न ही किसी पर कोई उपकार करते हैं। क्योंकि अक्सर ब्लॉगिस्तान में कृतज्ञता का अभाव ही पाया जाता है। आप प्रतिदिन सक्रिय रहते हैं और अचानक निष्क्रिय हो जाते हैं तो यहाँ कोई पूछने वाला नहीं है कि मित्र कहाँ हो? तबियत तो ठीक है न! ब्लॉग पर कुछ लिख क्यों नही रहे हो? खैर फिर भी नशा तो है ही ब्लॉगिंग का! |
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कंचन सिंह चौहानके ब्लॉग "हृदय गवाक्ष" की सबसे पहली और अद्यतन पोस्ट को देख लीजिए! |
Monday, June 11, 2007सबसे पहली पोस्ट----- मेरे लिये नेह का मतलब केवल नेह हुआ करता है...तुम अपनी परिभाषा दे लो, वो अपनी परिभाषा दें लें,मेरे लिये नेह का मतलब केवल नेह हुआ करता है।वही नेह जो गंगा जल सा सारे कलुष मिटा जाता है,वही नेह जो आता है तो सारे द्वेष मिटा जाता है।वही नेह जो देना जाने लेना कहाँ उसे भाता है,वही नेह जो बिना सिखाए खुद ही त्याग सिखा जाता है।वही नेह जो बिन दस्तक के चुपके से मन में आता है,वही नेह जो साधारण नर में देवत्व जगा जाता है।शबरी के जूठे बेरों को, जो मिष्ठान्न बना देता है,केवट की टूटी नैय्या को जो जलयान बना देता है,मूक भले हो बधिर नही है, धड़कन तक को गिन लेता है,जन्मों की खातिर जुड़ जाता, जुड़ने मे एक दिन लेता है।झूठ न मानो तो मै बोलूँ..........?झूठ न मानो तो मै बोलूँ..........वही नेह है तुमसे मुझको,और मुझे ये नहीं पूछ्ना मुझसे है या नही है तुमको,मुझको तो अपनी करनी है तुमसे मुझको क्या लेना है,मै अपने मे बहुत मगन हूँ मेरी एक अलग दुनिया है,उस दुनिया की कड़ी धूप मे तू ही मेह हुआ करता है
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----- जियो खिलाड़ी वाहे वाहेगुरू जी की पोस्ट पर टिप्पणी करने गयी, तो यादों के गलियारे में ऐसी भटकी कि टिप्पणी बन गयी पोस्ट... तो वो ही सही !! १९८३ पता नही याद है या बार बार याद दिलाने के कारण याद रहता है। पड़ोस की टी०वी० पर सब के साथ मुझे भी ले जाया गया था। ये जून की बात है और हमारे यहाँ उसी साल सितंबर में टी०वी० आया था। थोड़ा थोड़ा है ज़ेहन मे । कपिल देव का ट्रॉफी लेना..एक गाड़ी पर बारह खिलाड़ियों का सवार होना, शैंपेन खुलना.... तब ये भी नही पता था कि शैंपेन क्या बला है, खुद ही समझ लिया था कि कोई मँहगी सी कोल्ड ड्रिंक है जो बड़े लोग ही पीने के साथ साथ बहा भी सकते हैं। और फिर ८७ और ९२ के विश्व कप तो नही याद हाँ मगर ये याद है कि क्रिकेट देखा जाता था। कभी कभी गायत्री माता को पाँच रुपये का प्रसाद भी माना जाता था और कभी गायत्री मंत्र पढ़ के भारत को जिताया जाता था। गवास्कर के १०,००० पूरे होने पर सबने उल्लास के साथ स्वागत किया था। सचिन वाला प्रेम तब गवास्कर से था और फिर वो हमारे जीजा जी भी तो थे :P ( कानपुर में उनकी ससुराल जो ठहरी) १९९१ में, जब टीन एज का समय था। मुझे याद है कि तब ४ खिलाड़ी आये थे। सचिन, कांबली, कुंबले,सलिल अंकोला। सभी लड़कियों को अपना फेवरिट चुनना था। बड़ी समस्या थी कि रिकॉर्ड सचिन के अच्छे थे और शक्ल सलिल अंकोला की। आखिरकार दिमाग पर दिल की जीत और पसंदीदा क्रिकेटर सलिल अंकोला....!! बच्चे अब भी चिढ़ाते हैं " अच्छा किया सचिन को