मित्रों!
गुरूवार की चर्चा में आपका स्वागत है।
देखिए मेरी पसन्द के कुछ लिंक।
(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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अथ भोजन मंथन
वे गुरु हैं विचार मंथन के गुरु आज उनके घर के पास से गुजरते हुए बांके ने सोचा उनके दर्शन करते चलूँ। क्या पता आज कोई नया विचार नया नजरिया मिल जाये। जो मिलना ही है गुरु के यहाँ से खाली हाथ यानि खाली दिमाग तो लौटा नहीं जा सकता। प्रणाम गुरूजी बांके ने साष्टांग करते हुए कहा। गुरूजी गंभीर चिंतन में थे हलके से सिर हिला कर फिर चिंतन में डूब गए। यह सिर हिलना साष्टांग का जबाव और बैठने का इशारा दोनों ही थे। जो उनके सानिध्य में रहते रहते बांके समझने लगा था। गुरूजी चिंतन करते हुए बांके को तिरछी चितवन से देखते रहे। जब देखा बांके बार बार पहलू बदल रहा है उस का धैर्य जवाब देने ही वाला है उन्होंने आँख...
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नंबर रेस का औचित्य?
10वीं 12वीं का रिजल्ट आया. किसी भी बच्चे के 90% से कम अंक सुनने में नहीं आये. पर इतने पर भी न बच्चा संतुष्ट है न उनके माता पिता। इसके साथ ही सुनने में आया पिछड़ी पीढ़ी का आलाप कि हमारे जमाने में तो इसके आधे भी आते थे तो लड्डू बांटते थे. यह मुझे कुछ ऐसा ही लगता है जैसे हमारे माता -पिता हमें जेब खर्च देते हुए कहा करते थे - " हमें पांच पैसे मिलते थे रोज स्कूल जाते समय, वे काफी होते थे और अब तुम लोगों को पांच रुपये में भी शिकायत है" तब बच्चों का जबाब यही हुआ करता था कि तब उन पांच पैसे में आपकी इच्छा पूर्ती हो जाती थी...
shikha varshney
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मुक्त-ग़ज़ल :
कुछ टेढ़े , कुछ कुबड़े
पहले ही बौने थे कुछ ; कुछ टेढ़े , कुछ कुबड़े ॥
औंधे मुँह गिरकर हो बैठे लूले औ’ लँगड़े ...
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एंटी रोमियो स्क्वाड से बचने के तरीके ----
इधर यू पी में योगी ने सत्ता संभाली उधर रोमियो टाइप के लोगो की शामत आ गयी | हांलाकि रोमियो की आत्मा चीखती रही कि मेरा नाम इस स्क्वाड वगैरह में मत घसीटो | मैंने बस जूलियट से ही प्यार किया था | मैंने किसी भी लड़की को नहीं छेड़ा, लेकिन सरकारें जब किसी जिन्दा आदमी की नहीं सुनती तो फिर रोमियो की आत्मा की क्या विसात ? हो यह रहा है कि इस स्क्वाड के बावजूद यू पी में मनचलों की छेड़छाड़ जारी है...
