लखनऊ निवासी प्रतिभा कटियार का मुख्य ब्लॉग है-
इसके अतिरिक्त इनके साझा ब्लॉग हैं-
जनपक्ष और
इनका गद्य और पद्य दोनों पर समान अधिकार है!
ब्लॉग पर जहाँ इनके गद्य आलेख सारगर्भित है,
वहीं इनका पद्य भी बहुत सशक्त है -
ब्लॉगिंग के औजारों से परिचित न होने के कारण
अधिकांश लोग अपनी पहली पोस्ट को रोमन में ही पोस्ट करते हैं!
बहुत कम लोग होते हैं जो अपनी पहली पोस्ट देवनागरी लिपि में लिखकर प्रकाशित करते हैं। यह भी कोई अपवाद नहीं हैं इन्होंने भी अपनी पहली पोस्ट रोमन में ही प्रकाशित की थी।
SUNDAY, AUGUST 3, 2008
HAJARO KHWAHISHEN AISI KI HAR KHWAHISH PAR DAM NIKLE...
GALIB KI YE LINE HAMESHA MERE SATH RAHTI HAI. VAISE AISI
AUR BHI LINE HAI, LOG HAIN, BATEN HAIN JO HAMESHA KE LIYE
MAN KI DIARY ME DARJ HO JATI HAI. SACH POOCHA JAYE TO
YAHI MERA KHAJANA HAIM MERI POONJI HAI AUR ISI KI MUJHE
BHOOKH HAI. FILHAAL GALIB SAHAB KI IS LINE KI BAAT. APNI
HAR KHWAHISH KO MAINE JEE BHAR KE PYAR KIYA HAI. BAGAIR
YE UMMEED KIYE KI VO POORI HOGI YA NAHI. MERE LIYE USKA
ASTITVA MERE BHEETAR KABHI BHI JARA BHI KAM NAHI HUA.
BAHAR KI DUNIYA KE APNE NIYAM HAIN, APNE TAREEKE HAIN
MUJHE PATA HAI IS DUNIYA ME MERI KHWAHISHON KI KOI
KADRA NAHI HOGI. HO BHI KYO KISI NE MERA YA MERI BEWAKOOFIYON
KA THEKA LIYA HAI KYA. MAINE AISI KOI CHAH BHI NAHI RAKHI.
HAN, EK KAAM KIYA KI APNI EK ALAG DUNIYA BANA LI. MERE MEN KI DUNIAY.
JAHIR HAI MERE MAN KI IS DUNIYA ME MERA RAJ CHALTA HAI. MARE
NIYAM HAI AUR MAI HOON. VO BHI HAI JO MERE MAN TAK PAHUNCH PATE
HAI. JAISE SANTOOR BAJATE PT SHARMA JI, MUJHE MERE MAN SE
MILVANE WALE MERE GURUJAN, VE SDATHI JINHONE HAMESHA
SATH DIYA AUR AHSAS KARAYA KI NAHI JEET HAR ALAG BAAT HAI
LEKIN HAR HAAR KA ARTH GALAT HONA NAHI HOTA. VO KITABE
JO MERE SATH SANS KI TARAH CHALTI HAI. VO DUKH JO MUJHE
MANJTA HAI, VO PARESHANIYA JO MUJHE MAJBOOT BANATI HAI,
VO PYAR JO MERE ANKHON KE SAWAN KO SACHMUCH KA
SAWAN BANA DETA HAI AUR VO GURUJAN JO MUJHE DUKH KE
ANDHERE SE NIKALKAR HAATH ME KALAM THAMA KAR KAHTE
HAI LIKHO PRATIBHA LIKHO...MAI NAHI JANTI KI MAI KAISA
LIKH PATI HOON. MUJHE KYO LIKHNA CHAHIYE LEKIN ITNA JAROOR
JANTI HOON KI MAI LIKHE BINE, PADHE BIA JEE NAHI PATI.
NA LIKH PANE KI YATNA SE GUJAR CHUKI HOON. UN SAALON
ME AISA LAGA HI NAHI KI MAI JINDA HOON. TO YE BLOG MERE JINDA
RAHNE KE LIYE.
NA NA MAT MANGO MUJHSE
YE KOI JEWAR NAHI
TUMHARE BAAJAR ME
KOI KEEMAT NAHI ISKI
YE GAM HAI MERA,
MERI TANHAI HAI
MERI TANHAI HAI
SUNDAY, APRIL 24, 2011
इक तमन्ना सताती रही रात-भर...
