मित्रों
मंगलवार की चर्चा में आपका स्वागत है।
देखिए मेरी पसन्द के कुछ लिंक।
(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
--
--
--
कोई और नहीं बस मैं!
क्योंकर अक्सर ऐसा होता है
मैं होता हूँ ख़ुद ही ख़ुद के साथ
कोई और नहीं बस मैं लड़ता हूँ
झगड़ता हूँ उलझता हूँ
बस यूँ ही ख़ुद के साथ...
--
पर्यावरण गीत
है प्रकृति का गीत है पर्यावरण
वनों का प्रतीक है पर्यावरण ...
Ocean of Bliss पर Rekha Joshi
--
--
--
बिष्णुपुर की मंदिर परिक्रमा :
आइए आज चलें खूबसूरत जोर बांग्ला
व मदनमोहन मंदिर में Jor Bangla and पर
Manish Kumar
--
--
तानाशाह का काम
किसी भी बहाने से चल सकता है
अनाड़ी कारीगर अपने औजारों में दोष निकालता है।
पकाने का सलीका नहीं जिसे वह देगची का कसूर बताता है...
पकाने का सलीका नहीं जिसे वह देगची का कसूर बताता है...
--
जब आँखों ही आँखों में, मिलते जवाब
.. जब आँखों ही आँखों में, मिलते जवाब,
कह दूँ कैसे नहीं होती उनसे मुलाक़ात |
लोग कहते हैं मुझसे...खफा वो जनाब,
उठता फिर भी नहीं मेरे लब पे सवाल
Harash Mahajan
--
--
--
--
--
--
--
नसीब की बात
आँसुओं से सींच कर
दिल की पथरीली ज़मीन पर
मैंने कुछ शब्द बोये थे
ख़्वाबों खयालों और
दर्द भरे अहसासों का
खूब सारा खाद भी डाला था
उम्मीद तो कम थी लेकिन
एक दिन मुझे हैरान करतीं
मेरे दिल की क्यारी में
कुछ बेहद मुलायम बेहद खूबसूरत
नर्मो नाज़ुक सी कोंपलें फूट आईं
जिनमें चन्द नज़्में, चंद गज़लें,
चंद कवितायें और चंद गीत
खिल उठे थे...
दिल की पथरीली ज़मीन पर
मैंने कुछ शब्द बोये थे
ख़्वाबों खयालों और
दर्द भरे अहसासों का
खूब सारा खाद भी डाला था
उम्मीद तो कम थी लेकिन
एक दिन मुझे हैरान करतीं
मेरे दिल की क्यारी में
कुछ बेहद मुलायम बेहद खूबसूरत
नर्मो नाज़ुक सी कोंपलें फूट आईं
जिनमें चन्द नज़्में, चंद गज़लें,
चंद कवितायें और चंद गीत
खिल उठे थे...
--
--
बैगपाइपर
एक राजा था । काफी वर्षो से राज्य कर रहा था।उसे जो राज्य की विरासत मिली थी उसने काफी मेहनत से उसे सवारने का प्रयास किया। उसका राज्य पहले की अपेक्षा काफी मजबूत भी हो गया।लोग मेहनत कर अपना रोजी रोटी भी चला रहे थे।पहले तो कुछ पडोसी राज्यो ने परेशान भी किया किन्तु जब लगा की इससे टकराना ठीक नहीं तो अमन चैन से ही आगे बढ़ाना उचित समझा।किन्तु बीच बीच में ऐसा कुछ हरकत कर जाता की राजा और प्रजा दोनों बेचैन हो जाते....
--
--
पहले तो मानहानि करवाओ
फिर मुकदमा ठोको
ये एहसास है कि सास है....या जरूरी धर्म है? यानी पहले तो मानहानि करवाओ फिर मुकदमा ठोको, पर ये बात जब समझ आ जाये तभी बनती है। मान और मान हानि किस चिड़िया का नाम है ये हमको हमारे बापू ने कम उम्र में ही समझा दिया था। जिस दिन तक समझ नही आया था तब तक सब ठीक था। हमारे बापू जिनके साथ हम गद्दी पर यानी वही लालाओं वाली गद्दी पर बैठा करते थे, उस समय में यदि हमने दुकानदारी के मामले में बापू की तयशुदा सीमा रेखा पार करदी तो बापू जमकर हमारी लू उतार देता था और हमारी गलती कुछ ज्यादा हुई यानी कम पैसे लेकर किसी को ज्यादा सामान दे दिया तो बापू की बेंत भी बेरहमी से हम पर बजने के इंतजार में ही रहती थी...
