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सोमवार, जुलाई 13, 2015

प्यार छिपाये फिरता हूँ-"न दैन्यं न पलायनम्" (चर्चा अंक-2035)

मित्रों।
सोमवार की चर्चा में  आपका स्वागत है।
आज की चर्चा में 


प्यार छिपाये फिरता हूँ
का पोस्टमार्टम करता हूँ।
"छिपी किसी के मन में कितनी गहराईमैं क्या जानूँ?
आतुर कितनी बहने को, हृद-पुरवाई, मैं क्या जानूँ?"
मन ऐसा सागर है जिसकी गहराई को आजतक कोई नहीं भाँप पाया है।
कवि ने इस रचना में सुन्दर अन्दाज़ में मन की तरंगों को दर्शाया है।
यदि आप गम्भीरता के साथ इस रचना को आत्मसात् करेंगे तो
पायेंगे कि मन कैसा पंछी है?
कैसे जानूँ, लहर प्रेम की वेग नहीं खोने वाली,
कैसे जानूँ, प्रात जगी जो आस नहीं सोने वाली।
मन के साथ-साथ कवि ने अपनी कविता के माध्यम से 
जन-जीवन में आशा का संचार भी किया है।
धूपछाँव में बह जाता दिनआ जाती है रात बड़ी,
बढ़ता रहताखुशी न जाने किन मोड़ों पर मिले खड़ी। 
कवि ने अपनी रचना के अन्त में
मन की भावना को समष्टि से जोड़ते हुए लिखा है-
एक अनिश्चित बादल सा आकार बनाये फिरता हूँ,
सकल विश्व पर बरसा दूँवह प्यार छिपाये फिरता हूँ।
मुझे आशा ही नहीं अपितु पूरा विश्वास भी है कि
भाई  जी की लेखनी से ऐसी कालजयी रचनाएँ 
सदैव निस्सरित होती रहेंगी।
--
आज के लिए इतना ही।
कल फिर किसी अन्य ब्लॉग की
किसी पोस्ट का पोस्टमार्टम 
अपनी चर्चा में प्रस्तुत करूँगा।

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