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ज्वालादेवी से धर्मशाला
(Jwaladevi to Dharamshala)
कल पूरे दिन के सफर की थकान और बिना खाये पूरे दिन रहने के बाद रात को खाना खाने के बाद जो नींद आयी वो एक ही बार 4:30 बजे मोबाइल में अलार्म बजने के साथ ही खुला। बिस्तर से उठकर जल्दी से मैं नहाने की तैयारी में लग गया। फटाफट नहा-धोकर तैयार हुआ और सारा सामान पैक किया। इतना करते करते 5 :30 बज गए। अब कल की योजना के मुताबिक एक बार फिर माँ ज्वालादेवी के दर्शन के लिए चल दिया। बाहर घुप्प अँधेरा था। इक्का-दुक्का लोग ही मंदिर के रास्ते पर मिल रहे थे। कुछ देर में हम मंदिर पहुँच गए। यहाँ मुश्किल से इस समय 25 -30 लोग ही थी। अभी मंदिर खुलने में कुछ समय था। कुछ देर में आरती आरम्भ हो गयी। आरती समाप्त होते होते मेरे पीछे करीब 300 से 400 लोगों की भीड़ जमा हो चुकी थी।
आपका ब्लॉग पर
Abhyanand Sinha
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पडौसन भाभी जी और नागरिक अधिकार
जब से पडौस वाले नेता जी की लालबत्ती का सुख छिन गया था तब से हमारी घर वाली बडे सकून में थी और हो भी क्यों ना? अपनी जब दोनों ही आंखे फ़ूटी हुई हों तब पडौसी की एक आंख भी फ़ूट जाये उस आनंद को कोई भोगने वाला ही समझ सकता है. और बात ही ऐसी थी कि भाभीजी यानि पडौस वाले नेताजी की श्रीमती ने लाल बत्ती के रौब में हमारी घरवाली को खूब नीचा दिखाया था. और दोनों के बीच कुछ ऐसी अंजानी सी दुश्मनी होगई थी मानों दोनों सांप और नेवले का अवतार हों. कहीं भी, कोई भी मौका हो, दोनों चूकने का नाम नहीं लेती थी...
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वो जो इक तीर सा तेरी नजर से निकला था।।
*छोड़के मुझको मेरे दर से जब तू निकला था।*
*जैसे आकाश फटे, खूं जिगर से निकला था...
aakarshan giri
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गहराती शक की खाईयों में
छलकते रहे नयन
बहते रहे आँसू खाते रहे कसमे
हम ज़िन्दगी भर देते रहे
दुहाई हम अपनी वफ़ा की
लेकिन गहराती शक की खाईयों में
मिट गई उल्फत मेरी...
Rekha Joshi
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शायर हूँ यकीनन मेरी पहचान यही है
सबसे न बताओ के परेशान यही है ।
शायर हूँ यकीनन मेरी पहचान यही है...
तीखी कलम से पर
Naveen Mani Tripathi
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) : हे प्रभु ,
तुम्हारे पूजन के लिए
गगन के थाल में चंद्र और सूर्य के दो दीप जले हैं
और समूचा तारामंडल मानो थाल में मोती जड़े हैं
Virendra Kumar Sharma
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फरफराते पन्ने....
भय का आवरण
क्या सामाजिक चेतना से हट गया है?
नव समाज के लोकतान्त्रिक पुरोधा और
सामाजिक शास्त्र के नीति नियंता
इस बदलाव को देख पा रहे है...
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इक तो सजन मेरे पास नहीं रे -
गौतम राजऋषि की कहानी का पॉडकास्ट
मेरे मन की पर
अर्चना चावजी Archana Chaoji
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एक पूरी दुनिया है भीतर...
एक पूरी दुनिया है
भीतर उथल पुथल का समूचा संसार है
गहरी कोई अँधेरी सी गुफा
जहाँ स्पष्ट कोई थाह नहीं है
लकीरों का एक पूरा जमघट है
कितने रास्ते कितने ही ब्रह्माण्ड तैर रहे हैं
अथाह शून्य में ...
अनुशील पर अनुपमा पाठक
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लोकतन्त्र का त्रिभुज :
तरसती तीसरी भुजा
तीन महीनों से अधिक समय से अखबार पढ़ना बन्द है। अन्तिम यात्रा, उठावनों की सूचनाएँ देखने के लिए पन्ने पलटते हुए, शीर्षकों पर नजर चली जाती है। सपाटे से देख लेता हूँ। जिन्दगी में कई फर्क नहीं पड़ा। कभी नहीं लगा कि बाकी दुनिया से पिछड़ गया हूँ। सब कुछ सामान्य, तरोताजा लग रहा। लेकिन आज पढ़ने में आ गया। पालक साफ करने में उत्तमार्द्ध ने मदद चाही। वे पुराने अखबार पर पालक फैलाए बैठी थीं। पालक साफ करते-करते दो-एक समाचार ऐसे देखने में आए कि बाकी अखबार देखने लगा। अखबार 17 मई का । पहला समाचार गाँधी नगर में, स्कूल के ऐन सामने चल रही दारू-दुकान को हटाने के लिए जारी महिलाओं के धरने का था...