आपकी याद आती रही रात-भर
चाँदनी दिल दुखाती रही रात-भर
गाह जलती हुई, गाह बुझती हुई
शम-ए-ग़म झिलमिलाती रही रात-भर
कोई ख़ुशबू बदलती रही पैरहन
कोई तस्वीर गाती रही रात-भर
फिर सबा साय-ए-शाख़े-गुल के तले
कोई क़िस्सा सुनाती रही रात-भर
जो न आया उसे कोई ज़ंजीरे-दर
हर सदा पर बुलाती रही रात-भर
एक उमीद से दिल बहलता रहा
इक तमन्ना सताती रही रात-भर
-फैज अहमद "फैज"
-फैज अहमद "फैज"
------------------
udaipur, rajasthan, India
देश-वेश और परिवेश पर अपनी पारखी नजर रखने वाली
देखिए इनकी पहली पोस्ट!
SUNDAY, JANUARY 4, 2009
सोने का पिंजर
सोने का पिंजर – अमेरिका और मैं
अजित गुप्ता
अपनी बात
अपनी बात
आठवें विश्व हिन्दी सम्मेलन में भाग लेने का सुअवसर प्राप्त हुआ। अमेरिका को देखने से अधिक उसे समझने की चाह थी। मेरे घर से, मेरे परिवार से, मेरे आस-पड़ोस से, मेरे इष्ट-मित्रों के बच्चे वहाँ रह रहे थे। उनकी अमेरिका के प्रति ललक और भारत के प्रति दुराव देखकर मन में एक पीड़ा होती थी और एक जिज्ञासा का भाव भी जागृत होता था कि आखिर ऐसा क्या है अमेरिका में? क्यों बच्चे उसे दिखाना चाहते हैं? क्यों वे अपना जीवन भारत के जीवन से श्रेष्ठ मान रहे हैं? ऐसा क्या कारण है जिसके कारण वे सब कुछ भूल गए हैं! उनका माँ के प्रति प्रेम का झरना किसने सुखा दिया? वे कैसे अपना कर्तव्य भूल गए?
ऐसा क्या है अमेरिका में जो प्रत्येक माता-पिता अपने बच्चों को वहीं पढ़ाना चाहते हैं? एक बार हमारे एक मित्र घर आए, उनका बेटा अमेरिका में पढ़ने जा रहा था, वे कितना खुश थे। मेरा बेटा भी वहीं पढ़ रहा था लेकिन मैं तो कृष्ण की भूमि की हूँ और बिना आसक्ति के कर्म करने में विश्वास रखती हूँ। बेटे ने कहा कि मैं आगे पढ़ना चाहता हूँ तो हमने कहा कि जरूर पढ़ो। जितना पढ़ोंगे उतने ही प्रबुद्ध बनोगे। तब न तो गर्व था कि बेटा अमेरिका जा रहा है और न ही दुख। लेकिन जब मैंने हमारे मित्र की आसक्ति देखी तब मैं पहली बार आश्चर्य चकित रह गयी। इतना मोह अमेरिका से? आखिर किसलिए? लेकिन उनका मोह था, उन्हें गर्व हो रहा था। मेरे ऐसे और भी मित्र हैं जिन्होंने अपने बच्चे की जिद को सर्वोपरि मानते हुए लाखों रूपयों का बैंक से कर्ज लिया और आज वे दुखी हैं। घर नीलाम होने की नौबत आ गयी है।
मैंने ऐसी कई बूढ़ी आँखें भी देखी हैं जो लगातार इंतजार करती रहती हैं, बस इंतजार। मैंने ऐसा बुढ़ापा भी देखा है जो छः माह अमेरिका और छः माह भारत में रहने को मजबूर हैं। वे अपना दर्द किसी को नहीं बताते, केवल एक भ्रम उन सभी ने भारत में निर्मित किया है। लेकिन सत्य सात तालों से भी निकलकर बाहर आ ही जाता है। बातों ही बातों में माँ बता ही देती है कि बहुत ही कष्टकारी जीवन है वहाँ का। कितने ही आश्चर्य निकलकर बाहर आते रहे हैं उनकी बातों से। शुरू-शुरू में तो लगता था कि एकाध का अनुभव है लेकिन जब देखा और जाना तो सबकुछ सत्य नजर आया। अनुभव सभी के एक से थे। सारे ही भारतीय परिवारों की एक ही व्यथा और एक ही अनुभव।
