मित्रों!
रविवार की चर्चा में आपका स्वागत है।
देखिए मेरी पसन्द के कुछ लिंक।
(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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हमारी लोक-संस्कृति हमेशा से हमारी परम्पराओं के साथ पीढ़ी दर पीढ़ी स्थानांतरित होती रही है। कुछ दशक पूर्व तक आम भारतीय इसकी कीमत भी समझते थे और इसको सँजोकर रखने का तरीका भी जानते थे। लेकिन आज ये चोटिल है, आर्थिक उदारवाद से उपजे सांस्कृतिक संक्रमण ने सब कुछ जैसे ध्वस्त कर दिया है। हम नक़ल करने में माहिर हो चुके हैं, वहीं अपनी स्वस्थ परंपरा का निर्वहन करने में शर्मिंदगी महसूस करते हैं। आश्चर्य की बात है कि हर व्यक्ति यही कहता कि हमारी संस्कृति नष्ट हो गई है, उसे बचाना है, पाश्चात्य संस्कृति ने इसे ख़त्म कर दिया है। लेकिन शायद लोक परम्पराओं के इस पराभव में वो ख़ुद शामिल है। कौन है जो हमारी संस्कृति को नष्ट कर रहा है? हमारी हीं संस्कृति क्यों प्रभावित हो रही दूसरे देशों की क्यों नहीं? आज भी दुनिया के तमाम देश अपनी लोक परम्पराओं को जतन से संजोये रखे हैं। दोष हर कोई दे रहा लेकिन इसके बचाव में कोई कदम नहीं, बस दोष देकर कर्त्तव्य की इतिश्री...
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जब रात में सिमट जाता उजाला सजन
सुबह लाती फिर खुशियों की माला सजन ,
देख तेरे नैन हम देखते रह गये
भूल गये फिर सदा मधुशाला सजन...
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रचनाधर्मिता
सत्य नारायण पाण्डेय
रचना वह भी कविता की जोड़-तोड़ से कहाँ संभव ?
यह तो दैवीय प्रेरणा है सृष्टि का यही भेद अभेद्य है
और यह प्रेरणा दिमागी कसरत कदापि नहीं
न तो बुद्धि का ही स्वेद है
जानें बुद्धि के परे भी कोई घटा गहराती है...
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"डोली"
डोली तो उठी थी दोनों की ही
चार कंधों पर सवार फूलों से लदी
लाल जोड़े में सजी सोलह श्रृंगार किये
फर्क बस इतना सा था ...
एक अपनी दुनिया मे आ रही थी
एक अपनी दुनिया से जा रही थी
एक विदा हो रही थी
एक अलविदा हो रही थी
गुज़ारिश पर सरिता भाटिया
समाज में बुजुर्गों के प्रति व्यवहार ....
एक पहलू यह भी
समाज में बुजुर्गों की दुर्दशा पर हम अकसर बात करते हैं, चिंता जताते हैं. सही भी है . बुढ़ापे में जब व्यक्ति अर्थ और शरीर से लाचार होता है ,सहानुभूति स्वाभाविक है ही....और कई बार परिवार वाले उनका सब धन हथिया कर उनको बदहाल कर रखते हैं ..... हमारी संस्कृति में माता पिता के उच्चतम स्थान को ध्यान में रखते हुए अपनाते हुए हम इस दूसरे पहलू पर बात करने से आँख चुराते हैं ..
ज्ञानवाणी पर वाणी गीत
लगाम जरुरी
कालेज में कक्षाएं शुरू हो चुकी थीं। अपने प्रिय मित्र संयम को न देख कर प्राण और हीमेश को कुछ चिन्ता होने लगी । प्राण ने कहा -- "परीक्षाओ के दिन हैं ,इन दिनों तो सब बच्चों पर तैयारी का भूत सवार रहता है पर संयम क्यों नहीं आया ।...किसी से पता करना होगा ।' "संयम राहुल के घर के पास ही रहता है। यह क्लास समाप्त होने पर राहुल के पास चल कर पूछते हैं...
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पत्थर पत्थर है ..
वो ग़लत हाथो में आ जाए
तो किसी का जख्म बन जाता है ..
किसी माइकल एंजलो के हाथ में आ जाए
तो हुनर का शाहकार बन जाता है...
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मैं से मैं तक की यात्रा
अमृता प्रीतम से एक साक्षात्कार में पढ़ा कि ----उनसे किसी ने पूछा उनकी नज्म मेरा पता के बारे में .... जब उन्होंने मेरा पता जैसी कविता लिखी तो उनके मन की अवस्था कितनी विशाल रही होगी .. आदम को या उसकी संभावना को खोज ले तो यही पूर्ण मैं को खोजने वाली संभावना हो जाती है ....यथा ब्रह्मांडे तथा पिंडे को समझने वाला मनुष्य कहाँ खो गया है ,सारा सम्बन्ध उस से से है ... आज मैंने अपने घर का पता मिटाया है .. और हर गली के माथे पर लगा गली का नाम हटाया है .... इस में हर यात्रा "मैं से शुरू होती है और मैं तक जाती है "...
ranjana bhatia
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तलाश___|||
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२६३. आओ, चलो
आओ, अब चलो.
वह पहले सा प्रभाव, पहले-सी सुनवाई,
तुम्हारी एक हांक पर दौड़े चले आना सब का,
तुम्हारी एक डांट पर साध लेना मौन,
तुम्हारा हर निर्णय
पत्थर की लकीर समझा जाना -
अब बीते दिनों की बातें हैं...
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वह बहुत आगे जाएगा |
वह बहुत आगे जाएगा | आगे जाने की सारी कलाओं वह निपुण हो चुका है | वह आगे नहीं जाएगा तो और कौन जाएगा ? वह जहाँ रहता है उस कस्बे में एक इंजीनियरिंग कॉलेज है | इंजीनियरिंग कॉलेज के पास पूरी फैकल्टी नहीं है | अपनी बिल्डिंग नहीं है | संसाधन नहीं है | पूंजी नहीं है | लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है...
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संवेदना तो ठीक है
पर जिम्मेदारी भी तो तय हो
इतिहास गवाह है कि जब भी कोई संघर्ष होता है हमारी संवेदना हमेशा उस पक्ष के लिए होती हैं जो कमजोर है ऐसा हमारे संस्कारों संस्कृति के कारण होता है जो करुणामय है और जो हमेशा कमजोर और शोषक के प्रति कोमल भाव रखती है। यहाँ मसला चाहे स्त्री पुरुष का हो या मजदूर जमींदार का , दलित स्वर्ण का हो या जनता और सत्ता। हमेशा सबल दोषी और निर्बल शोषित होता है ऐसा हम मानते हैं। समय के साथ जब कई वर्जनाएं टूट रही हैं तब क्या ऐसा नहीं लगता कि इन स्थितियों का भी दुबारा आकलन करने की जरूरत है...
शुभ प्रभात पण्डित जी
जवाब देंहटाएंआभार
सादर
बढ़िया चर्चा। आभार 'उलूक' के सूत्र 'अपना देखना खुद को अपने ही जैसा दिखाई देता है' को स्थान देने के लिये।
जवाब देंहटाएंसुन्दर चर्चा. मेरी रचना को सम्मिलित किया. आभार.
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी चर्चा प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंउम्दा चर्चा। मेरी रचना शामिल करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद शास्त्री जी।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी चर्चा ।मेरी रचना को स्थान देने का बहुत बहुत शुक्रिया ।
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