एकोऽहम् पर विष्णु बैरागी
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बढ़िया गुरुवारीय अंक। आभार 'उलूक' के सूत्र को स्थान देने के लिये।
जवाब देंहटाएंशुभ प्रभात
जवाब देंहटाएंउम्दा
आभार
सादर
बहुत अच्छी चर्चा प्रस्तुति में मेरी ब्लॉग पोस्ट शामिल करने हेतु आभार!
जवाब देंहटाएंaabhaar ...meri post shamil karne ke lie....
जवाब देंहटाएंबहुत रोचक और विस्तृत चर्चा... आभार...
जवाब देंहटाएं*सुकरात को जहर देकर मारा गया। अदालत ने सुकरात से कहा कि अगर तुम एक वचन दे दो कि तुम सत्य का प्रचार नहीं करोगे--जिसको तुम सत्य कहते हो,* *उसका तुम प्रचार नहीं करोगे, चुप रहोगे--तो यह मृत्यु बचाई जा सकती है। हम तुम्हें माफ कर दे सकते हैं।*
जवाब देंहटाएं*सुकरात ने कहा, जीवन को तो मैं देख चुका। सब कोनों से पहचान लिया। पर्त-पर्त उघाड़ ली। और अगर मुझे जीने का मौका दिया जाए, तो मैं एक ही काम के लिए जीना चाहूंगा कि दूसरे लोगों को भी जीवन का सत्य पता चल जाए। और तो अब कोई कारण न रहा। मेरी तरफ से जीवन का काम पूरा हो गया।* पकना था, पक चुका। *मेरी तरफ से तो मृत्यु में जाने में कोई अड़चन नहीं है। वस्तुतः मैं तो जाना चाहूंगा। क्योंकि जीवन देख लिया, मृत्यु अभी अनदेखी पड़ी है। जीवन तो पहचान लिया, मृत्यु से अभी पहचान नहीं हुई। जीवन तो ज्ञात हो गया, मृत्यु अभी अज्ञात है, रहस्यमय है। उस मंदिर के द्वार भी खोल लेना चाहता हूं। मेरे लिए तो मैं मरना ही चाहूंगा, जानना चाहूंगा--मृत्यु क्या है? यह प्रश्न और हल हो जाए। जीवन क्या है, हल हो चुका। एक द्वार बंद रह गया है; उसे भी खोल लेना चाहता हूं।* और अगर मुझे छोड़ दिया जाए जीवित, तो मैं एक ही काम कर सकता हूं--और एक ही काम के लिए जीना चाहूंगा--और वह यह कि जो मैंने देखा है वह दूसरों को दिखाई पड़ जाए। *अगर इस शर्त पर आप कहते हैं कि सत्य बोलना बंद कर दूं तो जीवित रह सकता हूं, तो फिर मुझे मृत्यु स्वीकार है।*
*मृत्यु सुकरात ने स्वीकार कर ली।* जब उसे जहर दिया गया, वह जहर पीकर लेट गया। मित्र रोने लगे; शिष्य दहाड़ने लगे पीड़ा में; आंसुओं की धारें बह गईं। *सुकरात ने आंख खोलीं और कहा कि यह वक्त रोने का नहीं। मैं चला जाऊं, फिर रो लेना। फिर बहुत समय पड़ा है। ये क्षण बड़े कीमती हैं। कुछ रहस्य की बातें तुम्हें और बता जाऊं। जीवन के संबंध में तुम्हें बहुत बताया, अब मैं मृत्यु में गुजर रहा हूं, धीरे-धीरे प्रवेश हो रहा है। सुनो!*