नही चुना, वर्ना उसका भी कैरियर चौपट हो जाता। जिसको चुना वो तो खाली एक्टिंग ही कर पाया, क्रिकेट तो खेल नही पाया।" १९९२ का विश्वकप भी उतना याद नही। असल में तब तक याद घर वालों के उत्साह पर निर्भर करती थी। मगर अगले विश्व कप में कांबली का क्रिकेट फील्ड पर ही बैठ जाना और रोना हमेशा याद रहा। बुद्धि अब शकल की जगह मन देखने लगी थी। रोने का मतलब भावुक होना, क्या हुआ कि कांबली देखने में अच्छा नही लगता, है तो कितना सेंसिटिव। फेवरिट क्रिकेटर चेंज... कांबली हो गये हमारे फेवरिट क्रिकेटर। ग़ोया हमारी पसंद क्या चेंज हुई हम उसका भी क्रिकेट कैरियर ले बीते। १९९९ में प्रारंभ में उम्मीद और फिर ना उम्मीद होना। तब तक फोन आ चुका था। और मित्रों सखियों से बात करने का अच्छा मुद्दा था क्रिकेट। सचिन को नापसंद करने के लिये कोई विकल्प नही था अब। मगर अनेकों विवादों के बावज़ूद सौरभ गांगुली मुझे कभी बुरे नही लगे। हमेशा लगा कि सिंसियर बंदा बहसों और दुर्भाग्य की भेंट चढ़ रहा है। २००३ ने मुझे बहुत ज्यादा निराश नही किया चक्रव्यूह के सारे दरवाजे तोड़ के आ जाने के बाद हार और जीत के मध्य सिर्फ एक पतली सी रेखा होती है। उसे पार ना करने से हम दुर्भाग्यशाली भले कहे जायें मगर असफल नही। फिर भी सुपर एट में अच्छा प्रदर्शन ना कर पाने के कारण मीडिया में टीम की छीछालेदर और लोगों का क्रिकेटर्स के घरों के सामने प्रदर्शन, उनके घरों को, घर वालों को नुकसान पहुँचाना, भारतीयों के नकारात्मक रूप से भावुक होने का द्योतक लगा मुझे और लगा कि हमें अपना बौद्धिक स्तर थोड़ा और बढ़ाना होगा। २००७ में सबके साथ मैं भी बहुत निराश थी। इस बीच आया आईपीएल। जिसने क्रिकेट से मेरी रुचि पूरी तरह भंग कर दी। सौरव के खिलाफ सचिन जीते या हारें क्या फरक पड़ता है ? बस ऐसे जैसे सामने के मैदान में दो भतीजों की टीम, जो भी जीते खुश हो लेंगे और दूसरे को पुचकार देंगे। दक्षिण जीते या महाराष्ट्र हमारे लिये तो भारत ही है। विजू, पिंकू के देर रात तक मैच देखने में मुझे ब्लाग पढ़ना या कोई किताब पढ़ना ज्यादा भला लगता। जबर्दस्ती बैठा लेने पर मुझे प्रीती जिंटा और शिल्पा शेट्ठी के मेक अप के अलावा कुछ भी देखने लायक नही लगता। ऐसे में अचानक मेरा क्रिकेट के प्रति फिर से जागरुक हो जाना, आफिस से जल्दी घर आ जाना, एक एक बॉल का हिसाब रखना। घर के दोनो प्राणियों के लिये आश्चर्यजनक था। अम्मा से जब बताया गया कि " अम्मा पता है, आस्ट्रेलिया ३ साल से विश्व कप ले जा रहा था। और भारत ने उसे ऐसा हराया है कि वो सेमी फाइनल में भी नही पहुँच पाया।" तो अम्मा ने कहा " मतलब धूल चटा दी।" और हमने एक स्वर में कहा "हाँ... जियो खिलाड़ी वाहे वाहे। और फिर वो दिन खुशी के छक्के के साथ घर में एक दुखद खबर भी आयी मगर, वो यहाँ नही यहाँ तो ये गीत....! जियो खिलाड़ी वाहे वाहे जियो खिलाड़ी वाहे वाहे जियो खिलाड़ी वाहे वाहे जियो खिलाड़ी वाहे वाहे जियो खिलाड़ी वाहे वाहे ऐदे पैदे (दे घुमा के) आरे पारे (दे दे घुमा के) गुत्थीगुत्थम (दे घुमा के) अड़चन खड़चन (दे दे घुमा के) जियो खिलाड़ी वाहे वाहे जियो खिलाड़ी वाहे वाहे हम्म्म.... ऐदे पैदे (दे घुमा के) आरे पारे (दे दे घुमा