भारतीय भोजन दुनिया में निराला है। हमारे यहाँ की सभ्यता हजारों वर्ष पुरानी है। हमारी अपनी एक संस्कृति है। लेकिन अमेरिका का भोजन भारत से एकदम अलग है। उनकी सभ्यता अभी दो सौ वर्ष पुरानी है। उनके पास संस्कृति के नाम पर प्रकृति है। भारतीय माँ वहाँ जाती है, देखती है कि रोटी नहीं है। बेटा भी उसके हाथ की बनायी रोटी पर टूट पड़ता है और कहता है कि माँ कुछ परांठे बनाकर रख जाओ।
अरे कितने बनाकर रख जाऊँ? माँ आश्चर्य से पूछती है।
तुम जितने बना सको। मेरे पास तो यह फ्रिज है, इसमें दो-तीन महिने भी खाना खराब नहीं होता।
बेचारी माँ जुट जाती है, पराठें बनाने में। दो सो, ढाई सौ, जितने भी बन सकते हैं बनाती है।
ऐसे जीवन की कल्पना भारत में नहीं है। सभी कुछ ताजा और गर्म चाहिए। सुबह का शाम भी हम नहीं खाते।
ऐसे ही ढेर सारे प्रश्न और जिज्ञासाएं मेरे मन में थी। उन सारे ही भ्रमों को मैं तोड़ना चाहती थी। लेकिन मुझे आश्चर्य तब हुआ कि सारे ही मेरे भ्रम सत्य में बदल गए और मेरी लेखनी स्वतः ही लिखती चले गयी। मैंने राजस्थान साहित्य अकादमी की मासिक पत्रिका मधुमती में चार किश्तों में अपने अनुभव लिखे। लोगों के पत्र आने लगे। सभी का आग्रह इतना बलवती था कि मुझे पुस्तक लिखने पर मजबूर कर दिया। मेरे वे अनुभव भारत की अनेक पत्रिकाओं में भी प्रकाशित हुए। मुझे किसी ने भी नहीं कहा कि तुमने यह गलत लिखा है। मैं किसी भी देश की निन्दा नहीं करना चाहती। लेकिन मैं अपने देश का गौरव भी बनाए रखना चाहती हूँ।
मैं उस हीन-भावना से भारतीयों को उबारना चाहती हूँ, जो हीन-भावना उनके बच्चों के कारण उनके मन में घर कर गयी है। अमेरिका निःसंदेह सुंदर और विकसित देश है। वह हमारे लिए प्रेरणा तो बन सकता है लेकिन हमारा घर नहीं। हम भी हमारे देश को ऐसे ही विकसित करें। हम सब मिलकर हमारे भारत को पुनः पुण्य भूमि बनाए। अमेरिका ने स्वतंत्रता की जो परिभाषा दी है हम भी उसे माने और कहें कि हम भी हमारा उत्तरदायित्व पूर्ण करके ही अपनी स्वतंत्रता को प्राप्त करेंगे। हमारी पीढ़ी यह स्वीकार करे कि जब तक हम अपना उत्तरदायित्व अपने देश के प्रति, अपने समाज के प्रति और अपने परिवार के प्रति पूर्ण नहीं कर लेते तब तक हम परतंत्र मानसिकता के साथ ही समझोता करते रहेंगे, अतः हमें अपने सुखों के साथ अपने कर्तव्यों को भी पूर्ण करना है।
मुझे विश्वास है कि बहुत ही शीघ्र भारत विकास के सर्वोच्च मापदण्डों को पूर्ण करेगा। इसकी झलक दिल्ली सहित कई महानगरों में देखने को मिल भी रही है। भारतीय अमेरिका से लौट भी रहे हैं। वे अपने देश का निर्माण करने के लिए आगे भी आ रहे हैं। मुझे विश्वास है कि जिस दिन सभी भारतीय अपने देश को एक सुसंस्कृत देश बना देंगे तब अप्रवासी भारतीय भी पुनः भारत में अपनी भारतीय संस्कृति को स्थापित करने में अपनी भूमिका का निर्वहन करेंगे। क्योंकि आज उनके पास ही हमारी संस्कृति पोषित हो रही है। हम तो इसे नष्ट करने पर उतारू हो गए हैं।
मुझे प्रसन्नता है कि मैं मेरे पाठकों की ईच्छा को मूर्त रूप देने में सफल हुई हूँ। अब आपको निर्णय करना है कि क्या वास्तव में मैं आपके दिलों में अपनी जगह बना पायी? क्या मैं अपने देश के साथ न्याय कर पायी?