मेरे पैर ठंडे हो गए हैं; पैर मर चुके हैं। जहर का प्रभाव हो गया। मेरी जांघें शून्य होती जा रही हैं। अब मैं पैरों का कोई अनुभव नहीं कर सकता, हिलाना चाहूं तो हिला नहीं सकता। वहां से जीवन विदा हो गया। *लेकिन आश्चर्य! मेरे भीतर जीवन में जरा भी कमी नहीं पड़ी है। मैं उतना ही जीवित हूं।* जांघें सो गईं, शून्य हो गईं।
सुकरात ने अपने एक शिष्य को कहा, क्रेटो, तू जरा चिउंटी लेकर देख मेरे पैर पर।
उसने चिउंटी ली।
सुकरात ने कहा, मुझे पता नहीं चलता। पैर मुर्दा हो गए। आधा शरीर मर गया। *लेकिन मैं तो भीतर अभी भी पूरा का पूरा अनुभव कर रहा हूं!* हाथ ढीले पड़ गए। हाथ उठते नहीं। गर्दन लटक गई। आखिरी क्षण में भी, आंख जब बंद होने लगी, तब भी उसने कहा कि मैं तुम्हें एक बात कहे जाता हूं, याद रखना: करीब-करीब सब मर चुका है, आखिरी किनारा रह गया है हाथ में, लेकिन *मैं पूरा का पूरा जिंदा हूं, मृत्यु मुझे छू नहीं पाई है।*
*जिसने जीवन को जान लिया, वह मृत्यु को जानने को उत्सुक होगा।* क्योंकि मृत्यु जीवन का दूसरा पहलू है; छिपा हुआ हिस्सा है। चांद की दूसरी बाजू है, जो कभी दिखाई नहीं पड़ती।
*गुरु को मैं मृत्यु कहता हूं, क्योंकि वह तुम्हें मरना सिखाएगा। सारा शिक्षण धर्म का, मृत्यु का शिक्षण है। ध्यान को भी मैं मृत्यु कहता हूं, क्योंकि वह विधि है मरने की। समाधि को भी मृत्यु कहता हूं, क्योंकि वह पूर्णाहुति है। गुरु सिखाने वाला है; ध्यान सीखना है; समाधि पानी है। वे तीनों ही मृत्यु हैं। और मृत्यु बड़ा प्यारा शब्द है। जिस दिन भी तुम इसके भय से छूट जाओगे, मुक्त हो जाओगे; जिस क्षण भी तुम्हारी महत्वाकांक्षा तुम्हें डराएगी न; और तुम आंख खोल कर देखोगे भर, आंख मृत्यु में झांकोगे, उस दिन तुम पाओगे--तुमने अपने भीतर ही झांक लिया।*
*जीवन आधा है। जीवन से ही जिसने अपने को जाना उसने आधा जाना। उसका आत्मज्ञान पूर्ण नहीं है। मृत्यु आधा है।* दिन ही जिसने जाना और रात न जानी उसका ज्ञान अधूरा है। दिन सुंदर है माना; सूरज है, प्रकाश है, फूल हैं, पक्षी हैं। पर रात और भी सुंदर है; तारे हैं, चांद है, विराट आकाश है। प्रकाश की तो सीमा भी मालूम पड़ती है, रात के अंधेरे की कोई सीमा नहीं। प्रकाश में तो थोड़ी उत्तेजना भी है, जलन भी है; रात महाशांति है; कोई उत्तेजना नहीं; परम शून्यता है। प्रकाश में तो वस्तुओं के भेद दिखाई पड़ते हैं; *प्रकाश में तो आकृतियां समझ में आती हैं। रात्रि निराकार है; सब आकार खो जाते हैं। एक महाशून्य, एक महाविराट रह जाता है।*