के) गुत्थीगुत्थम (दे घुमा के) अड़चन खड़चन (दे दे घुमा के) जुटा हौसला, बदल फैसला, बदले तू बिंदास काफिला खेल जमा ले, कसम उठा ले, बजा के चुटकी धूल चटा दे दे घुमा के, घुमा के, घुमा के,घुमा के दे घुमा के, घुमा के, जियो खिलाड़ी वाहे वाहे दे घुमा के, घुमा के, घुमा के,घुमा के दे घुमा के, घुमा के, जियो खिलाड़ी वाहे वाहे आसमान में मार के डुबकी, उड़ा दे जा सूरज की झपकी, सर से चीर हवा का पर्दा, बदले पटटे जम के गर्दा मार के सुर्री सागर में तू, छाँग बटोर लगा घर में, फाड़ के छप्पर मस्ती मौज की, बारिश होगी घर घर में दे घुमा के, घुमा के, घुमा के,घुमा के दे घुमा के, घुमा के, जियो खिलाड़ी वाहे वाहे दे घुमा के, घुमा के, घुमा के,घुमा के दे घुमा के, घुमा के, जियो खिलाड़ी वाहे वाहे अटकी साँस सुई की नोक पर, खेल बड़ा ही गहरा है, मजा भी है रोमंचदार सा, रंगा, रंगी ये चेहरा है, इटटी शिट्टी, हो हल्ला सब, हुल्लम धूम धड़ाका है, खेल, खिलाड़ी, तड़क, भड़क सब, जलता भड़का है दे घुमा के, घुमा के, घुमा के,घुमा के दे घुमा के, घुमा के, जियो खिलाड़ी वाहे वाहे दे घुमा के, घुमा के, घुमा के,घुमा के दे घुमा के, घुमा के, जियो खिलाड़ी वाहे वाहे ऐदे पैदे (दे घुमा के) आरे पारे (दे दे घुमा के) गुत्थीगुत्थम (दे घुमा के) अड़चन खड़चन (दे दे घुमा के) जुटा हौसला, बदल फैसला, बदले तू बिंदास काफिला खेल जमा ले, कसम उठा ले, बजा के चुटकी धूल चटा दे दे घुमा के, घुमा के, घुमा के,घुमा के दे घुमा के, घुमा के, जियो खिलाड़ी वाहे वाहे दे घुमा के, घुमा के, घुमा के,घुमा के दे घुमा के, घुमा के, जियो खिलाड़ी वाहे वाहे |
About Meडा. सुषमा नैथानी रोज़मर्रा की जद्दोजहद और अपने माईक्रोस्कोपिक जीवन के बाहर एक खिड़की खुलती है, कभी ब्लॉग मे, कभी डायरी मे, कभी किसी किताब के भीतर, कभी स्मृति मे और कभी सचमुच की वादियों मे...... खुली आँखों के सपने देखती हूँ। अलग-अलग अनुपात मे इन्ही को मिलाकर रोज़-ब-रोज़ दुनिया की आड़ी -तिरछी तस्वीर बनाने मे मशरूफ़. लिखना इसी तस्वीर को बनाने और तोड़ने की निहायत व्यक्तिगत क़वायद है. |
कायुगा झील-1Sep 14, 2007 |
Apr 11, 2011दो बिम्बदेखना सुनना .. सुनते हुये देखना होता है पीछे छूटी पगडंडियाँ हरी घास पर दौड़ता बालपन आस की लहलहाती फसल और परती छूटी जमीन भी देखते हुये होता है कि अकसर सुनती हूँ एक उदास लम्बी चुप्प बिसराई कोई धुन पिछले बरस, या कि उससे पहले गुनगुनाया कोई गीत सीधे सपाट देखना नहीं होता सीधे सीधे सुनना नहीं होता देखे सुने की बीच कहीं अतीत के सपने बुनती भविष्य में जी आती हूँ कहना हमेशा बचा रह जाता है रोज़नामचा सुबह से शाम तक समूचे दिन सतरह रंगों की रंगोली बनाती फिर मिटाती हूँ बुहारती हूँ किसी निसंग बौद्ध भिक्षु की तरह नित्य नश्वरता के पाठ गुनती कुछ अपने को बेमतलब करती खुद कुछ टूटती और बहुत कुछ बनती चलती हूँ सुबह से शाम तकसमूचे समूचे दिन |
अब चर्चा करते हैं-Dr.Divya SrivastavaAbout MeAn iron lady ! InterestsFavorite MoviesFavorite MusicFavorite Books
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SUNDAY, JUNE 13, 2010 |
