शीर्षक पंक्ति आदरणीय शांतनु शान्याल जी की रचना पुराना अलबम से -
सादर अभिवादन।
गुरुवारीय प्रस्तुति में आप सभी का हार्दिक स्वागत है।
अब आवाज़ में, वो कशिश नहीं बाक़ी,जो कभी थी,
वाक़िफ़ चेहरा भी तलाशता है भूल जाने का बहाना,
माज़ी के पन्नों में वो खोजता है गुमशुदा अक्स को,
कबाड़ में लोग बेच देते हैं अक्सर, अलबम पुराना ।
आइए अब पढ़ते हैं आज की पसंदीदा रचनाएँ-
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'हम लोग पहाड़ी मनीहार हैं' कहते हुए जाहिद हुसैन राजस्थान से दिल्ली और दिल्ली से उत्तराखंड की वादियों में भाषा के सहारे अपनेपन की अनुभूति तलाशता है। आइए पढ़ते हैं तलाश की वही अनुभूति आदरणीय शास्त्री के शब्दों में...
संस्मरण “हम लोग पहाड़ी मनीहार हैं”
अब चौंकने की बारी मेरी थी।
मैंने इनसे पूछा- “अच्छा तो यह बतलाइए कि तुम्हारे घर में आपस में सब लोग पहाड़ी भाषा में बात करते हैं या मैदानी भाषा में।”
जाहिद हुसैन ने बतलाया- “सर जी! हम लोग घर में आपस में पहाड़ी भाषा में बात-चीत करते हैं।”
वाक़िफ़ चेहरा भी तलाशता है भूल जाने का बहाना,
माज़ी के पन्नों में वो खोजता है गुमशुदा अक्स को,
कबाड़ में लोग बेच देते हैं अक्सर, अलबम पुराना ।
माना के नहीं ज्ञान ग़ज़ल, गीत, बहर का,कुछ तो हैं तभी बज़्म की पहचान हैं हम भी. खुशबू की तरह तुम जो हो ज़र्रों में समाई,धूँए से सुलगते हुए लोबान हैं हम भी.--अनुपम भाव से गुँथा सृजन का बाना निस्संदेह एक उत्कृष्ट कृति को अवतरित करता है जब उसे सार्थक शब्द मिल जाते है। आइए पढ़ते हैं प्रकृति में रची-बसी एक सुंदर कृति ' सृजन का बाना'...
अनुपम भाव सृजन गढ़ता जबप्रतिभा से आखर मिलता ओजस मूर्ति कलित गढ़ने कोशिल्पी ज्यूँ काठी छिलता।--महात्मा बुद्ध का संदेश संसार की भलाई के लिए है। कवयित्री महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं पर अपना दृष्टिकोण वर्तमान संदर्भ के साथ जोड़ती हुई युद्ध की विभीषिका को दरकिनार करने का विचार सामने रखती है-
मन कर लेते कबिरा जैसालोई जैसा देह समर्पणसाँस-साँस में जपते सच कोतो शायद प्रभु क्रुद्ध न होते।।-- बेजान शब्दों में प्राण फूँकती संवेदनाएँ उन्हें जीवत कृति का रूप प्रदान करती हैं। वह निश्छल हवा में डोलने लगती है तभी कवि कहता है 'शब्दों का क्या?
कुछ शब्दों पर भरोसा है कुछ भरोसे के काबिल नहीं,जिन शब्दों पर भSainबान से निकलते नहीं,जिन शब्दों पर भरोसा नहीं वे कूद-कूद कर बाहर आना चाहते हैं। -- काव्य में उपमाएँ अलंकरण भले ही होते हैं किंतु कवयित्री स्त्री को मिली उपमाओं पर अपना मंतव्य उजागर करती हुई नए आयाम सामने लाते हुए कहती है-पिछले घरकी चाची कहती थी तू जनते समय महादेव चुल्हे के पास बैठे पार्वती को मना रहे थे इसीलिए तो तेरा रंग चुल्हे की कालिख़ सा चढ़ गया
बेजान शब्दों में प्राण फूँकती संवेदनाएँ उन्हें जीवत कृति का रूप प्रदान करती हैं। वह निश्छल हवा में डोलने लगती है तभी कवि कहता है 'शब्दों का क्या?
उपमायें (saritasail.blogspot.com)
बड़ों का आशीष भी है
मित्रों की शुभकामनायें,
प्राणियों, फूलों की भी
घर में फैली हैं दुआएं !
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ज्वलंत विषय पर विचारोत्तेजक सारगर्भित लेख पढ़कर मनन कीजिए-
तराजू वाली प्रतिमा को खुद ही अपनी आँखों पर बंधी पट्टी उतार फेंकनी होगी
बहुत सुन्दर और सार्थक चर्चा प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंआपका आभार @अनीता सैनी 'दीप्ति' जी।
हिंदी की सेवा में सतत संलग्न चर्चामंच का सुन्दर संकलन प्रस्तुति के लिए अभिनन्दन
जवाब देंहटाएंतरुण कुमार ठाकुर
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बहुत अच्छी चर्चा प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंधन्यवाद बहुत सुन्दर संकलन
जवाब देंहटाएंअभिनन्दन
जवाब देंहटाएंसार्थक शीर्षक पंक्तियों के साथ सुंदर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंसभी रचाओं के अंतर्निहित भावों पर विहंगम दृष्टि के साथ शानदार टिप्पणियाँ।
सभी रचनाएँ बहुत आकर्षक।
सभी रचनाकारों को हार्दिक बधाई।
मेरी रचना को भावों से सजाकर प्रस्तुत करने के लिए हृदय तल से आभार ।
सादर सस्नेह।
बहुत ही सार्थक चर्चा।
बहुत सुंदर चर्चा प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंअच्छी चर्चा प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंचर्चा मंच को नई ऊर्जा प्रदान करता सराहनीय अंक, सभी रचनाकारों को हार्दिक शुभकामनाएं एवं बधाई 🙏
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर चर्चा. आभार.
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