यहाँ मैं उन पत्रों का उल्लेख करने लगूँ तो यह काफी लम्बी सूची होगी। मैं उन सभी पाठकों को धन्यवाद देना चाहती हूँ जिन्होंने मुझे प्रेम दिया और आशीर्वाद दिया। मैं उन सभी पत्रिकाओं का भी धन्यवाद देना चाहती हूँ जिन्होंने मेरे निबन्धों को धारावाहिक रूप से प्रकाशित कर मुझे पुस्तक लिखने के लिए प्रेरित किया।
अन्त में मैं धन्यवाद उन नौजवानों को देना चाहती हूँ, जिन्होंने मुझे अमेरिका को और वहाँ बसे भारतीयों की मानसिकता को समझने में सहयोग किया। यह पुस्तक मेरे पौत्र ‘चुन्नू’ के उस असीम प्रेम का उपहार है जिसने मुझे अमेरिका जाने पर मजबूर किया।
अतः उसे ही उपहार स्वरूप भेंट।
अतः उसे ही उपहार स्वरूप भेंट।
और यह रही इनकी अद्यतन पोस्ट
SUNDAY, APRIL 24, 2011
बिटिया के बिना मन सूना जैसे मन की ईमेल को स्पेम में डाल दिया हो – अजित गुप्ता
फोन की घण्टी बज उठी, जैसे ही मैने हैलो बोलकर कहा कि हाँ बोलो बेटा, कैसी हो? उसी क्षण दो आँखों ने मेरा पीछा किया, दो कानों ने मेरी बातों पर अपना मन गड़ा दिया। मैं अपनी बेटी से बात कर रही थी और एक चेहरा मुझे निहार रहा था। मन में उथल-पुथल थी शायद। मेरे फोन बन्द करते ही मेरी मित्र ने पूछा कि बिटिया से बात कर रही थीं ना? हाँ, मैंने सहजता से कहा। उनका अगला प्रश्न चौंकाने वाला था। पूछ रही थीं कि आप बिटिया से मन की सारी ही बाते कर लेती होंगी? मैं उनके चेहरे को देख रही थी। बिटिया से तो मन की बाते होती ही हैं, आज ऐसा प्रश्न क्यों? उनकी भाव-भंगिमा देखकर लग रहा था जैसे किसी डायबिटीज के रोगी के सामने मिठाई रखी हो और वह उसे खा नहीं सके, बस मायूसी से उस मिठाई को देखता ही रहे। या यूँ कहूँ कि आप किसी को मेल करना चाहे और वह आपकी मेल को स्पेम में डाल ले। वे अपने आप से ही बातें करने लगी, कह रही थी कि बेटी से बात करना कितना सुखद होता है! मन की सारी बाते हो जाती है। मिसेज सिन्हा को भी रोज देखती हूँ, कई घण्टे वे बेटियों से बातें करती हैं। कितना खुश लगती हैं। मेरी देवरानी भी कितनी खुश रहती है, वो भी रोज ही अपनी बेटी से बातें करती हैं।
एक माँ जिसके बेटे तो हैं, बहुएं भी हैं लेकिन बेटी नहीं है, उसका दुख आज छलक पड़ा था। दुख का यह पैमाना मेरे लिए अन्जाना था। अपने मन की बात किसी से ना कर सकें तो मन में घुटन होती है लेकिन बेटी से इस घुटन का रिश्ता है यह कभी सोचा ही नहीं था। घर में कोई छोटी-मोटी बात हो, बेटे ने कुछ कह दिया हो, या बहु की बात समझ नहीं आ रही हो तो एक सहारा बेटी ही तो है, जिसे अपने मन की बात कहकर हल्का हुआ जा सकता है। लेकिन जिसके बेटी नहीं हैं वह क्या करे? आज मुझे मेरी मित्र की आँखों में अनायास ही उस पीड़ा के दर्शन हो गये। अपने में मस्त, साधन-सुविधाओं से सम्पन्न, लेकिन बेटी नहीं। बेटी ना होने का दर्द इस प्रकार प्रकट होगा, मुझे कल्पना नहीं थी। लोग तो बेटे की माँ से ईर्ष्या करते हैं, यहाँ आज बेटी की माँ से ईर्ष्या हो गयी। एक ठण्डी आह के साथ निकल आया दिल का दर्द कि काश मेरे भी बेटी होती!
