मित्रों।
शनिवार की चर्चा में आप सबका स्वागत है।
देखिए मेरी पसन्द के कुछ लिंक।
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दोहागीत
"गुरूपूर्णिमा पर गुरूदेव का ध्यान"
यज्ञ-हवन करके करो, गुरूदेव का ध्यान।
जग में मिलता है नहीं, बिना गुरू के ज्ञान।।
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भूल गया है आदमी, ऋषियों के सन्देश।
अचरज से हैं देखते, ब्रह्मा-विष्णु-महेश।
गुरू-शिष्य में हो सदा, श्रद्धा-प्यार अपार।
गुरू पूर्णिमा पर्व को, करो आज साकार।
गुरु की महिमा का करूँ, कैसे आज बखान
जग में मिलता है नहीं, बिना गुरू के ज्ञान...
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मन की वीणा
मन की वीणा विकल हो रही है
तुम्हारे दरस की ललक हो रही है
जाएँ तो जाएँ कहाँ गुरुवर
ज्ञान का दीप जलाएं कहाँ...
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झुलस रहा है देश
मेरे देश के नेताओं की तथाकथित धर्मनिरपेक्षता, अहिंसा के नाम पर किसी भी हद तक जाकर आतंक और आतंकवाद का समर्थन कर स्वयं को उदारवादी या अहिंसक कहना, मार्क्सवाद की कुछ घटिया और बक़वास किताबें पढ़ कर ईश्वर को झूठ और देश को कुरुक्षेत्र समझने की परम्परा ने देश को सबसे अधिक नुकसान पहुँचाया है। धर्मनिरपेक्षता तो मेरे समझ में आज तक नहीं आयी...
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अनजाना फासीवाद
लोकतंत्र का मतलब इतना ही नहीं कि किसी भी संस्था के हर फैसले को किसी भी कीमत पर उचित ही मान लिया जाए। वैधानिक ढांचे के कायदे से चलती संस्थाओं की कार्यशैली और निर्णय भी। उन पर स्वतंत्र राय न रख पाने की स्थितियां पैदा कर देना तो नागरिक दायरे को तंग कर देना है। स्वतंत्र राय तो जरूरी नागरिक कर्तव्य है, जो वास्तविक लोकतंत्र के फलक को विस्तार देती है। सहमति और असहमति की आवाज को समान जगह और समान अFkksZa में परिभाषित करने से ही लोकतंत्र का वास्तविक चेहरा आकार ले सकता है। ऐसे लोगों का सम्मान किया जाना चाहिए जो बिना धैर्य खोये भी असहमति के स्वर को सुनने का शऊर रखते हैं...
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मेरी भारतीय रुह
मेरी भारतीय रुह भी आहत होती है ऊधम सिंह की रुह की तरह जब देखती हैं मानव संहार कहीं भी भारत से दूर मदन लाल ढींगरा या ऊधम सिंह की फांसी की खबर सुनकर वो भी बहुत रोई थी अपने वतन में अपनों के साथ। भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की फांसी से भारत मां के साथ मेरी रुह भी आहत है आज तक आज तक मेरी रुह फांसी को केवल निर्मम हत्या मानती थी क्योंकि ये सब निर्दोष थे फांसी केवल निर्दोषों को मिला करती थी। पर आज जब अफजल, कसाब या मेमन को फांसी दी गयी मेरी आत्मा आहत नहीं हुई...
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वो अदम्य साहस का देवता
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याद बन के वो जब उठता है
कितनी बारिश ये सावन ले गुज़री
प्यास दिल का मगर न बुझता है...
Lekhika 'Pari M Shlok'
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माँ की महिमा
माँ कितनी महान होती है
उसके चरणों में जन्नत होती है
माँ की महिमा का क्या करुँ शब्दों में
वो तो सारे बरम्हांड की माँ होती है,
देवता भी जिन्हे पूजते नहीं थकते
ऐसी माँ हम सबकी पहचान होती है...
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मैं"धर्मान्तरण"नहीं करना चाहता
बल्कि धर्मों में आ चुके"अन्तर"को पाटने हेतु
"रण" करना चाहता हूँ !
पीताम्बर दत्त शर्मा (लेखक-विह्लेषक)
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नागपंचमी आई। साठे के जिन्दादिल नौजवानों ने रंग-बिरंगे जांघिये बनवाये। अखाड़े में ढोल की मर्दाना सदायें गूँजने लगीं। आसपास के पहलवान इकट्ठे हुए और अखाड़े पर तम्बोलियों ने अपनी दुकानें सजायीं क्योंकि आज कुश्ती और दोस्ताना मुकाबले का दिन है। औरतों ने गोबर से अपने आँगन लीपे और गाती-बजाती कटोरों में दूध-चावल लिए नाग पूजने चलीं। साठे और पाठे दो लगे हुए मौजे थे। दोनों गंगा के किनारे। खेती में ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ती थी इसीलिए आपस में फौजदारियाँ खूब होती थीं। आदिकाल से उनके बीच होड़ चली आती थी। साठेवालों को यह घमण्ड था कि उन्होंने पाठेवालों को कभी सिर न उठाने दिया...
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पर उपदेश कुशल बहुतेरे
जीवन में बहुत से जन
ऐसे भी मिल जायेगे
भूले से गर कुछ पूछो उनसे
प्रवचन देंगे वह अनेक
भीतर से कायर बुज़दिल
देंगे भाषण वीरता का
कंजूस मक्खीचूस भी बन जाता
बातों में दानवीर कर्ण...
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