मित्रों!
मंगलवार की चर्चा में आपका स्वागत है।
देखिए मेरी पसन्द के कुछ लिंक।
--
--
प्रेम और प्रकृति
प्रेम एक प्राकृतिक प्रक्रिया है।
प्रेम होना ठीक वैसा ही है जैसे पेड़ों में स्वयं पत्ते लगना,
कलियों का स्वयं फूलों में परिवर्तित होना
और फलों का स्वयं ही पक कर मीठा हो जाना।
क्योंकि प्रेम एक प्राकृतिक प्रक्रिया है...
प्रेम होना ठीक वैसा ही है जैसे पेड़ों में स्वयं पत्ते लगना,
कलियों का स्वयं फूलों में परिवर्तित होना
और फलों का स्वयं ही पक कर मीठा हो जाना।
क्योंकि प्रेम एक प्राकृतिक प्रक्रिया है...
अनकहे किस्से पर
Amit Mishra 'मौन'
--
--
--
--
सुख है!
इतना वृहद है दुःख
इतने सारे हैं दुःख
कि अपना दुःख बहुत छोटा हो जाता है
दुःख रचा नियति ने
तो दुःख को आसमान-सा ऐसा विस्तार दिया
कि ये सबके हिस्से आया...
अनुशील पर अनुपमा पाठक
--
--
--
--
बैलेंस्ड-डाइट
‘कलियों की मुस्कान’ की एक कहानी. इस कहानी को मेरी बारह साल की बेटी गीतिका सुनाती है और इसका काल है – 1990 का दशक ! पाठकों से मेरा अनुरोध है कि वो गीतिका के इन गुप्ता अंकल में मेरा अक्स देखने की कोशिश न करें. बैलेन्स्ड डाइट भगवान ने कुछ लोगों को कवि बनाया है, उन्हें भावुकता अच्छी लगती है...
तिरछी नज़र पर
गोपेश मोहन जैसवाल
--
हम डरे हुए लोग हैं! क्यों डर रहे हैं! यह बात किसी को नहीं पता, पर डर रहे हैं। कल जम्मू कश्मीर के राज्यपाल का डर निकलकर बाहर आया। हरियाणा के मुख्यमंत्री का बयान विवादित भी माना गया और धमकाने के लिये पर्याप्त भी बना। आखिर ऐसी क्या नौबत आ गयी कि बिना जाँचे-परखे, सीधे ही धमकी दे दी गयी कि प्रधानमंत्री से शिकायत करूंगा! इसका कारण है हमारी रगों में बहता हुआ डर। हमारी बहन-बेटियों की इज्जत से खिलवाड़ हुआ, कोई नहीं बोला। किसी को लगा भी नहीं कि यह क्या हो रहा है। आज भी दर्द नहीं होता। लेकिन जरा सी मजाक क्या हो गयी लोग सहिष्णु बन गये...
--
--
रोज़ प्रातः बोलते हैं विश्व का कल्याण हो ...
हम कहाँ कहते हैं केवल स्वयं का ही त्राण हो
रोज़ प्रातः बोलते हैं विश्व का कल्याण हो
है सनातन धर्म जिसकी भावना मरती नहीं
निज की सोचें ये हमारी संस्कृति कहती नहीं
हो गुरु बाणी के या फिर बुद्ध का निर्वाण हो
स्वप्न मेरे ...पर दिगंबर नासवा
--
--
स्वयं का ही जो शासन माने
अपने सुख-दुःख के लिए जब हम स्वयं को जिम्मेदार समझने लगते हैं, तब अध्यात्म में प्रवेश होता है. जब तक हमारा सुख-दुःख व्यक्ति, वस्तु और परिस्थिति पर निर्भर है, तब तक हम संसार में रचे-बसे हैं. संसारी होने का अर्थ है पराधीन होना, अपनी ख़ुशी के लिए दूसरों की पराधीनता को स्वीकार करना ही अधार्मिकता है. 'दूसरे' में व्यक्ति, वस्तु और परिस्थति तीनों ही आ जाते हैं. तुलसीदास ने कहा है, पराधीन सपनेहु सुख नाहीं...इसलिए स्वतंत्र प्रकृति का व्यक्ति जगत में अपनी राह खुद बनाता है...
डायरी के पन्नों सेपरAnita
--
चर्चा मंच को इस निरंतरता एवं प्रस्तुति के श्रम के लिए प्रणाम!
जवाब देंहटाएंआभार!
समसामयिक विषयों पर बहुत ज्ञानपूर्ण संकलन ... शुक्रिया आपका !
जवाब देंहटाएंसुप्रभात सर 🙏 )
जवाब देंहटाएंबेहतरीन प्रस्तुति 👌
शानदार रचनाएँ , मेरी रचना को स्थान देने के लिए तहे दिल से आभार
सादर
सुन्दर प्र्स्तुति।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी चर्चा प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत चर्चा
जवाब देंहटाएंबेहतरीन प्रस्तुति...मेरी रचना को स्थान देने के लिए हार्दिक आभार आपका
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति सभी संकलित रचनाएं लाजवाब।
जवाब देंहटाएंसभी रचनाकारों को बधाई।
हमेशा की तरह इस बार भी काफी परिश्रम के साथ तैयार की गयी है यह सुन्दर चयनिका । ब्लॉग जगत में आपकी मेहनत और लगन सचमुच बेमिसाल है । हार्दिक आभार और शुभकामनाएं ।
जवाब देंहटाएं