कहावत है कि बेटी माँ का दर्द जानती है, उसे बाँटती भी है। इसके विपरीत बहुत कम बेटे होते हैं जो माँ के दर्द को समझते हैं या साझीदार बनते हैं। उनके पास शायद समय भी नहीं होता कि वे माँ की पूरी रामायण सुन लें। अभी रिश्तेदारी में एक विवाह सम्पन्न हुआ, बेटे से बात हुई तो बोला कि कैसी रही शादी? कुछ एकाध प्रश्न पूछकर बात समाप्त हो गयी। मैंने अपनी तरफ से ही कई बाते बताई लेकिन उसने प्रश्न दर प्रश्न नहीं किए। इसके विपरीत बेटी ने आगे होकर पूछा कि क्या-क्या हुआ शादी में? जहाँ-जहाँ भी बातों के चटखारों की उम्मीद थी, उन सभी बातों के लिए भी पूछा। बेटे को मैं बता रही थी और बेटी मुझसे पूछ रही थी, बस इतना ही अन्तर था। आस-पड़ोस की रोज-मर्रा की बातों से बेटी वाकिफ होना चाहती है, बेटा बेपरवाह सा सुन लेता है लेकिन उन बातों में रमता नहीं है। बस यही अन्तर है, बेटा और बेटी में। आप शायद इस बात का प्रतिवाद करें लेकिन यह तो सच है कि मन तक बेटियां ही पहुंचती हैं। मेरी मित्र की आँखों में मुझे जो दर्द दिखायी दिया, उस कारण मेरा भी नजरियां बदल गया है। अब मुझे बेटे वाली माँएं बेबस सी दिखायी देने लगी हैं। कहाँ जाएं अपने मन का दर्द बाँटने? एक उम्र आती है जब बेटा बड़ा हो जाता है और वह माँ का पल्लू छोड़कर अन्य जगह अपनी खुशियां तलाशता है। उस समय माँ एकदम अकेली हो जाती है और तब उसे अपने मन को बाँटने के लिए एक बिटिया की आवश्यकता होती है। बहु भी आपकी बेटी बन सकती है, लेकिन आप कितना भी प्रयास कर लें आपके मन की गहराइयों तक उसकी पहुंच नहीं हो सकती। मेरी मित्र का कहना था कि एक डर सा बना रहता है कि किस बात का क्या अर्थ निकाल लिया जाएगा लेकिन बिटिया के सामने यह डर नहीं होता। चाहे आप बेटी से कितना ही लड़ ले लेकिन यह आश्वासन हमेशा रहता है कि गलत अर्थ नहीं निकाला जाएगा। इस बारे में अनेक विचार हो सकते हैं, लेकिन मैने जो अनुभव किया, पूरी ईमानदारी के साथ आपसे सांझा किया। प्रभु का आभार भी माना कि मुझे एक बिटिया दी हैं, जिससे रोज एक घण्टा बात करके अपने मन को हल्का कर लेती हूँ, हँस लेती हूँ। इसलिए यदि आपके बेटी नहीं है तो मानिए आपके जीवन में आनन्द की वर्षा शायद कम हो और आप भी किसी माँ को बेटी से बात करते देख एक हूक सी अपने मन के अन्दर महसूस करते हों। आप इस बारे में क्या सोचते हैं? मन की गहराइयों तक बेटी की पहुंच होती है या बेटे की भी होती है?
------------------
अब मैं आपका परिचित कराता हूँ
रांची, झारखंड की
वीना जी से
ये अपने बारे में लिखतीं हैं-
कविता, संगीत और फोटोग्राफी मेरा शौक है। इनका ब्लॉग भी इनके नाम पर ही है!
रांची, झारखंड की
ये अपने बारे में लिखतीं हैं-
वीणा के सुर
कुछ अनुभव, कुछ अहसास, कुछ शब्द, कुछ चित्र
देखिए इनके ब्लॉग की पहली पोस्ट
सोमवार, १७ सितम्बर २००७
पड़ाव
जीवन की दौड़
न जाने
कब, कैसे, कहां खत्म हो
किसी को नहीं पता
हम...भागीदार बन गए हैं
इस...दौड़ के
जबसे चले हैं
बस चलते ही जा रहे हैं
पड़ाव की
आकांक्षा में
कठिनाइयों से जूझते
तूफानी राहों में भी
मन की ज्योति
प्रज्वलित किए
निरंतर...चल रहे हैं
न जाने कब तक
चलते रहेंगे...यूं ही
संभवतया
कभी पड़ाव मिल जाए
पर क्या...