TUESDAY, APRIL 12, 2011भारत-स्वाभिमान सेनानी -- आप शीर्ष पर खड़े हैं , संतुलन बनाए रखियेव्यक्ति जैसे जैसे ऊंचाई की तरफ अग्रसर होता है , वैसे वैसे संतुलन बिगड़ने लगता है , इसलिए बहुतआवश्यक है की इस संतुलन को बनाए रखें । अन्ना हजारे , बाबा रामदेव , किरण बेदी आदि जिस ऊँचाई पर पहुँच चुके हैं , वहां पर करोड़ों जोड़ी आखेंउनकी तरफ उम्मीद के साथ देख रही हैं। इस स्थिति में उनके मुख से निकलने वाले एक-एक शब्द को बहुतनपा तुला होना चाहिए। न ही मर्यादा के खिलाफ हो , न ही किसी को ठेस पहुँचाने वाला हो , न ही आपसीवैमनस्य को दर्शाए और अहंकार तो गलती से छू भी न जाए। इस आन्दोलन में उतरे देश के अनमोल रत्नों ने ये साबित कर दिया की एकता में ही बल है । फिर भी व्यक्तितो भिन्न ही हैं इसलिए थोड़ी बहुत वैचारिक भिन्नता होना स्वाभाविक ही है। यदि अन्ना जी को भूषण-द्वयज्यादा उपयुक्त लगे और रामदेव जी को किरण जी का होना ज्यादा उपयुक्त लगा तो इसमें बुराई नहीं है कोई। तीनों ही व्यक्तित्व अपने आपमें किसी कोहिनूर हीरे से कम नहीं हैं । किरण जी रहें या फिर भूषण जी ,दोनों ही इमानदारी की मिसाल हैं और देशभक्ति से ओत-प्रोत , इसलिए दोनों ही परिस्थियों में देश का भलाही होगा। जहाँ तक भूषण-द्वय का सवाल है , बहुत इमानदार व्यक्तित्व हैं और इस पद के लिए पूरी तरह से उपयुक्त भीहैं , सराहना पड़ेगा अन्ना जी के निर्णय को । लेकिन यदि केवल पिता अथवा बेटे में से किसी एक को लियाजाता तो बेहतर होता क्यूंकि एक अन्य व्यक्ति के समावेश से उस गठन को विस्तार मिलता । और परिवारके एक व्यक्ति को दुसरे का समर्थन और सहयोग तो वैसे भी मिलता ही है। रामदेव जी का भाई-भतीजावाद का आरोप सही नहीं है , लेकिन इसे पूरी तरह से नकारा भी नहीं जा सकता।एक परिवार में यदि दोनों ही काबिल हैं तो एक को लेने के साथ, एक किसी अन्य योग्य व्यक्तित्व कोशामिल किया जा सकता था। लेकिन कोशिश यही होनी चाहिए की भीतर की बात बाहर न आने पाये औरनिर्णय सर्वसम्मति से लिए जाएँ । क्यूंकि भ्रष्ट तंत्र तो मौके की तलाश में 'Divide and rule" वाली नितिलिए तैयार खड़ा है। किरण बेदी जी तो इस पद के लिए पहले ही मना कर चुकी थीं , क्यूंकि जिनता मैं उन्हें जानती हूँ , वे इस पदके बहुत ऊपर उठ चुकी हैं । वे नेतृत्व बेहतर कर सकती हैं । आज देश को पद धारकों से ज्यादा सही दिशादेने वालों की और सही नेतृत्व करने वालों की आवश्यकता है। देश के इस आन्दोलन में शामिल हस्तियों को देखकर लगा मानों स्वतंत्रता के समय के लाल, बाल , पाल ,बोस और भगत सिंह , डॉ राजेन्द्र प्रसाद, और जय प्रकाश जैसे व्यक्तित्व पुनर्जीवित होकर इन हस्तियों केरूप में भारत को स्वाभिमान दिलाने पुनः हमारे बीच आ गए हों। हमारा भी दायित्व है की हम इनकी अनावश्यक निंदा न करें । मानवीय भूलों के प्रति उदार रहें तथा उनकेऊपर समय तथा तंत्र के दबाव को भी समझें। आखिर वे हमारे और देश के लिए ही इतने कष्ट सह रहे हैं। आभार |
About Meअपने बारे में बस इतना-सा ही कहना है कि कुछ पढ़ने,लिखने,सुनने की आदत है ..और(अब)अपने पढ़े,लिखे,सुने को साझा करने की भी एक राह खुल गई है...! InterestsFavorite MoviesFavorite MusicFavorite Books |
