मित्रों
रविवार की चर्चा में आपका स्वागत है।
देखिए मेरी पसन्द के कुछ लिंक।
(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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Govind Singh(गोविन्द सिंह)
मैं
धरती माँ की बेटी हूँ
इसीलिए तो
सीता जैसी हूँ
मैं हूँ
कान्हा के अधरों से
गाने वाली मुरलिया,
इसीलिए तो
गीता जैसी हूँ...
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दो क्षणिकाएँ..... नादिर खान
तुम अक्सर कहते रहे
मत लिया करो मेरी बातों को दिल पर
मज़ाक तो मज़ाक होता है
ये बातें जहाँ शुरू वहीं ख़त्म ....
और एक दिन मेरा छोटा सा मज़ाक
तार –तार कर गया
हमारे बरसों पुराने रिश्ते को न जाने कैसे...
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अनजानी लड़की
एक लड़की है अनजानी सी ,
थोड़ी पगली थोड़ी दीवानी सी ,
जीवन उसकी है एक कहानी सी ,
कहती है झल्ली खुद को
पर वो न जाने वो है सयानी सी ...
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मेरी है आज तो कल तेरी भी बारी होगी
अपने गेसू की तरह तूने सँवारी होगी
तेरी ही मिस्ल तेरी बात भी न्यारी होगी....
अंदाज़े ग़ाफ़िल पर
चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’
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कुछ बिखरी पंखुड़ियां.....
मुझमे तुम में सिर्फ इतना फर्क है,
मैंने तुम्हे उम्मीदों से बंधा है,
तुमने मुझे शर्तो से बांधा है...
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मैं तुम्हारे काव्य की नायिका नहीं हूँ
मैं नहीं कोमल कली सी, ना गरजती दामिनी,
हूं नहीं तितली सी चंचल, ना ही मैं गजगामिनी...
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शहर का पुराना पेंटर
वह वर्षों से
रंग रहा है
इस शहर के घर
तब से जब यह शहर
बस ही रहा था
नयी कालोनियां बन रही थी
खेतों को काट काट कर...
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कुंठित मन के सवाल....
मेरा कुंठित मन पूछता है
कुछ सवाल कभी कभी
कि वह क्या है जो मेरे पास नहीं है
पर जो दूसरों के पास है ...
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पुस्तक----ईशोपनिषद के
प्रथम मन्त्र .के द्वितीय भाग ..
”तेन त्यक्तेन भुंजीथा.का काव्यभावानुवाद -
डा श्याम गुप्त-----
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पहली बार सुना ऐसा इंकार
‘हलो!’ ‘हलो।’ ‘प्रियम्वदजी बोल रहे हैं?’ ‘जी हाँ! मैं प्रियम्वद बोल रहा हूँ।’ नमस्कार प्रियम्वदजी। मैं रतलाम से विष्णु बैरागी बोल रहा हूँ।’ ओह! विष्णुजी! नमस्कार! नमस्कार! कहिए।’ ‘आप मुझे अकार 46 की कितनी प्रतियाँ उपलब्ध करा सकते हैं?’ ‘आप कहें उतनी। लेकिन आपको क्यों चाहिए?’ ‘अपने कुछ मित्रों को भेंट देने के लिए...
एकोऽहम् पर विष्णु बैरागी
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तीन तलाक –
पुरुषों को पारिवारिक निर्णय से वंचित किया जाए
आज अपनी बात कहती हूँ – जब मैं नौकरी कर रही थी तब नौकरी का समय ऐसा था कि खाना बनाने के लिये नौकर की आवश्यकता रहती ही थी। परिवार भी उन दिनों भरा-पूरा था, सास-ससुर, देवर-ननद सभी थे। अब यदि घर की बहु की नौकरी ऐसी हो कि वह भोजन के समय घर पर ही ना रहे तब या तो घर के अन्य सदस्यों को भोजन बनाना पड़े या फिर नौकर ही विकल्प था। सास बहुत सीधी थी तो वह नौकरानी के साथ बड़ा अच्छा समय व्यतीत कर लेती थीं। कोई कठिनाई नहीं थी। लेकिन हमारी नौकरानी ऐसी नहीं थी कि हम सब उस पर ही निर्भर हों। घर में सारा काम सभी करते थे। इसलिये कोई यह नहीं कह सकता था कि यहाँ तो नौकरानी के हाथ का भोजन खाना पड़ता है...
smt. Ajit Gupta
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शुभ प्रभात
जवाब देंहटाएंउम्दा रचनाएँ
आभार
सादर
सुन्दर लिंक्स. मेरी रचना शामिल करने के लिए शुक्रिया.
जवाब देंहटाएंmeri post ko charchamanch par sthan dene hetu hardik dhanyawad shastri ji.
जवाब देंहटाएंsundar v sarthak sootron se yukt charchamanch .meri rachna ko yahan sthan pradan karne hetu hardik aabhar
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर चर्चा प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंसुंदर संकलन, मेरी रचना को शामिल करने के लिए आपका बहुत बहुत आभार शास्त्री जी.
जवाब देंहटाएंबढ़िया चर्चा।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर चर्चा प्रस्तुति, बहुत आभार।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी चर्चा प्रस्तुति
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