वो दौड़ खत्म हो जाएगी
नहीं...
दौड़ गतिमय रहेगी
भागीदार बदल जाएंगे
क्योंकि
चलना ही है
जीवन का दूसरा नाम
ठहरना...अर्थ
दौड़ का अंत
अर्थ...
जीवन का अंत
और यह रही इनकी अद्यतन पोस्ट!
बृहस्पतिवार, २१ अप्रैल २०११
अज्ञेय मन.........वीना
क्या भाता है
क्या नहीं भाता
मन सम्भवत: नहीं जानता
क्योंकि
जो भाता है
समय आने पर
वह नहीं भाता
भाने और न भाने के मध्य हैं
कुछ परिस्थितियां
जो आएंगी अवश्य
जिन्हें आना ही है
देश,काल,वातावरण की
शरीर की, आत्मा की
जिन्हें हमें
सहना ही है
जो देंगी
नई दिशा
हमारे भाने को
यही कारण है
प्रकृति का भी नियम है
'परिवर्तन' का
'परिवर्तन'
हर स्तर पर
आवश्यक नहीं
प्रत्येक परिवर्तन
हमें स्वीकार ही हो
फिर भी हम
ढलते जाते हैं
परिवर्तन में
और प्रतीक्षा करते हैं
अगले परिवर्तन की
जो नहीं भाता
फिर भी उसमें जीते हुए
जो भाता है
उसकी प्रतीक्षा में
गुजारते हैं
बाकी जीवन
ये भी आवश्यक नहीं
प्रत्येक भाने की स्थिति
स्थिर हो
जीवन पर्यन्त हो
न भाने की स्थिति
बन जाती है
भाने की विवशता
कारण...
समय और परिस्थितियां
क्योंकि मानव दास है
स्वामी नहीं
समय का
स्वामी होता
तो...
अपना भाना अवश्य जानता
न भाने को
भाना स्वीकार न करता
क्या भाता है
क्या नहीं भाता
मन...
सम्भवत:
जानना ही नहीं चाहता
क्या नहीं भाता
मन सम्भवत: नहीं जानता
क्योंकि
जो भाता है
समय आने पर
वह नहीं भाता
भाने और न भाने के मध्य हैं
कुछ परिस्थितियां
जो आएंगी अवश्य
जिन्हें आना ही है
देश,काल,वातावरण की
शरीर की, आत्मा की
जिन्हें हमें
सहना ही है
जो देंगी
नई दिशा
हमारे भाने को
यही कारण है
प्रकृति का भी नियम है
'परिवर्तन' का
'परिवर्तन'
हर स्तर पर
आवश्यक नहीं
प्रत्येक परिवर्तन
हमें स्वीकार ही हो
फिर भी हम
ढलते जाते हैं
परिवर्तन में
और प्रतीक्षा करते हैं
अगले परिवर्तन की
जो नहीं भाता
फिर भी उसमें जीते हुए
जो भाता है
उसकी प्रतीक्षा में
गुजारते हैं
बाकी जीवन
ये भी आवश्यक नहीं
प्रत्येक भाने की स्थिति
स्थिर हो
जीवन पर्यन्त हो
न भाने की स्थिति
बन जाती है
भाने की विवशता
कारण...
समय और परिस्थितियां
क्योंकि मानव दास है
स्वामी नहीं
समय का
स्वामी होता
तो...
अपना भाना अवश्य जानता
न भाने को
भाना स्वीकार न करता
क्या भाता है
क्या नहीं भाता
मन...
सम्भवत:
जानना ही नहीं चाहता
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अब मैं आपको परिचित कराता हूँ बच्चों को समर्पित ब्लॉग
बच्चों की लोकप्रिय पत्रिका सरस पायस से
बच्चों की लोकप्रिय पत्रिका सरस पायस से
तितली बनकर उड़ना है, सबके मन में खिलना है!
इसके सम्पादक हैं!
राजकीय विद्यालय चारुबेटा, खटीमा, ऊधमसिंहनगर : उत्तराखंड में गणित अध्यापक के रूप में कार्यरत
रावेंद्रकुमार रवि
ये अपने बारे में लिखते हैं-
"प्रकृति से अलंकृत सौंदर्य का उपासक हूँ,
क्योंकि यह मुझे सच्चे सर्जन की प्रेरणा प्रदान करता है!"
