मित्रों
रविवार की चर्चा में आपका स्वागत है।
देखिए मेरी पसन्द के कुछ लिंक।
(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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साथ-साथ...
तुम्हारा साथ
जैसे बंजर ज़मीन में
फूल खिलना
जैसे रेगिस्तान में
जल का स्रोत फूटना!
अक्सर सोचती हूँ
तुममें कितनी ज़िन्दगी बसती है
बार-बार मुझे वापस खींच लाते हो
ज़िन्दगी में...
डॉ. जेन्नी शबनम
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मेरी कलम रुक जाती है...
जाने कहाँ गए वो दिन?
जाने कहाँ गया वो जूनून?
जाने कहाँ गयी वो लगन?
शब्द ही खो गए मेरे ह्रदय के.
एक नए जोश के साथ आया हूँ इस बार,
इस संकल्प के साथ कि
अब तो लिखूंगा, बहुत लिखूंगा...
Neeraj Kumar
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भगत सिंह- श्वेता राय
मेघ बन कर छा गये जो, वक्त के अंगार पे।
रख दिए थे शीश अपने, मौत की तलवार पे।।
वायु शीतल,तज गये जो, लू -थपेड़ो में घिरे।
आज भी नव चेतना बन, वो नज़र मैं हैं तिरे।।
मुक्ति से था प्रेम उनको, बेड़ियाँ चुभती रहीं।
चाल उनकी देख सदियाँ, हैं यहाँ झुकती रहीं।।
मृत्यु से अभिसार उनका, लोभ जीवन तज गया।
आज भी जो गीत बनकर, हर अधर पर सज गया...
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मैं नास्तिक क्यों हूँ-
भगत सिंह
यह लेख भगत सिंह ने जेल में रहते हुए लिखा था और यह 27 सितम्बर 1931 को लाहौर के अखबार “ द पीपल “ में प्रकाशित हुआ । इस लेख में भगतसिंह ने ईश्वर कि उपस्थिति पर अनेक तर्कपूर्ण सवाल खड़े किये हैं और इस संसार के निर्माण , मनुष्य के जन्म , मनुष्य के मन में ईश्वर की कल्पना के साथ साथ संसार में मनुष्य की दीनता , उसके शोषण , दुनिया में व्याप्त अराजकता और और वर्गभेद की स्थितियों का भी विश्लेषण किया है ...
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Rarh and Rarhi
राढ़ और राढ़ी--हरिशंकर राढ़ी (यह आलेख किसी जातिवाद या धर्म-संप्रदाय की भावना से नहीं लिखा गया है। इसका मूल उद्देश्य एक समुदाय के ऐतिहासिक स्रोत और महत्त्व को रेखांकित करना तथा वास्तविकता से अवगत कराना है।) महराजगंज के इतिहास और वर्तमान की बात हो तो राढ़ियों की चर्चा के बिना अधूरी ही रहेगी। जैसा कि पहले ही उल्लेख किया जा चुका है, महराजगंज बाजार प्रमुखतया विशुनपुर (राढ़ी का पूरा) की ही जमीन पर बसा हुआ है और इसकी स्थापना से लेकर विकास में राढ़ियों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है...
इयत्ता पर Hari Shanker Rarhi
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अष्टावक्र गीता - भाव पद्यानुवाद
(चालीसवीं कड़ी)
अठारहवाँ अध्याय (१८.०६-१८.१०) (With English connotation)
मोह मात्र रहित होने पर, अपना स्वरुप ज्ञात है होता|
दृष्टि पटल विलीन होते ही, शोक रहित ज्ञानी है होता||(१८.६)
When one, whose vision is unclouded, becomes
free from ignorance and attachment and realises
his true nature, he lives without sorrow.(18.6) --
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डॉ.हीरालाल प्रजापति का '' कविता विश्व ''
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लो सप्त रंग घोल–घोल साथ ले जाओ ॥
कलंकहीनों के सँग होली खेलकर आओ ॥
रँगे सियारों को रँगने में रँग न ख़र्च करो ,
न रँग बदलते हुए गिरगिटों से रँगवाओ ॥
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सुन्दर रविवारीय अंक। आभार 'उलूक' के सूत्र को भी स्थान देने के लिये।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर सूत्रों का संकलन आज की चर्चा में ! मेरी रचना को स्थान देने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद एवं आभार शास्त्री जी !
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी चर्चा प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंआभार!
सुन्दर चर्चा ...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर चर्चा...आभार
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