जय मां हाटेश्वरी...
सर्व विश्वव्यापी हो तुम तो, जगत पिरोया हुआ है तुम में|
ज्ञानस्वरूप शुद्ध हो तुम तो, क्षुद्र विचार न लाओ मन में||
निर्विकार, निरपेक्ष, शांत हो, तुम अगाध बुद्धि के सागर|
कर्म रहित होकर के अब तुम, मन चैतन्य रूप स्थिर कर||
जो शारीरिक असत जानकर, निराकार चिर स्थिर मानो|
पुनर्जन्म से मुक्त है होगे, जब यह तत्व है तुम पहचानो||
रूप जो दर्पण में प्रतिबिंबित, वह अन्दर बाहर भी होता|
वैसे शरीर के अन्दर बाहर, परम आत्मा भी है होता||
जैसे है आकाश एक ही, घट के भीतर बाहर रहता|
वैसे सतत व शाश्वत ईश्वर, सर्व प्राणियों में है रहता||
अब आप के लिये...
--
[मदन मोहन सक्सेना]कल प्रधानमंत्री शायदकुछ ऐसा कर दें किउनकी जिंदगी में अच्छे दिन आ जायेऔर बे भीआजाद भारतकेआजाद नागरिक के रूप मेंअपना जीबनबेहतर ढंग से जी सकेंमैं , लेखनी और ज़िन्दगी...पर।
--
(आज कुछ मित्रों ने बहुत हैरत में डालनेवाला सवाल किया कि क्या यह सच है कि ‘जनगण मन’ गीत रवीन्द्रनाथ ने वर्ष 1911 में जाॅर्ज पंचम के भारत आगमन पर उनकी स्तुतिमें लिखा था; केवल यही नहीं, उन्होंने ख़ुद यह गीत उनके समक्ष गाया भी था? इस सवाल ने न केवल मुझे डरा दिया बल्कि एक बार फिर से अफ़वाह की ताक़त का एहसास करदिया। मैं लोगों की आँखों पर पड़े झूठ के पर्दे को हटाने के उपक्रम में सुविख्यात रवीन्द्र साहित्य विशेषज्ञ पुलिनविहारी सेन को इसी संदर्भ में लिखी रवीन्द्रनाथकी एक चिट्ठी का उल्लेख करना चाहता हूँ। मित्रों से मेरा निवेदन है कि इसे आप अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाएँ ताकि कुहासे की धुंध छँटे और रवि बाबू पर से इसतोहमत का साया दूर हो सके।लो क सं घ र्ष...पर।
--
उच्चारण...पर।
--
इसे लिख के कोई दुष्यंत मर चुका यारो !उसकी शैली से ज़रा नाम कमा लो यारो !बड़े बड़ों ने इस रदीफ़ का उपयोग कियासबको अपनी ही तरह चोर बताओ यारोमेरे गीत...पर।
--
[पुरुषोत्तम पाण्डेय]हमने स्विस बैंक खंगाल लिए, काला कहीं नहीं मिला है,अब गंग-जमन में कहीं कोई गंदा नाला नहीं मिला है,फिर भी कहीं कोई गन्दगी मिलती है तो,जरूर बचे-खुचे काग्रेसियों की करामात होगी.इनको संसद के बाहर का रास्ता बता दोहम देश के चौकीदार हैं जन जन को बता दो.जाले...पर
--
[अनिल कुमार पाण्डेय]आज जब सुरक्षित जीवन की गारंटी नहीं है ।
लोगों को भय,गरीबी और भुखमरी से मुक्ति नहीं है । नारी की अस्मिता सुरक्षित नहीं है । निर्भीकता से अपनी बात रखने कीआजादी नहीं है । अपनी मातृभाषा में कार्य करने की आजादी नही है। तो फिर काहे की आजादी ? सही मायने में हम आजाद होते हुए भी परतंत्र है । किताबों और शब्दों मेंलिखी आजादी बनावटी होती हैरचनाकार पर...
--
[पूनम श्रीवास्तव]फ़ूट पड़ी थी ज्वालाजब क्रान्ति की पूरी तरहपरवान पे थी।हर मां के जवानों ने अपनीजान भारत माता के नामकर दी थी।JHAROKHA...पर।
--
जिन्दगी के गमभुलाने के लिये,गन्दगी में जिन्दगीमिलाकर पीते हैं…
--
सोचा मन को आश्रय देगा, आशाआें के साथ बहेगा,उत्तर से जो लेकर आया, प्रतिमा में वह रंग चढ़ाया ।।२।।आये तुम, आश्रय सब आये, व्यर्थ कल्पना में भरमाये,थे जितने रंग समेटे, फीके सब तेरी तुलना में,न दैन्यं न पलायनम्...पर।
--
--
बड़ी कोशिश की मैंने,बहुत ज़ोर डाला दिमाग पर,पर नहीं पहचान पायावह अनजाना चेहरा.थक-हारकर मुझेपूछना पड़ा किसी से,' यह अनजाना चेहरा,जो दिख रहा है आईने में,किसका है ?'कविताएँ...पर।
--
धन्यवाद
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
"चर्चामंच - हिंदी चिट्ठों का सूत्रधार" पर
केवल संयत और शालीन टिप्पणी ही प्रकाशित की जा सकेंगी! यदि आपकी टिप्पणी प्रकाशित न हो तो निराश न हों। कुछ टिप्पणियाँ स्पैम भी हो जाती है, जिन्हें यथा सम्भव प्रकाशित कर दिया जाता है।