शीर्षक पंक्ति आदरणीय शांतनु शान्याल जी की रचना 'दो लफ्ज़' से -
सादर अभिवादन। रविवारीय प्रस्तुति में आप सभी का हार्दिक स्वागत है।
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गीत "स्वतन्त्रता का नारा है बेकार"
खेत बेचारे
एक दूजे को देखें
दुख सुनाएँ
भाई-भाई से वे थे
सटे-सटे-से
मेड़ से जुड़े हुए,
बंदिशें कौन सी क्यों थी चाँद की पर्दानशी में l
बेपर्दा कर ना पायी जो पलकों तले राज छुपे ll
दूरियों के अह्सास में भी जैसे कोई आहट साथ थी l
फुसफुसा रही हवा झोंकों में कुछ तो खास खनकार थी ll
कोई ओट दे देगा
उढ़का देगा बाती
या तेल भर देगा दीपक में
पर जलना तो ख़ुद को ही पड़ता है !
कभी देखना मेरे सपने
कभी रात भर जागा करनी
क्या ‘मासूम’ में ख़म देखा है
अच्छे को अच्छा क्या करना
मुहब्बत का पैगाम पसंद है,
तेरे शहर में,
आज-कल हवा कुछ बदली बदली है,
शायद...
अफवाहों का बाजार गर्म है,
तेरे शहर में,
जब नहीं जानता था कुछ
मैं चुप रहता था
जब जाना कुछ
चिल्ला-चिल्ला कर कहता था
अब सबकुछ जान गया जब तो
फिर से हरदम चुप रहता हूं
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सुंदर संकलन 🙏
जवाब देंहटाएंअसंख्य आभार, आदरणीया, अनुपम संकलन व प्रस्तुति, सभी रचनायें मुग्धता बिखेरती हैं नमन सह ।
जवाब देंहटाएंचर्चा मंच के सभी आयोजकों व पाठकों को सुप्रभात ! पठनीय रचनाओं के सूत्र देती सुंदर चर्चा, 'मन पाए विश्राम जहां' को स्थान देबने हेतु आभार अनीता जी!
जवाब देंहटाएंसुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंप्रिय अनिता, मेरी रचना को चर्चामंच पर स्थान देने हेतु हृदय से आभार । चुनिंदा लिंक्स से सजा बेहतरीन अंक लाने हेतु धन्यवाद। सस्नेह।
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत चर्चा संकलन
जवाब देंहटाएंसुंदर लिंकों को सजी लाजवाब चर्चा प्रस्तुति... मेरी रचना को भी चर्चा में सम्मिलित करने हेतु दिल से धन्यवाद प्रिय अनीता जी !
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