मित्रों।
रविवार की चर्चा में आपका स्वागत है।
देखिए मेरी पसन्द के कुछ लिंक।
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गीत
"शीत का होने लगा अब आगमन"
खिल उठे फिर से वही सुन्दर सुमन।
छँट गये बादल हुआ निर्मल गगन।।
उष्ण मौसम का गिरा कुछ आज पारा,
हो गयी सामान्य अब नदियों की धारा,
नीर से, आओ करें हम आचमन।
रात लम्बी हो गयी अब हो गये छोटे दिवस,
सूर्य की गर्मी घटी, मिटने लगी तन की उमस,
सुख हमें बाँटती, मन्द-शीतल पवन...
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रिश्तों की बगिया !
हाँ मैं रिश्ते बोती हूँ ,
धरती पर उन्हें रोपकर
निश्छल प्यार , निस्वार्थ भाव,
और अपनेपन की खाद - पानी देकर
उनको पालती हूँ...
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अज़ीज़ जौनपुरी :
तोड़ दी माला किसी नें
नाम चरणामृत का लेकर
विष पिला डाला किसी नें
जब सुमिरनी हाथ में ली
तोड़ दी माला किसी नें ...
विष पिला डाला किसी नें
जब सुमिरनी हाथ में ली
तोड़ दी माला किसी नें ...
Aziz Jaunpuri
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अपाहिज होती व्यवस्था
हो रहा विकास, पतन का डाक्टरेट बन रहे हैं चपरासी पांचवी पास की नौकरी पाने के लिए पी एच डी लगे हैं कतार में लकवाग्रस्त शिक्षातंत्र, बोझ बढ़ा रहा है हर मासूम विद्यार्थी का ! दिखावे की शिक्षा, दिखावे के प्रोजेक्ट्स ढेरों आडम्बर, गला काटती पतियोगी परीक्षाएं खून चूसता तंत्र, अपाहिज होती व्यवस्था सड़ी गली राजनीति , कुंठित प्रतिभाएं व्यवसाय बनी ये शिक्षा, महज़ चपरासी और क्लर्क पैदा कर रही हैं ...
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मायाजाल
...अपने ही खोल में समाते जा रहे हैं लोग कछुए की तरह। दिन भर फेसबुक पर बने रहनेकी प्रवृति क्षणिक ख़ुशी दे रही है पर जीवन वही तो नहीं, यह किशोर बच्चे समझ नहींपा रहे। जीवन आसान हो गया है गैजेट्स से | कहीं न कहीं निष्क्रियता का भी बोलबाला हो रहा है...
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पर कभी तो मुस्कुराया कीजिए
ठीक है, गुस्सा जताया कीजिए
पर कभी तो मुस्कुराया कीजिए
चाँद कब निकलेगा है मालूम जब
वक़्त पर आँखें बिछाया कीजिए...
अंदाज़े ग़ाफ़िल पर
चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’
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आप को अपना बनाने की तमन्ना की है
आप को अपना बनाने की तमन्ना की है
आज तो हद से गुज़रने की तमन्ना की है ...
खिल गई बगिया बहारें जो चमन में आई
गुल खिलें दिल ने महकने की तमन्ना की है …
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साहित्य मंथन
यदि सारे साहित्यकार एक-दूसरे की घृणित आलोचना छोड़कर कुछ सकारात्मक कार्य करने लगें, नए प्रतिभाओं को हेय दृष्टि से न देखकर उनकी अनगढ़ प्रतिभा को गढ़ें, सुझाव दें तथा भाषा को रोचक बनायें और नए साहित्यिक प्रयोगों की अवहेलना न करें तो हिंदी भाषा स्वयं उन्नत हो जायेगी...
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जगने के संवत्सर बीते
जगने के संवत्सर बीते
सोने वाले चले गए -
पीड़ा स्तम्भ बन जमीं रही
रोने वाले चले गए-
लगी मैल तो लगी रही
धोने वाले चले गए -...
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क वि ता
'क'रते रहे 'वि'रल अनुभूतियों की व्याख्या...
'ता'रते रहे... पार उतारते रहे
खुद को ही भावों के, सागर में,
डुबो कर... लिखते रहे
कलम की नोक को ओस में, भिगोकर...
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असहाय एकलव्य
अर्जुन,
कुरुक्षेत्र में एक युद्ध तुमने लड़ लिया,
जीत लिया,
गुरु द्रोण को भी मार दिया,
अब तुम्हें राज-पाट चलाना है,
जीत का फल भोगना है,
पर बहुत से धर्म-युद्ध अभी भी लड़े जाने हैं...
कविताएँ पर Onkar
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तलाशते है फिर.. मेरे शब्द तुम्हे...
तुम नही हो,तो कुछ लिखते ही नही...
यूँ कि हर बार शब्द पिरोते थे,
सिर्फ तुम्हे....
कि तलाशते फिर..
मेरे शब्द तुम्हे....
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बस सच सामने आना चाहिए.....
हमें खेलने की आदत है।
पता नहीं कब से सब खेलते आये है।
धर्म से,जाति से, क्षेत्र से,
जज्बातों और न जाने कितने नए -नए खेल
सामने आते रहते है
और ये कहानी रोज यूँ ही चलती जाती है।
कुछ करने के हजार बहाने है
और न करने के हजार फलसफे...
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रुदाली
रुदाली
जिसे सिर्फ सुना, पढ़ा है
कभी देखा नहीं ...
कभी उसको सोचती हूँ,
उतरती हुई पाती हूँ
कहीं अपने भीतर ही...
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कदी-कदी एवंई ख्याल आंदा ए :
आज कल आने वाली इंसानों की खेप को देख महसूस हो रहा है। लगता है जैसे सारा काम किसी रसूखदार के ठेके पर चल रहा हो। कोई ध्यान देने वाला, टोकने वाला ना हो। त्रिदेव भी जैसे ऊब गए हों इस काम से...
कुछ अलग सापरगगन शर्मा
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