आज की चर्चा में आपका हार्दिक स्वागत है।
सही अर्थों में बेटी समाज की धरोहर होती है और समाज व देश को बचाने के लिए बेटियों की रक्षा करना जरुरी है। यह तभी संभव हो सकेगा, जब बेटियों के प्रति समाज का नजरिया बदलेगा तथा भ्रूणहत्या और दहेज प्रथा जैसी सामाजिक बुराइयों को जड़ से खत्म किया जाएगा।सरकार ने बेटी-बचाओ, बेटी पढ़ाओ अभियान चलाकर बेटियों को सुरक्षा देने का रास्ता खोल दिया है और अब समाज को को भी बेटी बचाने का संकल्प लेकर आगे बढ़ना चाहिये।
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(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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जिन्दगी चल रही चिमनियों की तरह।
बेटियाँ पल रही कैदियों की तरह।।
लाडलों के लिए पूरे घर-बार हैं,
लाडली के लिए संकुचित द्वार हैं,
भाग्य इनको मिला कंघियों की तरह।
बेटियाँ पल रही कैदियों की तरह।।
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रेखा श्रीवास्तव
लोगों के इस व्यवहार से लगा मानो हमने कोई गुनाह किया है। अरे हमारी तो पहली संतान थी और लोग क्यों मातम मना रहे थे? कुछ दिनों बाद सब शान्ति रही। अब जिठानी जी को नसीहतें मिलनी शुरू हो गयीं।
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अर्चना चावजी
आँख खुलते ही बारिश की टिप-टिप सुनाई दे रही है कभी तेज कभी धीमी ..पिछले दिनों दो छुट्टी बारिश की वजह से हो गई थी ..मैंने चाय बना ली है बार -बार ध्यान फोन पर जा रहा है कहीं आज भी छूट्टी की खबर न आ जाए .... हमेशा तो खुशी हो जाती है लेकिन आज मन कह रहा है छुट्टी न हो ... कारण ....?
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मधुरेश
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"तम-प्रकाश से पूछता रहा मैं-
कौन हूँ मैं, कहो कौन हूँ मैं ?
सब कुछ में कुछ भी नहीं मैं,
कुछ-कुछ में भी सब कुछ ही मैं!"
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शालिनी कौशिक
हिन्दू धर्मावलम्बी के लिए हर वर्ष कांवड़ यात्रा एक ऐसा धार्मिक समारोह है जिसे लेकर हर उम्र का हिन्दू धर्मावलम्बी उल्लास व् भक्ति से परिपूर्ण रहता है और पुलिस प्रशासन के लिए यह समय बहुत अधिक मुस्तैदी से कार्य करने का होता है क्योंकि
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राजीव उपाध्याय
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रजनी मल्होत्रा (नैय्यर) जी के कुछ लम्हें जो लफ्जों में ढलकर सामने से गुजर जाते हैं और कह जाते हैं कुछ ऐसी बातें तो ठहरकर सोचने को मजबूर कर देते हैं तो वहीं कभी मन के उस कोने को भी छूकर गुजर जाते हैं जहाँ हम अक्सर नहीं ही जाते हैं। जब वो कहती हैं 'बनाकर बूत मुझे छोड़कर बुतख़ाने में, आ गए वो रस्में निभाने ज़माने से।
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सुशील कुमार जोशी
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कई बार सुनी
हर बार समझने
की कोशिश की
उसकी धुन को
मै बनता हूँ
नायिका
हर अफ़साने में तुम्हे
समेट
लेना चाहता हूँ
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डॉ. अपर्णा त्रिपाठी
स्त्री और पुरुष- समाज की दो इकाई, जिनसे मिलकर बनता है समाज। समाज की कल्पना के साथ ही आते है कुछ नियम, कुछ कानून, जो आवश्यक होते है समाज को सुचरु रुप से चलाने के लिये । जिस तरह से एक घर की पूर्णता तभी सम्भव है जब उसमें स्त्री और पुरुष दोनो की ही सहभागिता हो
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अनीता जी
प्रारब्ध वश सुख-दुःख तो हमें मिलने ही वाले हैं, सुख आने पर यदि अभिमान आ गया तो नया कर्म बना लिया जिसका फल भविष्य में दुःख रूप में आएगा, दुःख आने पर यदि दुखी हो गये तो भी नया बीज डाल दिया जिसका परिणाम दुख आने ही वाला है. साधक को चाहिए कि दोनों ही स्थितियों में सम रहे,
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सुषमा आहुति
मुझे उच्चाइयां आसमानों,
की मिले न मिले..
तुम्हारी आखो में...
उतरना चाहती हूँ मैं..
मुझे बहारे मिले ना मिले,
बन के खुशबू...
सुनीता अग्रवाल
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चलो आज पुरानी धूल भरी गलियों में*
*बचपन की पीठ पर धौल एक जमाये*
*अम्मा के पल्लू से पोंछे फिर हाथ*
* आसमां को मुट्ठी में फिर बांध लाये
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प्रतिभा वर्मा
बस चले जा रहे हैं
इस अन्जानी सी राह पे
न मंजिल का कुछ पता
न राहों से कोई वास्ता
बस अपनी ही धुन में
चले जा रहे हैं
हाँ तुम्हारे साथ का
मनीषा संजीव
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समाज और मीडिया में इन दिनों समाज के सभी तबकों एवं खासकर महिलाओं को समान अधिकार देने को लेकर बढ़-चढ़कर बातें पढने और सुनने को मिल रही हैं. कई बार तो ऐसा लगने लगता है मानों
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अभिषेक आर्जव
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जैसे ही उसने झाड़ियों के बीच झांका , उसे एक बड़ा पेर (कोबरा, जहरीला सांप) दिखायी दिया. ध्यान से देखने पर पता चला कि पेर की पूरी देह पर कोई रोग है जिससे उसकी चमड़ी सड़ गयी है. वह बहुत बुरा लग रहा था, मानो उसे कुष्ठ रोग हो.
पेर धीरे धीरे आगे बढ़ने लगा. उस व्यक्ति ने अपने आप को पेड़ों के पीछे छुपा लिया और चुपचाप पेर को देखता रहा.
अनुपमा वाजपेई
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ग्रीष्म के अवसान पर काले-काले कजरारे मेघों को आकाश मे घुमड़ता देख पावस ऋतु के प्रारम्भ मे पपीहे की पुकार और वर्षा की फुहार से आभ्यंतर आप्लावित एवं आनंदित होकर जीव जन्तु सभी इस मास को पर्व की तरह मनाने लगता है। मनुष्य तो सावन के मतवाले मौसम में झूम उठता है , पक्षियों की भी मधुर आवाजें सुनाई देने लगती है मानो कह रहे हो कि अब राहत मिली । इस मौसम मे कवि मन कुछ नया लिखने को मचलने लगता है।
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धन्यवाद!!
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