इनके अन्य ब्लॉग हैं-
रवि मन और
हिंदी का शृंगार
इसके अतिरिक्त ये
नन्हा मन और
बाल-मंदिर पर भी साझा ब्लॉगर के रूप में विद्यमान हैं!
इसके सम्पादक हैं!
राजकीय विद्यालय चारुबेटा, खटीमा, ऊधमसिंहनगर : उत्तराखंड में गणित अध्यापक के रूप में कार्यरत
रावेंद्रकुमार रवि
ये अपने बारे में लिखते हैं-
"प्रकृति से अलंकृत सौंदर्य का उपासक हूँ,
क्योंकि यह मुझे सच्चे सर्जन की प्रेरणा प्रदान करता है!"
इनके अन्य ब्लॉग हैं-
रवि मन और
हिंदी का शृंगार
इसके अतिरिक्त ये
नन्हा मन और
बाल-मंदिर पर भी साझा ब्लॉगर के रूप में विद्यमान हैं!
सरस पायस पर यह रही इनकी प्रथम पोस्ट!
Saturday, November 14, 2009
आज से "सरस पायस" पूरी तरह से बच्चों का
आज से "सरस पायस" पूरी तरह
से बच्चों का है!
अब इस पर प्रकाशित होनेवाली समस्त सामग्री
बच्चों से ही संबंधित हुआ करेगी!
दुनिया के सभी बच्चों को सरस प्यार!
जिनके जन्म-दिन पर बाल-दिवस मनाया जाता है,
उनसे संबंधित एक कविता आप सबके लिए -
याद आपकी आती है
प्यारे-प्यारे नेहरू चाचा,
याद आपकी आती है !
दिल में खुशी हमारे भरकर
हम पर प्यार लुटाती है !!
हम पर प्यार लुटाती है !!
जन्म-दिवस हर वर्ष आपका
हँस-हँस खूब मनाते हम !
अपने आँगन में गुलाब की
सुंदर पौध लगाते हम !!
फुलवारी में हर गुलाब की
हँसी आपकी सुनते हम !
साथ आपके खेल-कूद के
सुंदर सपने बुनते हम !!
हँस लें चाहे कितना भी, पर
कमी आपकी खलती है !
मन के कोमल कोने में जो
बनकर दर्द सिसकती है !!
रावेंद्रकुमार रवि
और यह रही इनकी अद्यतन पोस्ट!
Saturday, April 23, 2011
मैं चाहूँ ख़ूब खेलना : रावेंद्रकुमार रवि का नया शिशुगीत
मैं चाहूँ ख़ूब खेलना
मैं गाऊँ एक तराना,
ख़ुशियों की बात बताना!
ख़ुशियों की बात बताना!
फूलों से बातें करती,
तितली के जैसे उड़ना!
मेरा मन है नन्हा-सा,
इसको मत कभी दुखाना!
मैं गाऊँ ... ... .
चिड़िया की तरह फुदकना!
इस फुदक रही चिड़िया के,
बच्चों की तरह किलकना!
मैं खेलूँ, फिर मुस्काऊँ,
मुझको मत कभी सताना!
मैं गाऊँ ... ... .
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रावेंद्रकुमार रवि
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(चित्र में हैं : विश्वबंधु)
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अब मैं आपको मिलवाता हूँ
आकांक्षा
Akanksha
आकांक्षा
Akanksha
की संचालिका उज्जैन (म.प्र.) निवासिनी श्रीमती आशा जी से!
ये अपने बारे में लिखतीं हैं-
मैंने साइंस विषयों के साथ बी.एस.सी.किया है ! उसके बाद अर्थशास्त्र तथा अंग्रेज़ी साहित्य में एम.ए.तथा बी.एड.किया है ! हायर सेकेंडरी स्कूल में लेक्चरर के पद पर मैंने कई वर्षों तक अध्यापन का कार्य किया है ! साहित्य के प्रति अभिरुचि एवं रुझान मुझे विरासत में मिले हैं ! अपने जीवन के आस पास बिखरी छोटी-छोटी घटनाएं, सामान्य से चरित्र तथा इनसे मिले अनुभव मेरे लिये बड़ी प्रेरणा बन जाते हैं जिन्हें मैं अपनी रचना के माध्यम से अभिव्यक्त करने का प्रयास करती हूँ !
देखिए इनकी प्रथम पोस्ट!
06 NOVEMBER, 2009
06 NOVEMBER, 2009
Don't worry about failure
Don't worry about failure
Don't show your vigor to others.
Be brave as your grand parents were.
