मित्रों।
शुक्रवार की चर्चा में आपका स्वागत है।
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ये ज़रूरी तो नहीं
ज़रूरी तो नहीं कि
मुझपर रोज़ मेहरबां हो ख़ुदा
उसके दर पर भी तो
लाखों सवाली होंगे...
Lekhika 'Pari M Shlok'
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एक याद
कहाँ गए वो दिन
जब शरमा कर दुपट्टे से मुह छिपा कर
भाग जाया करते थे
जरा सी तारीफ गालों को
गुलाबी कर दिया करती थी...
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उलझे हुए शब्द ...
आपस में उलझे हुए शब्द
सुलझ कर
ढल कर
किसी साँचे में
पाले रहते हैं उम्मीद...
जो मेरा मन कहे पर Yashwant Yash
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ठहरो!
इतना आग मत उगलो
मेरी पलकों से पहले
खुलती हैं तुम्हारी पलकें
उठकर देखता हूँ
फेंक चुके हो
अंधेरे की चादर
गिरा चुके हो लाल चोला...
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वो अब हर बात में पैमाना ढूंढते हैं
मंदिर भी जाते हैं तो मयखाना ढूंढते हैं ।
मुहल्ले के लोगों को अब नहीं होती हैरानी
जब शाम होते ही सड़क पर आशियाना ढूंढते हैं..
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घुसपैठियों से सावधान
हम, जो दुनिया को खूबसूरत होते हुए देखना चाहते हैं- किसी भी तरह के शोषण और गैर-बराबरी के विरूद्ध होते हैं, चालाकी और षड़यंत्र की मुनाफाखोर ताकतों का हर तरह से मुक्कमल विरोध करना चाहते हैं । यही कारण है कि अपने कहे के लिए उन्हें ज्यादा जिम्मेदार भी माना जाना चाहिए, या उन्हें खुद भी इस जिम्मेदारी को महसूस करना चाहिए...
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गाल गुलाब छिटकती लाली
जुल्फ झटक मौका कुछ देती
अँखियाँ भरे निहार सकूँ
कारी बदरी फिर ढंक लेती
छुप-छुप जी भर प्यार करूँ...
BHRAMAR KA DARD AUR DARPAN
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इतने दिन तक कहाँ रही
याद न किया मुझे
दौड़ कर आ जा तुझे
अपनी बाहों में झुलाऊँ|
अपनी पलकों में छिपालूं...
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