शीर्षक पंक्ति: आदरणीय डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' जी की रचना से।
सादर अभिवादन l
गुरुवारीय अंक में आपका स्वागत है।
आइए पढ़ते हैं आज की चंद चुनिंदा रचनाएँ-
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उच्चारण: ग़ज़ल "पाषाणों को गढ़ने में" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
सुनो अभिनेता,
तुम भी चले जाओ,
किसी ने ताली नहीं बजाई,
इसका यह मतलब नहीं है
कि तुम्हारा अभिनय बुरा था.
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जब मैंने तुम्हें पुकारा
तुमने मुझे नजर अंदाज किया
यह तक भूले मैं भी तो लाइन में खड़ी हूँ
तुमसे भेट के लिए |
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"विचारणीय है, पूछ लूँ कि ऐसा क्या विशेष सृजन हो गया था जो बड़ा - बड़ा अवार्ड मिल गया ?"
"पूछ लो! रोका किसने है... ?"
"चुप रह जाना बेहतर लगा यह सोचकर कि अंत में पता क्या चलेगा ?"
"सच बोलने का हिम्मत होगा ही.."
"जुगाड़ वाले सच बोलेंगे क्या..!"
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एक जमाना था जब काजी शब्द सामने आते ही किसी दुबले-पतले व्यक्ति की इमेज आँखों के सामने आ जाया करती थी. क्योंकि एक मुहावरा होता था - काजी जी क्यूँ दुबले, शहर के अन्देशे. उसका आशय ये हुआ करता था कि शहर भर की चिन्ता में काजी जी दुबले होते रहते हैं. जब से हिन्दुस्तान में ओबेसिटी और मोटापे की बात शुरू हुयी है,
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फिर मिलेंगे।
रवीन्द्र सिंह यादव
सुंदर रचनाएं। मेरी रचना को रखने के लिए आभार।
जवाब देंहटाएंपठनीय लिंकों से सजी लाजवाब चर्चा प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंमेरी रचना को भी चर्चा में सम्मिलित करने हेतु धन्यवाद एवं आभार आदरणीय चर्चाकारः रवीन्द्र सिंह यादव जी !
सुप्रभात! सुंदर चर्चा!!
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचनाओं के लिंक मिले हैं। हार्दिक आभार।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन प्रस्तुति । कई अच्छी रचनाओं के लिंक मिले।
जवाब देंहटाएंनिवेदन है कि विगत कई महीनों से मेरे ब्लॉग पोस्ट पर ब्लागर साथियों के कमेंट नहीं आ रहे हैं। चर्चा मंच पर भी मेरे ब्लॉग के लिंक नहीं आ रहे हैं। कृपया अपना स्नेह बनाए रखने का कष्ट करें