पहली पहली पाती : सुन मेरे बन्धु ,पढ़ मेरे साथीकर्मनाशा में सभी का स्वागत है । एक अनजानी ,अनचीन्ही -सी नदी का नाम है। देश -दुनिया के नक्शे को खंगालने , थोडा जूम करने पर संभव है कि इसकी निशानदेही का कुछ अनुमान हो जाय लेकिन इसमें दिलचस्पी कोई ठोस वजह तो होनी चाहिए ! यह अपनी कर्मनाशा कोई बड़ी ,वृहद,विशालकाय नदी तो है नहीं , छोटी-पतली-कृशकाय,अपने आप में सिमटी हुई । इसके तट पर न कोई नगर है ,न मंदिर , न कोई मठ न ही अन्य कोई पुण्य स्थल जहां साल -दो साल में कोई मेला -कौतुक लगे । और तो और इसके आजू-बाजू कोई बड़ा कल-कारखाना भी नहीं जिससे निकलने वाला कूड़ा-कचरा इसके `सौन्दर्य ´ को बनाता-बिगाड़ता हो । तो कर्मनाशा में है क्या ?इसका जवाब बड़ा सीधा-सा है मामूली चीजों में आखिर होता क्या है ।उनका मामूली होना ही उन्हें खास बनाता है । ऐसा मेरा मानना है । अपने मानने न मानने को साझा करने की चाह है और यह ब्लाग उसी की एक राह है । बहुत सारे करम किए कुछ छोटे ,कुछ बड़े ,कुछ आम,कुछ खास बुन न सका लाज ढांपने भर को कपड़ा कातता ही रह गया मन भर कपास । खूब सारी मिट्टी गोड़ी खूब निराई खरपतवार खूब छींटे किसिम -किसिम के बीज पर उगा न एक भी बिरवा छतनार । फिर भी क्या सब अकारथ सब बेकार ??? |
बारिश के अपने नियम हैं : ममांग दाई की कवितायें* ममांग दाई की कवितायें मैं पिछले कई वर्षों से पढ़ता रहा हूँ। पूर्वोत्तर भारत, विशेष रूप से अरुणाचल में बिताये अपने जीवन के (लगभग) एक दशक की स्मृतियों में अवगाहन में उनकी कवितायें बहुत अच्छा साथ देती हैं। २००७ में अपने लिखे एक सफरनामे में उनकी कविताओं के एकाध अंश को मूल अंग्रेजी में उद्धृत किया था और साथ ही एक छोटी - सी कविता को हिन्दी में अनूदित भी किया था। वह यात्रावृत हिन्दी की एक ' बहुत बड़ी' पत्रिका के पास पिछले तीन साल से स्वीकृत होकर प्रकाशन की राह देख रहा है। याद दिलाने / पूछने पर संपादक महोदय का प्रेम पत्र मिल जाता है कि 'आपकी रचना हमारे पास सुरक्षित है। यथासमय उसका उपयोग किया जाएगा।' पता नहीं उस यात्रावृत को कब प्रकाशन की राह मिलेगी ! खैर, इस बीच , इसी साल २००१ में ममांग जी को साहित्य में उत्कृष्ट योगदान पद्मश्री से सम्मानित किया गया है । उन्हें बधाई का मेल करते हुए जब मैंने उनकी कविताओं के अनुवाद करने की अपनी ( पुरानी) इच्छा को व्यक्त किया तो जवाब में उन्होंने सहमति व अपनी कविताओं को विपुल हिन्दी पाठक बिरादरी के समक्ष रखे जाने के प्रस्ताव पर प्रसन्नता की व्यक्त तो अनुवाद का काम और आगे बढ़ा है। * हिन्दी ब्लॉग की बनती हुई दुनिया में शरद कोकास उन ब्लॉगर्स में से हैं जो हिन्दी साहित्य की दुनिया में सतत सक्रिय हैं और उनकी गिनती आज के प्रतिष्ठित कवियों में होती है। शरद भाई नवरात्रि में लगातार नौ दिन तक अपने ब्लॉग 'शरद कोकास' पर अलग - अलग तरीके से नौ स्त्री - कवियों / कवयत्रियों की कवितायें प्रस्तुत करते रहे हैं। यह उनका प्रेम व सदाशयता है कि उन्होंने इस आयोजन मुझ नाचीज को भी साथ चलने का मौका देते हुए कुछ सीखने और शेयर करने का अवसर दिया है। इस बार 'चैत्र नवरात्रि कविता उत्सव - २०११' की थीम है - भारतीय अंग्रेजी कवयत्रियों की कविताओं का हिन्दी