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Sunday, December 11, 2022

"दरक रहे हैं शैल"(चर्चा अंक 4625)

सादर अभिवादन 

सप्ताह के आखिरी दिन और इस साल की मेरी आखिरी प्रस्तुति में 

आप सभी का हार्दिक स्वागत है 

शीर्षक और भूमिका आदरणीय शास्त्री सर जी की रचना से 

दोहन पेड़ों का हुआनंगे हुए पहाड़।

नगमग करते शैल सेबस्ती हुई उजाड़।।

मानवीय अति दोहन के कारण कुपित होती प्रकृति

और तांडव करती नदी-पर्वत 

 बदलते पर्यावरण....कवि  हृदय विचलित तो होगा ही 

इसी दर्द को अपने दोहो में पिरोते शास्त्री सर 

 

दोहे "दरक रहे हैं शैल"

 (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक') 



पिघल रहे हैं ग्लेशियरदरक रहे हैं शैल।

खेत-गाँव से हो गयेगायब अब हल-बैल।।

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बिरुओं को मिलता नहींनेह-नीर अनुकूल।

उपवन में कैसे खिलेंसुन्दर-सुन्दर फूल।।

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वर्तमान समय में मानव मन स्वयं में इतना लिप्त है कि उसे अपने घरवालों तक की परवाह नहीं,

मानवीय संवेदना विलुप्त ही हो चुकी है। 

ऐसे में,बीते दिनों की याद दिलाती एक अति संवेदनसील लघुकथा 

जो एक संवेदनशील लेखिका के कलम से ही निकल सकती है 

“धुआँ”


राधिका शाम को अक्सर छत पर चली आती है । सांझ के तारे 

को देखने के साथ पास-पड़ौस के घरों से उठता धुआँ देखना उसे 

बड़ा भला लगता है । वह अनुमान  लगाया करती है कि कौन से घर 

में सबसे पहले खाना बनना शुरू होगा । उसकी सहपाठिन सहेलियाँ क्या कर रही होंगी अपने घरों में । वह दो दिन से देख रही थी श्यामा काकी के घर से किसी तरह की सुगबुगाहट नहीं थी ।कल स्कूल से आते वक़्त उनके घर का दरवाज़ा भी खुला देखा मगर सांझ के समय उठता धुआँ  नहीं देखा छत की मुँडेर थामे वह यह सोच ही रही 

--------------------------"चलो! अब मुझे पंख भी लगा दो।” सहसा स्त्री के शब्दों से पुरुष बिफर उठा।"पुरुषसत्ता" जिसके लिए सबकुछ संभव है फिर भी....???

पुरुषसत्ता



”ओह! बादल बरसे तब जानूँ मैं !” जेष्ठ महीने की तपती दुपहरी में स्त्री ने पुरुष  को परखते हुए कहा। कुछ समय पश्चात काली-पीली घटाएँ उमड़ी और बरसात की बूँदों से मिट्टी महक उठी जिसकी ख़ुशबू से  मुग्ध स्त्री झूम उठी।

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भोर के उगते सूरज और प्रकृति छटा का इतना मनोरम वर्णन एक कवि हृदय ही सकता है,मन में ही नहीं जीवन में उल्लास भरता बेहद खूबसूरत सृजन 

जिसे देख छाता उल्लास


पर्वतों के कपाट खोल

सद्यस्नाता रश्मियाँ 

झाँकती घूँघट की ओट से

शनैं शनै पग बढ़ाती वधू सी

धानी पांवड़ों पर

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एक माँ अपने बच्चों को बड़े प्यार पालती है मगर,वही माँ जब थक रही होती है तो बच्चें ना उसे सहारा देते है ना ही उसकी भावनाओं को समझते है,हृदयस्पर्शी कहानी  अम्माँ


कितने दिनों के बाद बेटा गौरव बहू और बच्चों के साथ गाँव आया था ! खुशी के मारे अम्माँ के पैर धरती पर पड़ते ही नहीं थे ! कभी उनके लिए हलुआ बनातीं कभी तरह तरह की पूरी कचौड़ी तो कभी खीर और मालपुए ! आज के पिजा, बर्गर, हॉट डॉग, सैंडविच खाने वाली पीढी के लिए अम्माँ के हाथ के ये पकवान किसी छप्पन भोग से कम नहीं थे !--------------
"सास-बहू" इन रिश्तों के प्रति पहले से ही मानसिकता बनी ही होती है कि ये दोनों कभी एक दूसरे के साथ अच्छी  हो ही नहीं सकती,सास-बहू के रिश्तों का ताना-बाना बुनता एक संवेदनशील कथा  


गलतफ़हमी



हाँ आंटी ! बहुत मासूम, सीधी-सादी और सुंदर दिखती हैं मेरी भाभी और जैसी दिखती हैं न, हैं भी बिल्कुल वैसी ही । निधि ने अपनी माँ और उनकी सहेली की बातचीत के बीच हस्तक्षेप किया तो माँ गुस्से से तिलमिलाकर अपनी सहेली से बोली , "देखा ! देखा तूने ! इसने मेरा बेटा ही नहीं अब मेरी बेटी भी अपनी तरफ कर ली है। ऐसी है ये, दिखने में सीधी- सादी पर मन से कपटी और झूठी" 


