मित्रों
रविवार की चर्चा में आपका स्वागत है।
देखिए मेरी पसन्द के कुछ लिंक।
(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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रब का नहीं तो तेरा ही चेहरा दिखाई दे
बन ठन के तू न यार तमाशा दिखाई दे
मैं चाहता हूँ जैसा है वैसा दिखाई दे..
अंदाज़े ग़ाफ़िल पर
चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’
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इस शहर के लोग ---
लोग पैट पालने का शौक तो पाल लिया करते हैं , लेकिन पैट का पेट फुटपाथ पर साफ़ कराते हैं जिस पर खुद चला करते हैं। फिर कहीं पैर में पैट का पेट त्याग न लग जाये , इस डर से इस शहर में लोग सर उठाकर नहीं , सर झुकाकर चला करते हैं...
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समुद्र
...सोख लेता है हमारे भीतर का सब अहं
बैठो तो एक पल समुद्र के साथ
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खारापन
ताकत है समुद्र का
पसीने की
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स्मृतियों में गाँव और गणगौर
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सार्वजनिक उपक्रमों का दुश्मन मीडिया
किसी भी मीडिया घराने को सरकारी विज्ञापन मिलना बंद हो जाये तो वह जार जार रोता है। अगर उसे सरकारी कृपा न प्राप्त हो तो थोड़ी दूर भी चल नहीं पाता। लेकिन मीडिया का अभियान एक ही होता है हर प्रकार के सार्वजनिक संस्थान को संदिग्ध बनाना। उसे देखने में इतना उजाड़ देना कि कोई सेठ उसे तुरंत बसाने के लिए आगे आ सके.
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रेगिस्तान...
मुमकिन है यह उम्र
रेगिस्तान में ही चुक जाए
कोई न मिले उस जैसा
जो मेरी हथेलियों पर
चमकते सितारों वाला
आसमान उतार दे...
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छत्तीसगढ़ के बस्तर में काम कर रही सामाजिक कार्यकर्ता बेला भाटिया कुछ दलित बौद्धिकों की नज़र में सवर्ण महिला हैं। महानगरों में टिके हुए इन चिंतकों को इससे फ़र्क़ नहीं पड़ता कि बेला भाटिया छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में आदिवासी महिलाओं और वंचित तबके के लिए हर क़िस्म का जोख़िम उठाकर काम कर रही हैं। उल्लेखनीय है कि बेला भाटिया को एक दिन पहले ही उनके घर में गोलबंद दबंगों द्वारा कुछ ही घंटों में छत्तीसगढ़ छोड़ देने की बेशर्त धमकी मिली है...
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उलझन
आजकल मैं उलझन में हूँ.
देख नहीं पाता खुद को आईने में,
सुन नहीं पाता अपनी ही आवाज़,
रोक नहीं पाता खुद को चलने से.
सोता हूँ, तो लगता है, जाग रहा हूँ,
जागता हूँ, तो लगता है, सो रहा हूँ.
आजकल मैं उलझन में हूँ,
आजकल अक्सर रात में मैं उठ जाता हूँ,
तसल्ली कर लेता हूँ कि
मैं बस सोया हूँ, अभी ज़िन्दा हूँ.
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नेत्र-दर्शन...
मुक्ताकाश....पर आनन्द वर्धन ओझा
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एक विशाल बरगद के पेड़ पर भांति भांति के पक्षी और जन्तु निवास करते थे.. हंस, कौए, कोयल, गिलहरी, बंदर आदि.. सबने अपनी अपनी डाली और टहनी चुन ली थी... सबका अपना अपना रहन सहन, खाना पीना पर सभी साथ साथ हँसी खुशी रहते थे... एक दूसरे के सुख दुख के साथी। एक दिन एक लकड़हारा पेड़ काटने आया... पेड़ पर रहने वाले सभी जंतुओं, पक्षियों ने नोचना, चोंच मारना शुरू किया... लकड़हारा भाग खड़ा हुआ, अपने इरादे में सफल नहीं हो सका..
परम्परा पर Vineet Mishra
परम्परा पर Vineet Mishra
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दिलकश स्टाइल में बाँध-गूँथ कर महकते फूलों के गुलदस्ते बेचते माली की टोकरी में बचे पड़े फूलों से पूछो- क्या होता है "रिजेक्शन" का दर्द ...
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न जाने कैसे
अच्छे से याद है मुझे कमरे में घुसते ही सटाक से कर लिया था दरवाज़ा बन्द चढ़ा दी थी चिटकनी लगा दी थी कुण्डी कि/ चाह कर भी कोई भीतर न आ सके । मगर न जाने कैसे...कब मेरे साथ-साथ बिस्तर तक चले आये कई दुःख, कई चिन्ताएं क्रोध के रेतीले झोंके ईगो, पश्चाताप और यादें उफ़... एक मुलायम बिस्तर में इतने कठोर सहवासी वो भी इतने सारे...?
एकाएक आँखों में उग आई नागफ़नी और/ करवटें बदलता रहा मैं रातभर ...
शुभ प्रभात
जवाब देंहटाएंआभार
सादर
दो-दो कार्टून सम्मिलित करने के लिए विनम्र आभार जी.
जवाब देंहटाएंसुन्दर रविवारीय अंक। आभार 'उलूक' के सूत्र "दो गज जमीन है, सुकून से जाने के लिये" को स्थान देने के लिये
जवाब देंहटाएंउम्दा अंक आज का |मेरी रचनाएं शामिल करने के लिए धन्यवाद सर |
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर सार्थक पठनीय सूत्र ! मेरी लघु कथा 'बाप का साया' को आज के मंच पर स्थान देने के लिए आपका आभार शास्त्री जी !
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर चर्चा प्रस्तुति ...
जवाब देंहटाएंउम्दा प्रस्तुति। मेरी रचना शामील करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद, आदरणीय शास्त्री जी।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन चर्चा प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंसुन्दर चर्चा. मेरी रचना शामिल करने के लिए आभार.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर चर्चा प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया चर्चा
जवाब देंहटाएंसुन्दर चर्चा प्रस्तुति
जवाब देंहटाएं