अनुवाद। मुझे खुशी है कि भाई शरद जी ने इसमें लगातार चार दिनों तक मेरे अनुवाद प्रकाशित किए हैं और एक अनुवादक के रूप में मेरे काम को एक अच्छा मंच प्रदान किया है। * कविता के अंत की तमाम घोषणाओं के बावजूद अच्छी कविताओं की कोई कमी नहीं है और न ही अच्छी कविताओं के गुण ग्राहकों की। अर्चना चावजी कविता प्रेमी हैं, वह कविताओं का बहुत अच्छा गायन - वाचन भी करती हैं उनका ब्लॉग है 'मेरे मन की'। अर्चना जी 'चैत्र नवरात्रि कविता उत्सव - २०११' की सभी नौ प्रस्तुतियों को अपना स्वर दे रही हैं इसी क्रम में उन्होंने तीसरे दिन की प्रस्तुति 'ममांग दाई की कविता' को भी अपना स्वर दिया है। * यह पोस्ट एक तरह से कई कविता प्रेमियों व प्रस्तुतिकारों की सामूहिकता का प्रतिफल है। ममांग दाई जी ने कविताओं की रचना की है, मैंने उन्हें अनूदित किया है , शरद कोकास जी ने उनकी सुंदर प्रस्तुति की है और अर्चना चावजी ने कवि परिचय व कविताओं को अपना स्पष्ट - सधा स्वर देकर एक नया रूप दे दिया है। * ममांग जी , शरद जी और अर्चना जी के प्रति आभार - धन्यवाद व्यक्त करते हुए मैं यहां उन सभी कविता प्रेमियों के प्रति आभार व्यक्त कर रहा हूँ जिन्होंने प्रस्तुति - पटल पर विजिट कर एक अनुवादक के रूप में मेरे काम को मान्यता दी है और निश्चित रूप से उनके प्रोत्साहन से कुछ और ( अच्छा ) करने की नई राह भी मिली है. तो लीजिए ( एक बार फिर! ) 'कर्मनाशा' पर आज प्रस्तुत है ममांग दाई का संक्षिप्त परिचय व कुछ कवितायें । * ममांग दाई न केवल पूर्वोत्तर भारत बल्कि समकालीन भारतीय अंग्रेजी लेखन की एक प्रतिनिधि हस्ताक्षर है। वह पत्रकारिता ,आकाशवाणी और दूरदर्शन ईटानगर से जुड़ी रही हैं । उन्होंने कुछ समय तक भारतीय प्रशासनिक सेवा में नौकरी भी की , बाद में छोड़ दी । अब स्वतंत्र लेखन । उन्हें `अरूणाचल प्रदेश : द हिडेन लैण्ड´ पुस्तक पर पहला `वेरियर एलविन अवार्ड ` मिल चुका है और इसी वर्ष साहित्य सेवा के लिए वे पद्मश्री सम्मान से नवाजी गई हैं। प्रस्तुत हैं ममांग दाई की तीन कवितायें जो उनके के संग्रह `रिवर पोएम्स´ से साभार ली गई हैं : ०१- बारिश बारिश के अपने नियम हैं अपने कायदे, जब दिन होता है खाली - उचाट तब पहाड़ की भृकुटि पर उदित होता है स्मृति का अंधड़। हरे पेड़ होने लगते हैं और हरे -और ऊंचे। ०२- सन्नाटा कभी - कभी मैं झुका लेती हूँ अपना शीश और विलाप करती हूँ कभी - कभी मैं ढँक लेती हूँ अपना चेहरा और विलाप करती हूँ कभी - कभी मैं मुस्कुराती हूँ और तब भी विलाप करती हूँ। लेकिन तुम्हें नहीं आती है यह कला। ०३-वन पाखी मैंने सोचा कि प्रेम किया तुमने मुझसे कितना दुखद है यह कि इस वासंती आकाश में सब कुछ है धुंध और भाप। आखिर क्यों रोए जा रहे हैं वन पाखी? |
About Meबीते 25 वर्षों से पत्रकारिता। प्रिंट व टीवी दोनों माध्यमों में कार्य। Interests
Favorite MoviesFavorite MusicFavorite Booksके ब्लॉग "शब्दों का सफर" पर |