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कविता जी के पुत्र की आवाज़ में सुनिए एक प्यारा गीत और बच्चें को को प्रोत्साहित कीजिए 

तुम हां तुम


तुम ही हो चांद तुम ही हो सितारे
तुम जो
मुस्कुरा दो तो
खुशियां भर दो तुम दिल में हमारे
जब से
है जाना तुम्हें तो
-------------------------------पशु-पक्षी और और मनुष्य में यही तो फर्क है, उन्हें कल की नहीं आज या यूँ कहें अभी की फ़िक्र होती है,इसलिए वो खुश रहतें हैं। चिड़िया और आदमी के माध्यम से जीवन की बहुत बड़ी सीख देती प्यारी रचना चिड़िया और आदमी

चिड़िया भोर में जगती है 

उड़ती है, दाना खोजती है 

दिन भर फुदकती है 

शाम हुए नीड़ में आकर सो जाती है 

दूसरे दिन फिर वही क्रम 

नीले आसमान का उसे भान नहीं 

हरे पेड़ों का उसे भान नहीं 


--------------------------जीवन का एक पड़ाव "बुढ़ापा" जहाँ लोग ये समझने लगते है कि हम अब क्या कर सकते हैं बस,आखिरी वक़्त का इंतज़ार या बच्चों के जीवन में दखलअंदाजी मगर,ऐसा नहीं है आप चाहे तो बहुत कुछ कर सकते है इन्ही बातों पर प्रकाश डालता बेहतरीन लेख 

जीने का सलीका, मरने का तरीका


यह जीवन एक चक्र है जो आरंभ हुआ है तो पूरा भी होगा। बचपन के बाद किशोरावस्था, युवावस्था के पश्चात प्रौढ़ावस्था और उसके बाद वृद्धावस्था। ये वर्तुल है जो सबको देखना है। यह उम्र हमारी कड़ी परीक्षा लेता है क्योंकि शरीर कमजोर पड़ रहा है, कान बढ़ गई है, उदासी घेर रही है, आत्म-विश्वास की कमी हो रही है, कमाई-धमाई बंद हो चुकी है। शारीरिक कष्ट बढ़ रहे हैं


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आज का सफर यही तक 
अब आप सभी से नये साल में मिलना होगा 
मिलते हैं नये साल में नई ऊर्जा के साथ 
 तब तक खुश रहें, मस्त रहें 
कामिनी सिन्हा 






15 comments:

  1. साीरगर्भित टिप्पणियों के साथ सुन्दर चर्चा प्रस्तुति्।
    आपका आभार कामिनी सिन्हा जी।

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  2. सुप्रभात! सभी रचनाओं के बारे में दी जानकारी उन्हें शीघ्र पढ़ने का आमंत्रण दे रही है, चर्चा मंच का नवीन अंदाज़ सराहनीय है। आभार और बधाई कामिनी जी!

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  3. सुप्रभात! चर्चा मंच की प्रस्तुति का नवीन रूप अत्यंत सुन्दर और सराहनीय है । सभी सूत्र लाजवाब एवं बेहतरीन हैं ।आज की चर्चा में मेरे सृजन को सम्मिलित करने के लिए हार्दिक आपका बहुत बहुत आभार कामिनी जी !

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  4. बहुत अच्छी चर्चा प्रस्तुति में मेरी ब्लॉग पोस्ट सम्मिलित करने हेतु आभार!

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  5. बेहतरीन रचना संकलन एवं प्रस्तुति सभी रचनाएं उत्तम रचनाकारों को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं मेरी रचना को चयनित करने के लिए सहृदय आभार सखी सादर

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  6. उत्कृष्ट लिंको से सजी लाजवाब चर्चा प्रस्तुति ।प्रत्येक लिंक पर आपकी सारगर्भित समीक्षा उसे और भी प्रेरक बना रही है। मेरी रचना को भी चर्चा में सम्मिलित करने हेतु दिल से धन्यवाद एवं आभार आपका ।

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  7. सार्थक सुंदर भूमिका के साथ सुंदर सारगर्भित लिंको की प्रस्तुति ।

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  8. वाह ! बहुत ही सुन्दर एवं सारगर्भित चर्चा आज की ! अपनी लघुकथा का लिंक आज की चर्चा में देख कर बहुत प्रसन्नता हुई ! कामिनी जी आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार ! सप्रेम वन्दे !

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  9. आप सभी को हृदयतल से धन्यवाद एवं आभार

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  10. आप सभी को हृदयतल से धन्यवाद एवं आभार

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  11. बहुत अच्छी चर्चा प्रस्तुति आद. कामिनी जी

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  12. सारगर्भित टिप्पणियों के साथ सुन्दर चर्चा प्रस्तुति्।
    आपका आभार कामिनी सिन्हा जी।

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  13. आदरणीय सदस्य जन !
    चर्चा मंच में सम्मिलत सभी रचनायें सुशोभित योग्य है । सुन्दर एवं सार्थक प्रस्तुति ।

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  14. बहुत अच्छी चर्चा

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  15. उपयोगी पोस्‍टों का चयन. बधाई.

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