मित्रों
शनिवार की चर्चा में आपका स्वागत है।
देखिए मेरी पसन्द के कुछ लिंक।
(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
डॉ रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक" का सद्य प्रकाशित दोहा संग्रह अपने नाम के अनुरूप रूपचन्द्र जी के साहित्य की कहीं लालित्य भरी, रिश्तों की मिठास, त्योहारों का उल्लास, प्रकृति के सुन्दर चितराम सजाये भोर की कुनकुनी धूप दृष्टिगोचर होती है तो कहीं विसंगतियों, विषमताओं, व व्यवस्थाओं पर प्रहार करती जेठ वैशाख की दोपहरी सी कठोर।
61 शीर्षकों में विभक्त 541 दोहों और 17दोहा गीतों से सजे इस दोहा संग्रह "रूप की धूप" में दोहाकार ने जहाँ एक और जीवन और रिश्तों के बारीक से बारीक तन्तुओं को छुआ है, वहीं हमारी सांस्कृतिक धरोहर हमारे त्यौहार व परम्पराओं को जो वर्तमान परिवेश में लुप्त होने लगी है,सुन्दर चित्रण से जीवन्त किया है। यथा-
"नाग पञ्चमी पर लगी, देवालय में भीड़।
कानन में सब खोजते, नाग देव के नीड़।।"
--
"नाग पञ्चमी पर लगी, देवालय में भीड़।
कानन में सब खोजते, नाग देव के नीड़।।"
--
"कच्चे धागे से बँधी, रक्षा की पतवार।
रोली अक्षत तिलक में, छिपा हुआ है प्यार।।"
रोली अक्षत तिलक में, छिपा हुआ है प्यार।।"
--
--
बन्द कमरे में अकेला,
और मैं करता भी क्या,
दोस्तों के इस जहां में,दोस्ती ढूँढें कहाँ,
दोस्त जैसे है बहुत , पर दोस्त भी मिलता नहीं।
कारवां से दूर हो ,तन्हा रहा मैं इन दिनों,
वक्त की थामी सुई , पर वक्त भी रुकता नहीं...
दोस्त जैसे है बहुत , पर दोस्त भी मिलता नहीं।
कारवां से दूर हो ,तन्हा रहा मैं इन दिनों,
वक्त की थामी सुई , पर वक्त भी रुकता नहीं...
--
--
“विचार कुम्भ हेतु सेमीनार
दिनांक 26 अप्रैल 16”
कैसे बदलेगी ऐसी परिस्थियां ?
पुत्री के जन्म को पुत्र के जन्म के समतुल्य माना जाकर
दहेज़ जैसी कुरीतियों के स्थान पर योग्यता को महत्व देकर
इन परिस्थितियों में बदलाव सहज है ..
कब बदलेंगी ये सोच ?
“जब जन्म देने वाले दंपत्ति के मन में सकारात्मक सोच होगी ”
कौन बदल सकता है ...?
समुदाय स्वयं इस बदलाव को ला सकता है...
मिसफिट Misfit पर गिरीश बिल्लोरे मुकुल
--
--
उसका हर अंदाज़ लुभाने वाला था
साजन मेरे अँगना आने वाला था
उसका हर अंदाज़ लुभाने वाला था .
है रह रह कर तेरी यादों ने मारा
साथी तेरा प्यार सताने वाला था...
--
मेरा जन्मदिन
(मेरे जन्मदिन का उल्लेख सरकारी फार्मों के अतिरिक्त कहीं और नहीं है। कई मित्र कई बार पूछते हैं। इधर एक मित्र ने फिर से जन्मदिन बताने का आग्रह किया ताकि वे अपने डेटाबेस में शामिल कर सकें। जिस देश की आधी जनता सूखे से त्रस्त हो, पीने के पानी के लिए भी संघर्ष हो , या फिर अलग अलग तरह की लड़ाई हो, मुझे लगता है यह शुभकामनाएं देने का समय नहीं है।
इसी से उपजी एक कविता। )
माँ ने कहा था
जब मैं उसके पेट में था
इतनी बारिश हुई थी कि
दह गए थे खेत सब
मिट्टी के घर मिट्टी बन गए थे ...
--
--
--
अभी कुछ समय पूर्व तक जिन्हें करोड़ों हिन्दू छूने से कतराते थे और उन्हें घर के अन्दर भी आने की मनाही थी, वो असल में चंवरवंश के क्षत्रीय हैं। यह खुलासा डॉक्टर विजय सोनकर की पुस्तक – हिन्दू चर्ममारी जाति:एक स्वर्णिम गौरवशाली राजवंशीय इतिहास में हुआ है...
--
--
श्रीनिवासन शहर के एक प्रतिष्ठित रईस थे. उनके पास कई बंगले, कारखाने व और व्यापार थे.
वे अपने इकलौते बेटे राधे को संसार की सारी सुविधाएँ मुहैया कराना चाहते थे. उनका मन था कि चाहे मजबूरी में या फिर शौक से ही सही, उनके बेटे को कभी कोई काम करना ना पड़े. यानी नो नौकरी नो पेशा ओन्ली मौज मस्ती. यही ध्यान में रखकर उनने एक दिन एक बेशुमार एकमुश्त दौलत बैंक के एक नए खाते में डाला और शाम को घर जाकर अपने इकलौते पुत्र को उस खाते का गोल्ड डेबिट कार्ड थमाया. साथ में हिदायत भी दी कि इस खाते में बेशुमार दौलत है जिसे जानने की तुमको जरूरत नहीं है. हाँ खाते में अब कोई रकम नहीं डल पाएगी और यह भी कि किसी भी तरह से खाते की रकम का ज्ञान उसे नहीं हो पाएगा. श्रीनिवासन ने बैंक में खास हिदायत दे रखी थी कि किसी भी तरह से खाते की रकम की जानकारी कभी भी राधे को प्राप्त न हो. वह जितना चाहे खर्च करे बेफिक्र होकर – जिंदगी भर के लिए निश्चिंत रहे...
Laxmirangam
--
--
हमारी मुहब्ब्त तुम्हारी ज़मींदारी नहीं है
दिल आख़िर दिल है जागीरदारी नहीं है
हमारी मुहब्ब्त तुम्हारी ज़मींदारी नहीं है
शराफ़त तो एक आदत है कोई बीमारी नहीं है
तुम्हारी हां में हां मिलाना हमारी लाचारी नहीं है...
सरोकारनामा पर Dayanand Pandey
--
धन्य-कलयुग
है अनुयुग समक्ष, सकल संतापी,
त्रस्त सदाशय, जीवन आपाधापी,
बेदर्द जहां, है अस्तित्व नाकाफी,
मुक्त हस्त जिंदगी, भोगता पापी।
दिन आभामय बीते, रात अँधेरी,
लक्ष्य है जिनका, सिर्फ हेराफेरी,
कर्म कलुषित, भुज माला जापी,
मुक्त हस्त जिंदगी, भोगता पापी...
त्रस्त सदाशय, जीवन आपाधापी,
बेदर्द जहां, है अस्तित्व नाकाफी,
मुक्त हस्त जिंदगी, भोगता पापी।
दिन आभामय बीते, रात अँधेरी,
लक्ष्य है जिनका, सिर्फ हेराफेरी,
कर्म कलुषित, भुज माला जापी,
मुक्त हस्त जिंदगी, भोगता पापी...
अंधड़ ! पर पी.सी.गोदियाल "परचेत"
--
--
राजनर्तकी की छवि से
मुक्ति दिलाने की सार्थक कोशिश है-
" एक थी राय प्रवीण"
अपनी बात...पर वन्दना अवस्थी दुबे
--