TUESDAY, JULY 3, 2007अश्व यानी गधा-घोड़ा-सिपाहीबात जरा अटपटी सी है मगर है बिल्कुल सही। अंग्रेजी के ass यानी गधा और हिन्दी-उर्दू के सिपाही दोनों लफ्जों का संबंध अश्व (घोड़ा) से है। हिन्दी ,संस्कृत, अंग्रेजी और उर्दू-फारसी ज़बानों के ये शब्द भारोपीय भाषा परिवार के है। जानते हैं कैसा है ये रिश्ता। संस्कृत में अश्व का जो रूप है वह है अश्व: जिसके तीन अर्थ हैं-1. घोड़ा 2. सात की संख्या प्रकट करनेवाला प्रतीक 3. मनुश्यों की दौड (घोडे़ जैसा बल रखने वाले)। इसी तरह संस्कृत शब्द अश्वक का अर्थ भाड़े का टट्टू या छोटा घोड़ा भी होता है जबकि अश्वतर: का मतलब होता है खच्चर। संस्कृत शब्द अश्व का जो रूप प्राचीन इरानी यानी अवेस्ता में मिलता है वह अस्प:है । लगभग यही रूप अस्प बनकर फारसी में भी चला आया। प्राचीनकाल से ही अश्व यानी घोड़ा अपने बल, फुर्ती और रफ्तार के लिए मशहूर रहा है और पर्वी यूरोप , मध्यएशिया से लेकर मंगोलिया तक फौजी अमले का अहम हिस्सा रहा। यही वजह रही कि अश्व के फारसी रूप अस्प पर आधारित एक नया शब्द भी चलन में आया सिपाहजिसका अर्थ है सेना, बल या फौज। गौरतलब है कि संस्कृत अश्व: और अवेस्ता के अस्प: से यहां अ का लोप हो गया मगर बाकी तीनों ध्वनियां यानी स-प-ह बनीं रहीं। इसी सिपाह आधार से उठकर बना सिपाही शब्द जिसका मतलब फौजी, यौद्धा या सैनिक होता है आज फारसी के साथ-साथ अरबी और अंग्रेजी में भी चलता है हालांकि वहां ये sepoy है जो पुर्तगाली के sipae से बना और उर्दू से आया। अब बात गधे यानी ass की। जिस तरह अश्व: का फारसी रूप बना अस्प उसी तरह इसका पश्तो रूप बना आस। वहां से सुमेरियाई भाषा में यह आन्सू (ansu) बनकर उभरा और फिर वहां से लैटिन में यह आसिनस बनकर पहुंचा जहां इसने एक मूर्ख पशु वाला भाव ग्रहण किया। बाद में ओल्ड जर्मेनिक से होते हुए यह अंग्रेजी के वर्तमान गधे के अर्थ वाले रूप ass में ढल गया। |
SUNDAY, MARCH 27, 2011पापड़ बेलने की मशक्कतकिसी वृक्ष या शरीर के ऊपरी हिस्से के उस स्तर को परत कहते हैं जो सूखने के बाद अपने मूल आधार को छोड़ देता है। इसी परत को पपड़ी भी कहा जाता है। पपड़ी आमतौर पर किसी पदार्थ की अलग हो सकनेवाली ऊपरी परत के लिए प्रयुक्त शब्द है किन्तु सामान्य तौर पर कोई भी परत, पपड़ी हो सकती है। भूवैज्ञानिक नज़रिये से धरती के कई स्तर हैं। धरती के सबसे ऊपरी स्तर को भी पपड़ी कहा जाता है। पपड़ी से मिलता जुलता एक अन्य शब्द है पापड़। चटपटा-करारा मसालेदार पापड़ भूख बढ़ा देता है और हर भोजनथाल की शान है। पपड़ी पापड़ सरीखी भी होती है, मगरपापड़ पपड़ी नहीं है। अर्थात पापड़ किसी चीज़ की परत नहीं है। स्पष्ट है कि पपड़ी के रूपाकार और लक्षणों के आधार पर पपड़ीनुमा दिखनेवाले एक खाद्य पदार्थ को पापड़ कहा गया। चना, उड़द या मूँग की दाल के आटे से बनी लोई को बेलकर खास तरीके से बनाई अत्यंत पतली-महीन चपाती को पापड़ कहते हैं। पापड़ बनाने की प्रक्रिया बहुत बारीक, श्रमसाध्य और धैर्य की होती है इसीलिए हिन्दी को इसके जरिए पापड़ बेलना जैसा मुहावरा मिला जिसमें कठोर परिश्रम या कष्टसाध्य प्रयास का भाव है। किसी ने भारी मेहनत के बाद अगर कोई सफलता पाई है तो कहा जाता है कि इस काम के लिए उसे बहुत पापड़ बेलने पड़े हैं। पापड़ में हालाँकि मशक्कत बहुत है और यह देश का यह प्रमुख कुटीर उद्योग है। अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे... |
कुछ अलग -सी चर्चा !