--
--
--
यादें ...
जंगली गुलाब की ...
धाड़ धाड़ चोट मारते लम्हे ...
सर फट भी जाये तो क्या निकलेगा ...
यादों का मवाद ...
जंगली गुलाब का कीचड़ ...
--
--
--
सुन्दर मंगलवारीय प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंबहुत ही खूबसूरत चयन सूत्रों का आज की चर्चा के लिए । मेरी रचना को सम्मिलित करने के लिए आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार शास्त्री जी
जवाब देंहटाएंशुभ प्रभात
जवाब देंहटाएंआभार
सादर
बहुत अच्छी चर्चा प्रस्तुति में मेरी पोस्ट शामिल करने हेतु आभार!
जवाब देंहटाएंसुंदर चर्चा ...
जवाब देंहटाएंआभार मुझे शामिल करने का ...
क्या गुरु का मार्गदर्शन अनिवार्य है ?
जवाब देंहटाएं*मार्गदर्शन अनिवार्य है, ऐसा हमें लगता है।। मार्गदर्शन ऐसा हो सकता है कि उससे सिर्फ तुम्हारे मन में विचार और कल्पनाएं और धारणाएं पकड़ जाएं। और मार्गदर्शन ऐसा हो सकता है कि तुम्हारे सब विचार और तुम्हारी सब धारणाएं तुमसे छिन जाएं और अलग हो जाएं। तो जो व्यक्ति कहता है, मैं मार्गदर्शन दूंगा, उससे बहुत डर है कि वह तुम्हें विचार पकड़ा दे। जो व्यक्ति कहता है, मैं कोई मार्गदर्शक नहीं हूं, उससे संभावना है कि वह तुम्हारे सब विचार छीन ले। जो कहता है, मैं तुम्हारा गुरु हूं, उसकी बहुत संभावना है कि वह तुम्हारे चित्त में बैठ जाए। जो कहता है, मैं गुरु नहीं हूं। राह चलते रास्ते पर हम मिल गए हैं। तुमने पूछा है कि यह रास्ता कहां जाता है? मैं जानता हूं, मैं कहता हूं कि यहां जाता है। बस इससे ज्यादा कोई संबंध नहीं है। तुम कभी लौट कर मुझे धन्यवाद भी देना, इसका भी सवाल नहीं है। बस बात यहीं खतम हो गई है।*
इसलिय अगर मार्गदर्शन निर्बीज हो, तो मार्गदर्शक नहीं होगा वहां। और मार्गदर्शन अगर सबीज हो, तो मार्गदर्शक बड़ा प्रबल होगा। बल्कि मार्गदर्शक कहेगा कि पहले मार्गदर्शक को मानो, फिर मार्गदर्शन है। कहेगा, पहले गुरु बनाओ, फिर दीक्षा है। कहेगा, पहले मुझे स्वीकार करो, तब ज्ञान। *लेकिन जहां दूसरा जो निर्बीज मार्गदर्शन है—शब्द की तकलीफ है इसलिए ऐसा उपयोग करता हूं, जो निर्बीज मार्गदर्शन है—जो सीडलेस टीचर है, वह कहेगा, पहली तो बात यह रही कि अब मैं गुरु नहीं हूं। यानी पहले तो यह तय कर लो कि गुरु-शिष्य का संबंध न बनाओगे। पहले यह तय कर लो कि मेरी बात तुम्हारे लिए बीज नहीं बनेगी। पहले तो यह तय कर लो कि मुझे पकड़ नहीं लोगे, मेरे साथ क्लिंगिंग नहीं बना लोगे। पहले तो यह तय कर लो कि* *तुम्हारे मन में मेरे लिए कोई जगह न होगी। तब फिर आगे बात चल सकती है।*
इन दोनों में फर्क पड़ेगा।
जवाब देंहटाएंइसलिए कठिनाई होती है। जब मेरे जैसा व्यक्ति कहता है, कोई मार्गदर्शक नहीं, कोई मार्गदर्शन नहीं, कोई गुरु नहीं। तो तुम्हें कठिनाई होती है कि मार्गदर्शन तो चाहिए ही न! पर यह कह कर भी मार्गदर्शन होता है। और तब मार्गदर्शन के सब खतरे कट जाते हैं। और जो कहता है कि गुरु बिन तो ज्ञान नहीं होगा, तब मार्गदर्शन के सब खतरे पाजिटिवली मौजूद हो जाते हैं।