Show your ability to others,
And face the world with eyes open.
Asha------------------
Be brave as your grand parents were.
Show your ability to others,
And face the world with eyes open.
Asha------------------
और यह रही इनकी अद्यतन पोस्ट!
25 APRIL, 2011
कहीं तो कमी है
परिवर्तन के इस युग में
जो कल था
आज नहीं है
आज है वह कल ना होगा |
यही सुना जाता है
होता साहित्य समाज का दर्पण
पर आज लिखी कृतियाँ
बीते कल की बात लगेंगी
क्यूँ कि आज भी बदलाव नजर आता है |
मनुष्य ही मनुष्य को भूल जाता है
संबंधों की गरिमा ,रिश्तों की उष्मा
गुम हो रही है
प्रेम प्रीत की भाषा बदल रही है |
समाज ने दिया क्या है
ना सोच निश्चित ना ही कोई आधार
कई समाज कई नियम
तब किस समाज की बात करें |
यदि एक समाज होता
और निश्चित सिद्धांत उसके
तब शायद कुछ हो पाता
कुछ सकारथ फल मिलते |
देश की एकता अखंडता
पर लंबी चौड़ी बहस
दीखता ऊपर से एक
पर यह अलगाव यह बिखराव
है जाने किसकी देन
वही समाज अब लगता
भटका हुआ दिशाहीन सा
वासुदेव कुटुम्बकम् की बात
लगती है कल्पना मात्र |
आशा
जो कल था
आज नहीं है
आज है वह कल ना होगा |
यही सुना जाता है
होता साहित्य समाज का दर्पण
पर आज लिखी कृतियाँ
बीते कल की बात लगेंगी
क्यूँ कि आज भी बदलाव नजर आता है |
मनुष्य ही मनुष्य को भूल जाता है
संबंधों की गरिमा ,रिश्तों की उष्मा
गुम हो रही है
प्रेम प्रीत की भाषा बदल रही है |
समाज ने दिया क्या है
ना सोच निश्चित ना ही कोई आधार
कई समाज कई नियम
तब किस समाज की बात करें |
यदि एक समाज होता
और निश्चित सिद्धांत उसके
तब शायद कुछ हो पाता
कुछ सकारथ फल मिलते |
देश की एकता अखंडता
पर लंबी चौड़ी बहस
दीखता ऊपर से एक
पर यह अलगाव यह बिखराव
है जाने किसकी देन
वही समाज अब लगता
भटका हुआ दिशाहीन सा
वासुदेव कुटुम्बकम् की बात
लगती है कल्पना मात्र |
आशा
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अब देखिए कुछ लिंक!
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अनुष्का
अनुष्का
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सत्येन्द्र झा “बड़े दु:ख की बात है। मेरे पड़ोसी ने अपनी पतनी को डायवोर्स दे दिया।”
“डायवोर्स…. मतलब?” “डायवोर्स मतलब तलाक….
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अब कुछ लिंक "पल-पल!हर पल" से!
Author: RAJEEV KUMAR KULSHRESTHA
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Author: Arvind Mishra
Source: Science Bloggers' Association
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Author: सूर्य गोयल
Source: समाचार:- एक पहलु यह भी
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Author: Ashok Pande
Source: कबाड़खाना
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Author: udaya veer singh
Source: उन्नयन (UNNAYANA)
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Author: मनोज कुमार
Source: विचार
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Author: Maahi
Source: माही....
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Author: Dwarka Baheti 'Dwarkesh'
Source: *साहित्य प्रेमी संघ*
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कैसे कह दूँ
Author: KESAR KYARI........usha rathore...
Source: ज्ञान दर्पण
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आज की चर्चा को यहीं पर विराम देता हूँ!
अगले बुधवार को फिर मिलूँगा!
अच्छा सजा चर्चा मंच |मेरी कविता शामिल करने के लिए आभार |कुछ लिंक देखे हैं |बाकी दोपहर के लिए |अच्छी लिंक्स के लिए आभार
जवाब देंहटाएंआशा
विस्तृत और सुन्दर चर्चा ...अनुष्का को अपना स्नेहाशीष प्रदान करने के लिए ह्रदय से धन्यवाद .
जवाब देंहटाएंअच्छा चर्चा मंच आशा
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर और सार्थक चर्चा……………शानदार लिंक्स के लिये आभार्।
जवाब देंहटाएंbahut achchi lagi aaj ki chrcha -mnch
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर और विस्तृत चर्चा.....
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