मित्रों।
शनिवार की चर्चा में आपका स्वागत है।
देखिए मेरे द्वारा चयनित कुछ लिंक।
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एक गीतिका
ग़ज़ल
दे गई दर्द जब हर दवा क्या कहें
हो गया वक्त ही बेवफ़ा क्या कहें...
Mera avyakta राम किशोर उपाध्याय
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मेरा दिल मुझसे बदगुमां लेकिन
मेरा दिल मुझसे बदगुमां लेकिन,
है ये कातिल पर रहनुमां लेकिन...
Harash Mahajan
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तेरे साये में ज़िंदगी
ये बारिश ये बेइम्तिहां बारिश
जुदाई की गहरी रात
और ये तन्हाई है
महज़ मेरी धड़कनों का शोर ...
Lekhika 'Pari M Shlok'
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वक्त बचा है कम,
कुछ बोल लेना चाहिए
अतियथार्थ की स्थितियों का प्रकटीकरण व्यवस्थागत कमजोरियों का नतीजा होता है, कला, साहित्य के सृजन ही नहीं उसके पुर्नप्रकाशन की स्थितियों में भी इसे आसानी से समझा जा सकता है। हिन्दी साहित्य में कविता कहानियों ही भरमार में हैं यह यथार्थ ही नहीं बल्कि अतियथार्थ है। देख सकते हैं कि व्यवस्थागत सीमाओं के बावजूद मात्र कविता और कहानी के दम पर साहित्य की पत्रिकाएं निकालना आसान है। इतर लेखन पर केन्द्रीत होकर काम करने के लिए पत्रिकाओं को अपनी व्यवस्थागत सीमाएं नजर आ सकती हैं, या आती ही हैं। इसलिए कविता कहानी वाले अतियथार्थ के साथ समझोता करते हुए ही उनका चलन जारी रहता है, बल्कि बढ़ता है...
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यूँ तो नहीं बदलते देखा था
कभी समुन्दरों का रंग
आह ! ये क्या हुआ
ये रक्त मेरा पीला कैसे पड़ गया
उफ़ ! अरे ये तो तुम्हारा भी सफ़ेद हो गया
कौन सा विकार घर कर गया
जो लहू दोनों का रंग बदल गया ..
vandana gupta
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कुछ तो बात हुई है
*चौराहे पर भीड़ लगी है ,*
कुछ ना कुछ तो बात हुई है .*
कैसे ये खिड़कियाँ खुली हैं ,*
कुछ ना कुछ तो बात हुई है...
गिरिजा कुलश्रेष्ठ
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इबारत पढना कभी मेरे दिल की
मुचड़े कागज पर लिखी इबारते कभी पढ़ी हैं क्या किसी ने ? आंसुओ से सरोबार हर लफ्ज़ होता हैं सीली सी महक अन्दर तक भिगो देती हैं साफ कागज पर लिखे शब्द अक्सर छुपा लेते हैं अपने भीगे अहसास झूठ और कृत्रिम लबादा पहन कर आज मेरे चारो तरफ बिखरे हैं मुचड़े कागज आप पढ़िए न सफ़ेद कोरे कागज पर लिखे मेरे कुछ लफ्ज़ ....
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किसी समय को जानने के कई तरीके हैं
उनमें से एक यह है कि आप जानें
कि कौन सो रहा है
और जाग कौन रहा है?...
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ग़ज़ल "जी रहा अब भी हमारे गाँव में"
बहरे रमल मुसम्मन सालिम
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन
2122 2122 2122 2122
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन
2122 2122 2122 2122
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इक पुराना पेड़ है अब भी है हमारे गाँव में।
चाक-ए-दामन सी रहा अब भी हमारे गाँव में।।
सभ्यता के ज़लज़लों से लड़ रहा है रात-दिन,
रंज-ओ-ग़म को पी रहा अब भी हमारे गाँव में...
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