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गुरुवार, दिसंबर 01, 2022

'पुराना अलबम - -'(चर्चा अंक 4623)

शीर्षक पंक्ति आदरणीय शांतनु शान्याल जी की रचना पुराना अलबम से -

सादर अभिवादन। 

गुरुवारीय प्रस्तुति में आप सभी का हार्दिक स्वागत है।

अब आवाज़ में, वो कशिश नहीं बाक़ी,जो कभी थी,
वाक़िफ़ चेहरा भी तलाशता है भूल जाने का बहाना,

माज़ी के पन्नों में वो खोजता है गुमशुदा अक्स को,
कबाड़ में लोग बेच देते हैं अक्सर, अलबम  पुराना ।

आइए अब पढ़ते हैं आज की पसंदीदा रचनाएँ-

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'हम लोग पहाड़ी मनीहार हैं' कहते हुए जाहिद हुसैन राजस्थान से दिल्ली और दिल्ली से उत्तराखंड की वादियों में भाषा के सहारे अपनेपन की अनुभूति तलाशता है। आइए पढ़ते हैं तलाश की वही अनुभूति आदरणीय शास्त्री के शब्दों में...

 संस्मरण “हम लोग पहाड़ी मनीहार हैं” 

 जाहिद हुसैन ने कहा- “सर जी! हम तो पहाड़ी हैं।”  
        अब चौंकने की बारी मेरी थी।  
      मैंने इनसे पूछा- “अच्छा तो यह बतलाइए कि तुम्हारे घर में आपस में सब लोग पहाड़ी भाषा में बात करते हैं या मैदानी भाषा में।”  
      जाहिद हुसैन ने बतलाया- “सर जी! हम लोग घर में आपस में पहाड़ी भाषा में बात-चीत करते हैं।” 
  
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भावों की छलकती गगरी में भीगी स्मृतियाँ हैं 'पुराना अलबम'। जीवन में धुँधला पड़ता एहसास का वह अक्स है जिसे धड़कनें बार-बार स्पर्श करना चाहती हैं। एहसास के इसी गहरे स्पर्श को पढ़ते हैं आदरणीय शांतनु शान्याल जी के 'पुराना अलबम' में 

अब आवाज़ में, वो कशिश नहीं बाक़ी,जो कभी थी,
वाक़िफ़ चेहरा भी तलाशता है भूल जाने का बहाना,

माज़ी के पन्नों में वो खोजता है गुमशुदा अक्स को,
कबाड़ में लोग बेच देते हैं अक्सर, अलबम  पुराना ।
--
हृदय में उठा परोपकार का भाव हवा में आड़ोलित लताओं संग गाता-गुनगुनाता यों ही रमता जोगी बन जाता है। शीतल झोंकों से उठते प्रश्न ही उत्तर होते हैं और कहते हैं 'धरती पे लदे धान के खलिहान हैं हम भी'…

माना के नहीं ज्ञान ग़ज़ल, गीत, बहर का,
कुछ तो हैं तभी बज़्म की पहचान हैं हम भी.
 
खुशबू की तरह तुम जो हो ज़र्रों में समाई,
धूँए से सुलगते हुए लोबान हैं हम भी.
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अनुपम भाव से गुँथा सृजन का बाना निस्संदेह एक उत्कृष्ट कृति को अवतरित करता है जब उसे सार्थक शब्द मिल जाते है। आइए पढ़ते हैं प्रकृति में रची-बसी एक सुंदर कृति ' सृजन का बाना'...

अनुपम भाव सृजन गढ़ता जब
प्रतिभा से आखर मिलता 
ओजस मूर्ति कलित गढ़ने को
शिल्पी ज्यूँ काठी छिलता।
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महात्मा बुद्ध का संदेश संसार की भलाई के लिए है।  कवयित्री महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं पर अपना दृष्टिकोण वर्तमान संदर्भ के साथ जोड़ती हुई युद्ध की विभीषिका को दरकिनार करने का विचार सामने रखती है-

मन कर लेते कबिरा जैसा
लोई  जैसा  देह  समर्पण
साँस-साँस में जपते सच को
तो शायद प्रभु क्रुद्ध न होते।।
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 बेजान शब्दों में प्राण फूँकती संवेदनाएँ उन्हें जीवत कृति का रूप प्रदान करती हैं। वह निश्छल हवा में डोलने लगती है तभी कवि कहता है 'शब्दों का क्या?


