जय माँ हाटेश्वरी....
--
अति प्राचीन बात है। दक्षिण भारत में वीरसेन नामक राजा राज्य करते थे। उन्हीं के राज्य में विष्णुदेव नामक एक ब्राह्मण था। एक बार अकाल की वजह से भिक्षा मिलनीबंद हो गई। ( पूर्व काल में ब्राह्मण का मूल धर्म होता था साधना करना और समाज को धर्मशिक्षण देते हुए भिक्षाटन कर जीवन यापन करना )एक दिन बच्चों के पेट में अन्न गए तीन दिन बीत गए थे। पत्नी रोते हुई बोली, “अब मुझसे सहा नहीं जाता। कोई मां अपने बच्चों को इस तरह मरते हुए नहीं देख सकती।तुम्हें कुछ-न-कुछ करना ही होगा।” पंडितजी ने झल्लाकर कहा “क्या करना होगा? क्या चोरी करूं?”पत्नी ने कहा, “हां, चोरी करो। अब और कोई चारा नहीं बचा है।” पंडितजी ने पत्नी को मनाने का अत्यधिक प्रयास किया, पर वह उसकी हठ के आगे नतमस्तक हो गए। रात कोवह राजमहल के भंडार गृह में पहुंचे। उस समय सारे पहरेदार सो रहे थे। वह अंदर घुसे तो सोने-चांदी के मोहरों तथा अनाज के ऊंचे-ऊंचे ढेरों को देखकर आंखें चौंधियागई। उन्होंने अपनी पगड़ी उतारी और उसमें अनाज रखकर गटर बांधा और तेजी से बाहर आ गए।लौट कर आने के बाद उन्हें नींद नहीं आई। सुबह होते ही वे सीधे राजदरबार जा पहुंचे। अपना अपराध बताने के बाद राजा से अनुरोध किया कि वह उन्हें चोरी का दंड दें।राजा कुछ देर सोचते रहे। कुछ क्षण पश्चात लंबी सांस खींचते हुए वे बोले, “दंड तो मैं अवश्य दूंगा, पंडित महाराज! परंतु आपको नहीं, बल्कि अपने आपको। आज से मैंघूम-घूमकर प्रजा के सुख-दुख की जानकारी लूंगा, जिससे फिर किसी प्रजा जन को चोरी करने की जरूरत ही न पड़े।”
--
अब चलते हैं आज की चर्चा की ओर....
--
लम्बी-लम्बी हरी मुलायम।
ककड़ी मोह रही सबका मन।।
कुछ होती हैं बहुरंगी सी,
कुछ होती हैं सीधी सच्ची,
कुछ तिरछी हैं बेढंगी सी,
रूपचन्द्र शास्त्री मयंक
--
ठंडा जल है
हो गई आत्मा तृप्त
मटका धन्य |
Asha Saxena
--
रख दिया था ट्रेन की पटरी पर
दूर से आती आवाज.........कू छुक छुक !
साथ ही मेरा मासूम धड़कता दिल ... धक् धक्!
और, बस कुछ पलों बाद !!
Mukesh Kumar Sinha
--
घोड़े अपने टापों की
आवाज पर मगन
हो कर गा रहे होते हैं
कोई फर्क नहीं
पड़ रहा होता है
उनके घोड़ेपन पर
रोज गधों की दुलत्ती
जो खा रहे होते हैं
फिर भी मुस्कुरा
रहे होते हैं ।
सुशील कुमार जोशी
--
प्यार की तलब में तड़पती गौरैया की तरह वह आकाश नाप लेती है
समाज के दोगलेपन का धरती पर बहुत अच्छी तरह एहसास है उसे
दमित इच्छाओं और कामनाओं की कई सारी गठरी हैं उस के पास
फ़ेसबुक की नदी में गठरी सारी बहा देने का बढ़िया अभ्यास है उसे
Dayanand Pandey
--
सही-ग़लत का फ़ैसला करना
इतना ज़रूरी क्यों होता है,
कभी तो निकलें इससे,
कभी तो कुछ अलग करें,
बहस नहीं, कुछ बातें करें.
Onkar
--
रत्नेश के व्यवहार से महात्मा जी परिचित थे। अत: उनको माजरा समझते देर नहीं लगी।
'राजन्! मैं समझ गया हूँ, आप चलिए मेरे साथ।' महात्मा जी बोले और दरिया की ओर
बढ़ गए। उनके पीछे-पीछे रत्नेश और गजेंद्र सिंह चल पड़े।
हरी-भरी घास उगी थी। घोड़े घास में लीन थे।
कुटिया की पूर्व दिशा में पर्वत श्रृंखलाएँ थीं।
पर्वतों से बहने वाले झरने समतल भूमि में एक साथ मिलकर दरिया बन
गए थे।
सचिन लोकचंदानी
--
suneel kumar sajal
--
शांति की तलाश मे कितने भी करो कर्मकांड
विचलित हृदय
कैसे तलासेगा शुकून
कौन आया , कौन नहीं का हिसाब किताब रखते
दुख मैं शरीक होने आए लोग
शायद इस दुख को ,
असीम दुख को सहने के लिए
क्यों नही बनाते कोई रीति रिवाज
महेश कुशवंश
--
राम नाम अपने आप में मंत्र है। एक जमाना था जब देश के करोड़ों लोग दिन में कई बार राम-राम का उच्चारण करते थे। अभिवादन से लेकर हरेक काम में राम-राम उच्चारित
होता था। इससे अरबों-खरबों राम मंत्र की महा ऊर्जाओं का भण्डार परिवेश से लेकर व्योम तक में संचित रहता था और इसके प्रभाव से प्रकृति संतुलित रहा करती थी। वहीं
सामाजिक समरसता का ज्वार भी हमेशा हिलोरे लेता दिखाई देता था।
Ravishankar Shrivastava
--
शिवम् मिश्रा
--
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
"चर्चामंच - हिंदी चिट्ठों का सूत्रधार" पर
केवल संयत और शालीन टिप्पणी ही प्रकाशित की जा सकेंगी! यदि आपकी टिप्पणी प्रकाशित न हो तो निराश न हों। कुछ टिप्पणियाँ स्पैम भी हो जाती है, जिन्हें यथा सम्भव प्रकाशित कर दिया जाता है।