जवाब देंहटाएंआभार !
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जवाब देंहटाएंशास्त्री जी ,
आपने सही लिखा है की आजकल कृतज्ञता का भाव कम होता जा रहा है। हम सभी सामाजिक प्राणी हैं , और हमें सामाजिकता बनाये रखनी चाहिए। बहुत दिनों से से यदि कोई अनुपस्थित दिखे तो दो शब्द में कुशल क्षेम अवश्य पूछनी चाहिए। इससे सामाजिकता , निस्वार्थता , अपनापन और रिश्तों की मिठास बनी रहती है।
आपके ब्लोग्स पर अनेक विषयों पर आपकी रचनायें पढ़कर मुग्ध होती रहती हूँ । खासकर जो आप बच्चों के लिए लिखते हैं । मार्च में आपके पौत्र के जन्म-दिन पर उपहार स्वरुप आपकी रचना बहुत अच्छी लगी थी ।
आप निस्वार्थ रूप से जो ब्लॉग सेवा कर रहे हैं वह प्रशंसनीय एवं अनुकरणीय है ।
आज आपके द्वारा दिए गए लिंक्स पर पहुंचकर , उम्दा रचनाओं का लाभ लिया और उनसे से जान पहचान भी बढाई। कंचन चौहान जी, डॉ सुषमा नैथानी , डॉ सिद्धेश्वर एवं अजित जी के अनमोल ब्लॉग्स से अपरिचित थी अभी तक ।
इन बेहतरीन ब्लॉगर्स se परिचय के लिए आभार एवं चर्चा मंच पर स्थान देने के लिए आपका ह्रदय से धन्यवाद।
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sir, this is really nice to see my web presentions here. thanks to you and your team.
जवाब देंहटाएंये वाकई अलग हट के वाली चर्चा रही|
जवाब देंहटाएंलंबे समय तक ब्लॉगिंग के लिए समर्पित लोगों की जानकारी साझा करने का आप का प्रयास वंदनीय है|
अरे वाह आज तो बिल्कुल अलग चर्चा की है और बहुत सुन्दर की है……………वैसे चर्चा का अन्दाज़ तो ऐसा ही होना चाहिये जिससे उस खास शख्सियत के बारे मे सब जान सकें……………बहुत पसन्द आई आज की चर्चा।
जवाब देंहटाएंअलग अंदाज की चर्चा..भार.
जवाब देंहटाएंबढ़िया चर्चा ...
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर तरीके से नये रुप में आज की चर्चा सजायी है..बहुत खुब.....पाँचों ब्लाग एक से बढ़कर एक...धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंपाच लोगों की पहली रचनाएँ बहुत अच्छी लगीं |चर्चा का नया प्रकार देखने को मिला |कुछ हट कर चर्चा |आभार
जवाब देंहटाएंआशा
आपका तो अंदाज़ ही सबसे अलग है शास्त्रीजी। आप जैसे मित्र मिलना सौभाग्य की बात है। बहुत दिलचस्प प्रस्तुति है और सुंदर चयन।
जवाब देंहटाएंशामिल करने के लिए आपका धन्यवाद
जवाब देंहटाएं