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गुरुवार, मार्च 09, 2023

'माँ बच्चों का बसंत'(चर्चा-अंक 4645)

शीर्षक पंक्ति- आदरणीया कल्पना मनोरमा जी की रचना से। 

सादर अभिवादन। 
गुरुवारीय प्रस्तुति में आप सभी का हार्दिक स्वागत है।

जब माँ में ख़ुशी का 
एक कल्ला भी नहीं फूटता 
तब इस भौतिक संसार में 
बंसत की चाल सिखाने से 
वंचित रह  जाती है 
एक स्त्री 
दूसरी स्त्री को 
माँ बच्चों का बसंत होती है

आइए अब पढ़ते हैं आज की पसंदीदा रचनाएँ-

--

उच्चारण: होली गीत "मौसम हँसी-ठिठोली का" 

मस्त फुहारें लेकर आया,
मौसम हँसी-ठिठोली का।
देख तमाशा होली का।।
--
माघ में ब्याह कर 
पिता के घर आई माँ 
फागुन में 
पतझड़ की चपेट में आ गयी 
--
कितना गुस्सा थी मैं 
किसी की नहीं सुनी 
मन का पहना , मन का खाया 
कितना शोर मचाया 
खूब भटकी 
अपनी 'आज़ादी' के साथ
 लौटी जो घर.... न जाने किन 
ख्यालों में खो गई 
--
निःस्तब्ध सा है मुख्य
द्वार का सांकल, दस्तकों का हो
चुका समापन, मुहाने पर आ
हो जाती है विश्रृंखल नदी
भी परिश्रांत, हृदय वेग
है मंथर,पलकों पर
ठहरे हुए हैं कुछ
ओस कण,
--
 कहो समय तुम कितने अपने
छली बली निर्मोही हो
छुपा रखा है किसे पता क्या
मन के पक्के गोही हो।।
--

हमेशा की तरह 

इस बार भी होली में 

गुब्बारा नहीं लगा मुझे,

कहीं ऐसा तो नहीं 

कि तुम हर बार 

जान-बूझकर निशाना चूक जाती हो. 

--

शीराज़ा [Shiraza]: टूट रही हैं बेड़ियाँ 

पूजन शोषण की जगह, मिले ज़रा सम्मान।
नारी में गुण- दोष है, नारी भी इंसान।।
हक की ख़ातिर बोलिए, शोषण है हर ओर।
अपनी ताकत आँकिए, आप नहीं कमजोर।।
--
बस हैरान होकर
रह जाता हू
अपने बेटू की
प्यारी "मम्मी" को
मै भी कभी कभी .....
"माँ" कह जाता हू !
--
आज तेरे आने की खुशी हुई,
कल तेरे जाने का दुःख होगा।
पतझड़ में सारे पत्ते सुख गए,
वीराने में उदासी का एक बूत होगा।
--
मैं खूब मनाऊं जश्न, चाहता तो हूं पर
मेहनत ही इतनी नहीं किया, सो सकूं बेच कर घोड़े
इतना नहीं मूलधन पास परिश्रम का मेरे
मिल सके ब्याज के तौर ताकि उल्लास मुझे भरपूर
छटपटा रहा कि कैसे पर्व मनाऊं होली का!
--
मालूम नहीं क्यों, दराज़ के सौ सुराखों वाला कागज़ को उठा कर देखा। बांछें खिल गईं !समय के पीलिया से ग्रसित, हल्का नीला कागज़ और उसपर धुंधली होती स्याही पर एक चिर परिचित लिखावट।लिखावट मेरी माँ की...उनकी पहचान।मुझसे बातें करते हुए सुंदर, सुडौल अक्षर।अक्षर को जोड़ के  शब्द, शब्दों को पिरो कर वाक्य, और वाक्यों को सजाते हुए पैराग्राफ।
--
नहीं मम्मी, मैं चली जाऊँगी रास्ता मुझे याद हो गया है।
याद हो गया है, अच्छी बात है, पर अकेले नहीं जाना। माँ ने खीझते हुए कहा।
मम्मी प्लीज़, आज मुझे अकेले जाने दो न, पता है मुझे रास्ता।
"साँझला ज़िद मत किया करो, चलो दूध फिनिश करो, मैं तुम्हारे पापा को बता कर आती हूँ।" 
--

आज का सफ़र यहीं तक 
@अनीता सैनी 'दीप्ति' 

13 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर चर्चा प्रस्तुति।
    आपका बहुत-बहुत आभार @अनीता सैनी 'दीप्ति' जी।

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति। आभार

    जवाब देंहटाएं
  3. मुझे शामिल करने हेतु आपका हृदय तल से आभार । सभी रचनाएं अद्वितीय हैं नमन सह।

    जवाब देंहटाएं
  4. पठनीय रचनाओं के सूत्र देती सुंदर चर्चा!

    जवाब देंहटाएं
  5. सुन्दर संयोजन, बधाई ! मेरी रचना को स्थान देने के लिए हृदय से आभार आपका 🙏

    जवाब देंहटाएं
  6. आदरणीया अनीता सैनी जी , प्रणाम !
    आपको एवं समस्त चर्चामंच परिवार को होलिकोत्सव एवं महिला दिवस की हार्दिक शुभकामनाये !
    रचना को आदर देने के लिए आपका बहुत बहुत आभार !
    जय माता दी !

    जवाब देंहटाएं
  7. अनिता जी,इस अंक में मेरी लघुकथा को स्थान देने के लिए हार्दिक आभार।
    जीवन के अनेक रंगों को समेटे हुए इस अंक को प्रकाशित करने के लिए रंगों के त्यौहार की शुभकामनाएं।

    जवाब देंहटाएं
  8. सुंदर चर्चा। पठनीय लिंक्स। मेरी रचना शामिल करने के लिए धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
  9. सार्थक लिंक्स के साथ सुंदर प्रस्तुति,सभी रचनाएं बहुत आकर्षक और प्रेरक, सभी रचनाकारों को हार्दिक बधाई।
    मेरी रचना को चर्चा में स्थान देने के लिए हृदय से आभार आपका।
    सादर सस्नेह।
    रंगों के पर्व की सभी को हार्दिक शुभकामनाएं।

    जवाब देंहटाएं
  10. विभिद रंगों से सुसज्जित रचनाओं का संकलन, सभी रचनाकारों को बधाई

    जवाब देंहटाएं
  11. बहुत सुंदर चर्चा। मेरी रचना शामिल करने के लिये धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
  12. सदा की तरह सुंदर प्रस्तुति ! सभी को पावन पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं

    जवाब देंहटाएं

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