुस्तक विमोचन - "इतिहास थारू-बुक्सा जनजातियों का"

      (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)


      मयंक की डायरीपर रूपचन्द्र शास्त्री मयंक 


      *खटीमा (उत्तराखण्ड) 29 मार्च, 2015* * आज दिनांक 29 मार्च, 2015 सोमवार को स्थानीय लेखक बलबीर कुमार अग्रवाल की दो पुस्तकों "इतिहास थारू-बुक्सा जनजातियों का अन्वेषण ग्रन्थ भाग-1" और...

      अब बात हो जाए कुछ छायाचित्रकारी की. ये मेरी रुचि का क्षेत्र है. ठीक वैसे ही, जैसे संगीत, गायन और नृत्य. अरे लेखन भी. और एनीमेशन तो लिखना भूल ही गई. छोड़िए, ये “तालिका” तूल देने योग्य नहीं. हर कला चुंबक सी, और मेरी चेतना लोहे सी. काश लोहे जैसी मज़बूती भी होती. 

      इस छायाचित्र में एक ऐतिहासिक व्यंग्य छिपा है. इसे देखने के पहले एक निवेदन है. जब भोजन करें, तब ऐसे चित्रों का, ऐसे समय का, ऐसे लोगों का विचार मन में रखिएगा, खाना झूठा न डालिएगा. 


      हिंदी में एक बहुत सुंदर शब्द है. आविर्भाव. मन में विचारों का. मेरे मन में उमड़ते घुमड़ते विचारों को शब्दों में बांधने का प्रयास करती हूं. और सोशल मीडिया पर अंग्रेज़ी में - “एक्सप्रेशन ऑफ माइ क्रेज़ी माइंड”, और हिंदी में “मेरे मन की भावन” के नाम से, यदा कदा साझा करती रहती हूं.

      इन्हीं अभिव्यक्तियों में से एक: 








      प्रारंभ हमने इतना सुमधुर किया, तो अंत भी निराला हो,
      अनुपमा जी के साझा किए भोर के राग का बोल बाला हो:




      मुझे चर्चाकार के रूप में आप सबसे जुड़ने का अवसर देने के लिए, शास्त्री जी का बहुत बहुत आभार.
      और ये खंड है, शास्त्री जी का कोना. उन्हीं की पसंद की कुछ सुंदर रचनाएं




      *मुक्त-मुक्तक : 686 - और नहीं कुछ प्राण था वो

      उसको क्षण भर विस्मृत करना संभव नहीं हुआ ॥ प्रतिपल हृद ही हृद रोने से टुक रव नहीं हुआ ॥ और नहीं कुछ प्राण था वो पर उसके बिन सोचो ! होगी कितनी लौह-विवशता जो शव नहीं हुआ ? *[ हृद ही हृद = दिल ही दिल में **, टुक रव = थोड़ा सा भी शोर ]* *-डॉ. हीरालाल प्रजापति *









      जातिवाद: ब्राह्मणवाद की उपज - अरुण माहेश्वरी 

      शब्दांकन- भरत तिवारी 
      जातिवाद: ब्राह्मणवाद की उपज ... अरुण माहेश्वरी अर्चना वर्मा जी ने अपनी फेसबुक की वाल पर ‘ब्राह्मणवाद’ शीर्षक से सात पोस्ट लगाई है। इसमें उन्होंने बड़ी सरलता से ब्राह्मणवाद के प्रसंग में कुछ मौलिक बातें कही है। उनकी बातों का लुब्बे-लुबाब यह है कि - क्यों ब्राह्मणवाद के नाम पर बेचारी ब्राह्मण जाति को लपेटा जाता है जबकि ब्राह्मणवाद का समानार्थी पद है जातिवाद... अधिक »

      बेशर्म शर्म

      उलूक टाइम्ससुशील कुमार जोशी 
      *आसान नहींलिख लेना चंद लफ्जों में उनकी शर्म और खुद की बेशर्मी को उनका शर्माना जैसे दिन का चमकता सूरज उनकी बेशर्मी बस कभी कभी किसी एक ईद का छोटा सा चाँद और खुद की बेशर्मी देखिये कितनी बेशर्म पानी पानी होती जैसे उसके सामने से ही खुद अपने में अपनी ही शर्म पर्दादारी जरूरी है बहुत जरूरी है...  अधिक »



      चर्चा में प्रयुक्त हुए कुछ क्लिष्ट और/अथवा अप्रचलित शब्दों के अर्थ:
      (मेरे कई मित्र ऐसे हैं, जिनका हिंदी में हाथ तंग है, 
      उनके लिए चर्चा को न पढ़ने के किसी बहाने की वजह नहीं छोड़ना चाहती) 

      * संस्थापक - Founder
      * स्तंभ - Column
      * विकाशन - Development
      * छायाचित्रकार - Photographers
      * संबद्ध - Relevant
      * प्रतिबिंब - Reflection