मित्रों।
बुधवार की चर्चा में आपका स्वागत है।
आज की चर्चा में प्रस्तुत है
निम्न का पोस्टमार्टम-
इस गीत में
कवि
अनिल कुमार सिंह ने प्रणयपथ पर होने वाली कठिनाइयों पर
बहुत सुन्दर और सरल शब्दों में प्रकाश डालते हुए कहा है-
"हे प्रेम पथिक चल जरा संभल
तेरी राह में हैं हर पल नव छल
स्वार्थ लोभ से छिद्र छिद्र है
व्याकुल प्रेम पटल कोमल ...."
छन्दबद्ध हिन्दी कविता के संक्रमणकाल में यदि कोई नवोदित
छन्दबद्ध रचना करता है तो कितना अच्छा लगता है।
प्रस्तुत गीत के दूसरे छन्द में कवि
अनिल कुमार सिंह
समाज में फैली कुरीतियों के कारण जो क्षति हो रही है,
उसको अपने शब्दों में बाँधते हुए लिखते हैं-
"जाति धर्म और ऊंच नीच सब
आँधी पतझड़ ज्वालामुखी से ,
वेग ताप और दाब असहनीय
कोमल किसलय जाते हैं जल
हे प्रेम पथिक चल जरा संभल ...."
आलोच्य गीत के तीसरे छन्द में कवि ने वर्तमान के चित्र को
अपने शब्द निम्न प्रकार से दिये हैं-
"बातों का भ्रमजाल मनोहर
संग जीने मरने की कसमें
प्रेम तन्तु से अधर लटकते
नीचे आग उगलते दलदल
हे प्रेम पथिक चल जरा संभल ..."
और अन्तम छन्द में प्रेम की सत्ता को
स्वीकार करते हुए लिखा है-
"व्यर्थ नहीं ये प्रेम शब्द पर
चौकस रहना इसके पथ पर
जीवन अमृत का यह सागर
नव कोपल सा नाज़ुक निर्मल
हे प्रेम पथिक चल जरा संभल
तेरी राह में हैं हर पल नव छल ...."
--
नवोदित रचनाधर्मियों को छन्दबद्ध रचनाओं का पथ दिखाने वाले
कवि अनिल कुमार सिंह को मैं हार्दिक शुभकामनाएँ प्रेषित करता हूँ।
साथ ही आशा करता हूँ कि "चरैवेति" के सिद्धान्त को अपनाते हुए
उनकी लेखनी से सुन्दर गीत सतत् निस्सरित होते रहेंगे।
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