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गुरुवार, सितंबर 03, 2015

"निठल्ला फेरे माला" (चर्चा अंक-2087)

मित्रों।
आदरणीय दिलबाग विर्क जी का लैपटॉप
आज बीमार है।
इसलिए बृहस्पतिवार की चर्चा में 
मेरी पसन्द के कुछ लिंक देखिए।
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अकविता 

‘‘बिन्दी मेरा शृंगार?’’ 

जी हाँ,
मैं हिन्दी हूँ,
भारत माता के माथे की
बिन्दी हूँ,
किन्तु बिन्दी के बिना,
मेरा शृंगार?... 
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सालाना जलसे किये, खूब बढ़ाई शाख | लेकिन पति भाये नहीँ, अब तो फूटी आँख | 

अब तो फूटी आँख, रोज बच्चों से अम्मा |कहती आँख तरेर, तुम्हारा बाप निकम्मा । 

रविकर मन हलकान, निठल्ला फेरे माला |
वह तो रही सुनाय, लगा के मिर्च-मसाला ||
"लिंक-लिक्खाड़" पर रविकर 
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झूला ,भुजरिया,' भेजा', और ' डढ़ैर' 

इन चार शब्दों में कम से कम दो नाम अटपटे और आपके लिये अपरिचित होंगे शायद . लेकिन इनमें रक्षाबन्धन के साथ बचपन की उजली स्मृतियाँ उसी तरह पिरोई हुई हैं जैसे धागा में मोती .
यों तो हमारे लिये पहली वर्षा का मतलब ही सावन का आना हुआ करता था और सावन का मतलब झूला लेकिन माँ का सख्त निर्देश था कि हरियाली अमावस्या तक रस्सी और 'पटली' का नाम तक नही लिया जाएगा .दादी कहतीं थीं कि इससे पहले जो 'पटली' पर बैठेगी उसके बड़े बड़े फोड़े निकल आवेंगे... 
Yeh Mera Jahaan पर गिरिजा कुलश्रेष्ठ 
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गुलामी की राह पर बढ़ते कदम 

हम देशवासी सरकारों से उम्मीद करते हैं कि 
हमें स्वास्थ्य, शिक्षा, भोजन और सुरक्षा मिलेगी ।
पर मिलता क्या है? 
रोटियों के लिये स्त्रियों को लुटना पड़ता है, 
सुरक्षा करने वाले रक्षक मौका पाते ही नोच डालते हैं। 
रईस लोग अपनी शाम रंगीन करने के लिये 
कितनी ही पुत्रियों की जिन्दगियाँ नरक बना देते हैं ।
हर सरकार नई नई कागजी योजनायें बनाकर 
हमारे ही पैसों को डकार जाती हैं... 
अन्तर्गगन पर धीरेन्द्र अस्थाना 
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झूला 

Sudhinama पर sadhana vaid 
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कविगोष्ठी 

"स्व. टीकाराम पाण्डेय 'एकाकी' की दूसरी पुण्यतिथि" 


जीवन भर जिसने कभी, किया नहीं विश्राम।
धन्य हिन्द के केशरी, पंडित टीकाराम।।
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मुंह का कैंसर कभी नहीं होगा 
हम बहुत अत्याचारी हैं। अपने मुँह  साथ हम कितने कुकर्म करते हैं। कितना गर्म खा लेते हैं की मुंह जल जाता है। कितना ठंडा खा लेते हैं की मसूड़े काँप जाते हैं। कितना खट्टा, तीता, नमकीन, मीठा। नतीजतन बेचारे दांतों और जीभ की दुर्गति हो जाती है। फिर आज कल के पानमसालों  का तो कहना ही क्या।कैंसर को खुला आमंत्रण !!!!! यही नहीं इसी मुंह से कुछ भी बोल देते हैं। भली बातों का प्रतिशत शायद कम ही होता होगा। बुरी बातें ज्यादा ही बोलते हैं। जबकि शब्द को ब्रह्म कहा गया है। जिसका सीधा सम्बन्ध मुंह और आत्मा से होता है। अगर अब भी आपको अपनी गलती का एहसास हो गया हो तो आइये इस मुंह के लिए कुछ अच्छा काम किया जाए... 
mera samast
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कुछ बच्चे  बड़े होने की बाद भी तुतलाकर  और अटक- अटक कर बोलते हैं |  इस समस्या के निवारण हेतु निम्न नुस्खा बेहद कारगर  साबित हुआ है -
बादाम गिरी   ५० ग्राम 
दालचीनी    १० ग्राम 
पिश्ता  २० ग्राम 
केसर ३ ग्राम 
अकरकरा    १० ग्राम 
चांदी का वर्क १० ग्राम 
शहद २५० ग्राम 
सभी चीजों का चूर्ण बनाकर  शहद में मिलादें और किसी कांच के पात्र में भरलें  मात्रा ५ से १० ग्राम रोजाना सुबह के वक्त ४० दिन तक सेवन करें|  हकलाहट में जरूर लाभ  होता है| 
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गहरा सन्नाटा ....दीपक सैनी 
गहरा सन्नाटा है शोर से पहले और शोर के बाद 
जानते हुए भी खोये रहते है इसी शोर में 
हजारों पाप की गठरी लादे चले जाते है 
भूल कर उचित अनुचित 
मगन रहते है इसी शोर मे... 
म्हारा हरियाणा
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मुझे काश् 

जुर्म-ए-मुहब्बत में जाँ 

ख़तम  उनसे  ये  फ़ासला  हो   जाए
नया  सा  शुरू सिलसिला  हो  जाए 

लबों  पर  सलामत  रहे  सदियों तक  
उठे   हाथ  जब  भी  दुआ  हो   जाए... 
Lekhika 'Pari M Shlok' 
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गीत 

उमड़ घुमड़ घटा सुना रही सावन के गीत 
दामन में भर अपने नीर उड़ चला गगन 
बरसाने मेघों के तीर... 
RAAGDEVRAN पर MANOJ KAYAL 
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(पहली कविता प्यार के लिए)  
कोलाहल में प्यार  
कभी- कभी मैं सोचता हूँ 
इस धरती को वैसा बना दूँ 
जैसी यह रही होगी 
मेरे और तुम्हारे मिलने से पहले... 
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(और ब्रेकअप की एक कविता)  
विदा के लिए एक कविता और जब कहने को 
कुछ नहीं रह गया है 
मैं लौट आया हूँ! 
माफ करना मुझे भ्रम था कि 
मैं तुमको जानता हूँ! 
भूल जाना वो मुस्कराहटें 
जो अचानक खिल आयी थी 
हमारे होठों पर ... 
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शाख में बैठे ‘उलूक’ की श्रद्धाँजलि 
माननीय एम एस कालबुर्गी जी 
वैसे भी कौन सा आपको स्वर्ग जाना है 

पढ़ने लिखने वाले 
विदव्तजनो के लिखे 
कहे को पढ़ने के बाद 
कुछ कहा करो विद्वानो 
बेवकूफों की बेवकूफी 
के आसपास टहल कर 
अपनी खुद की छीछालेदारी 
तो मत किया करो 
 टिप्पणी दे कर 
मत बता जाया करो 
बिना पढ़े कुछ भी... 

उल्लूक टाईम्स
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वक़्त के कत्लखाने में  

यूं ही बैठा बैठा यही सोचता रहता हूँ कि 
आखिर जगह जगह पसरे पड़े 
कूड़े के अनगिनत ढेरों पर 
पलता बढ़ता बचपन 
क्या कभी पाएगा 
अपना सही मुकाम ... 
जो मेरा मन कहे पर Yashwant Yash 

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