कुछ शब्दों पर भरोसा है 
कुछ भरोसे के काबिल नहीं,
जिन शब्दों पर भSainबान से निकलते नहीं,
जिन शब्दों पर भरोसा नहीं 
वे कूद-कूद कर बाहर आना चाहते हैं। 
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 काव्य में उपमाएँ अलंकरण भले ही होते हैं किंतु कवयित्री स्त्री को मिली उपमाओं पर अपना मंतव्य उजागर करती हुई नए आयाम सामने लाते हुए कहती है-पिछले घरकी चाची कहती थी तू जनते समय महादेव चुल्हे के पास बैठे पार्वती को मना रहे थे इसीलिए तो तेरा रंग चुल्हे की कालिख़ सा चढ़ गया

उपमायें (saritasail.blogspot.com)

कानों में गूंजने लगती है 
वही चिर परिचित आवाज
पिछले घरकी चाची कहती थी 
तू जनते समय महादेव 
चुल्हे के पास बैठे पार्वती को 
मना रहे थे इसीलिए तो तेरा रंग 
चुल्हे की कालिख़ सा चढ़ गया
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विश्वास प्रेम में पगा रिश्ता हमेशा उजाला ही बिखेरता है। बिखेरता है सादगी के साथ मंद मुस्कान आशीष के फूल और जीवन होले-होले चढ़ने लगता है सीढ़ियाँ। तभी कहती है कवियत्री 'सादगी का दीप जलता'...

बड़ों का आशीष भी है 

मित्रों की शुभकामनायें, 

प्राणियों, फूलों की भी 

घर में फैली हैं दुआएं !

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ज्वलंत विषय पर विचारोत्तेजक सारगर्भित लेख पढ़कर मनन कीजिए- 


 तराजू वाली प्रतिमा को खुद ही अपनी आँखों पर बंधी पट्टी उतार फेंकनी होगी 

नृशंस, संगीन, हैवानियत भरे आपराधिक कांडों पर हुए कुछ फैसलों से जब पुलिस तक हतोत्साहित हो जाती है तो आम नागरिक का क्या हाल होता होगा ? जब वह देखता है कि देश की संपत्ति हड़प जाने वाले, करोड़ों-अरबों का घोटाला करने वाले, नागरिकों को बेवकूफ बना अपना घर भरने वाले, गैर कानूनी हरकतें करने वाले, अपने लाभ के लिए हत्या तक कर देने वाले कभी पैरोल पर, कभी सबूत ना मिलने पर, कभी झूठी दलीलों के सहारे छाती तान बाहर घूमते हैं तो आक्रोश के मारे उसका हरेक व्यवस्था से विश्वास उठने लगता है ! वह आपे से बाहर हो कानून अपने हाथ में लेने की भयंकर भूल कर बैठता है ! जैसा कि कुछ लोगों ने जेल वैन पर हमला कर किया ! वह भूल जाता है कि समाज ऐसे नहीं चलता ! ऐसे तो अराजकता फैल जाएगी ! कुछ भी हो उसे व्यवस्था पर विश्वास तो रखना ही होगा उसे बनाए रखने का सबसे ज्यादा दायित्व भी तो उसी का है ! उधर उसी व्यवस्था के कर्णधारों को भी समय रहते हवा का रुख पहचान लेना चाहिए इसके पहले कि वह हवा तूफान का रूप ले ले ! क्योंकि हर चीज की एक हद तो होती ही है.............!
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आज का सफ़र यहीं तक 
@अनीता सैनी 'दीप्ति' 

10 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर और सार्थक चर्चा प्रस्तुति।
    आपका आभार @अनीता सैनी 'दीप्ति' जी।

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  2. हिंदी की सेवा में सतत संलग्न चर्चामंच का सुन्दर संकलन प्रस्तुति के लिए अभिनन्दन
    तरुण कुमार ठाकुर
    Google 'whoistarun' to see my blog

    जवाब देंहटाएं
  3. धन्यवाद बहुत सुन्दर संकलन

    जवाब देंहटाएं
  4. सार्थक शीर्षक पंक्तियों के साथ सुंदर प्रस्तुति।
    सभी रचाओं के अंतर्निहित भावों पर विहंगम दृष्टि के साथ शानदार टिप्पणियाँ।
    सभी रचनाएँ बहुत आकर्षक।
    सभी रचनाकारों को हार्दिक बधाई।
    मेरी रचना को भावों से सजाकर प्रस्तुत करने के लिए हृदय तल से आभार ।
    सादर सस्नेह।
    बहुत ही सार्थक चर्चा।

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत सुंदर चर्चा प्रस्तुति

    जवाब देंहटाएं
  6. चर्चा मंच को नई ऊर्जा प्रदान करता सराहनीय अंक, सभी रचनाकारों को हार्दिक शुभकामनाएं एवं बधाई 🙏

    जवाब देंहटाएं
  7. बहुत सुंदर चर्चा. आभार.

    जवाब देंहटाएं

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