*तो जो गुरु अपनी गुरुडम को इनकार करने को राजी नहीं है, वह गुरु होने की योग्यता खो देता है। जो गुरु अपने गुरुत्व को सबसे पहले काट डालता है, वह अपने गुरु होने की योग्यता देता है। अब यह बड़ा उलटा है। लेकिन ऐसा है। ऐसा है। ऐसा है कि इस कमरे में जो आदमी अपनी श्रेष्ठता की बार-बार खबर देता है, जानना कि उसका चित्त हीन है। स्वभावतः नहीं तो वह खबर नहीं देगा। और जो आदमी एक कोने में चुपचाप बैठ जाता है, कि पता ही नहीं चलता कि वह है भी या नहीं है, जानना कि श्रेष्ठता इतनी सुनिश्चित है कि उसकी घोषणा व्यर्थ है। यह जो सारी कठिनाई है जीवन की वह यह है कि यहां उलटा हो जाता है रोज।*
इसलिए जो आदमी कहेगा, मैं गुरु हूं, जानना कि वह गुरु होने के योग्य नहीं। *और जो आदमी कहे, गुरु-वुरु सब व्यर्थ है! कौन गुरु, क्या जरूरत! तो जानना कि इस आदमी से कुछ मिल सकता है। क्योंकि गुरुता ही इतनी गहरी है कि वह घोषणा व्यर्थ है।*
मगर यह नहीं समझ में आता। और तब रोज कठिनाई होती चली जाती है, तब फिर रोज अड़चन बढ़ती चली जाती है। तब हम दोहरी भूल में पड़ते हैं। जो आदमी कहता है, मैं गुरु हूं, उसे गुरु मान लेते हैं; और जो आदमी कहता है, मैं गुरु नहीं हूं, उसे हम गुरु नहीं मान लेते हैं। तब ये दोहरी दिक्कतें हो जाती हैं। तब जो कहता है, मैं गुरु हूं, उससे हम सीखने जाते हैं; जो कहता है, मैं गुरु नहीं, तो हम कहते हैं, ठीक है। वह खुद ही कह रहा है कि मैं गुरु नहीं हूं, तो बात खतम हो गई। अब सीखने को भी क्या है! ये दोहरी भूलें निरंतर होती हैं। और दोनों ही भूलें हैं। दोनों ही भूलें हैं। जिसने पा लिया है वह मार्गदर्शक हो सकता है। लेकिन जिसने परमात्मा को पा लिया है, वह तुम्हारा मार्गदर्शक होने में भी कुछ रस लेगा, इसकी भ्रांति में मत पड़ना। उसको क्या रस हो सकता है! *यानी परमात्मा को पाकर अब चार शिष्य पाने में कोई रस हो सकता है, तो फिर परमात्मा जरा कमजोर ही पाया होगा।* लेकिन जिसको चार शिष्य पाने में रस है, और चार के चालीस हों तो रस है, तो जानना कि अभी और कुछ बड़ी बात नहीं मिल गई है।
इसलिए यह एक बहुत बड़ा विरोधी वक्तव्य है। बुद्ध जैसा व्यक्ति, जो गुरु होने के योग्य है, निरंतर कहता रहेगा कि कैसा गुरु! निरंतर कहता रहेगा कि गुरु से बचना! क्यों कह रहा है? क्योंकि चौराहों पर लोग खड़े हैं जो गुरु होने को बहुत उत्सुक हैं। और हम भी शिष्य बनने को बहुत उत्सुक हैं। *शिष्य बनने को, चलने को नहीं। मार्गदर्शन लेने को, मार्गदर्शन मानने को नहीं।*
तो झूठे गुरु भी उपलब्ध हैं, झूठा शिष्य भी उपलब्ध है। और उनके बीच संबंध भी बनते हैं। *सच्चा गुरु न तो गुरु होता और सच्चा शिष्य न तो शिष्य होता।* तो यह सवाल ही नहीं उठता, यह सवाल नहीं है। ये बेमानी और इररेलेवेंट बातें हैं। इनका कोई प्रयोजन नहीं है। ऐसा खयाल में आ जाए बस।