मित्रों!
मंगलवार की चर्चा में आपका स्वागत है।
देखिए मेरी पसन्द के कुछ लिंक।
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चेतना
पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
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केदारनाथ सिंह :
क़ब्रिस्तान की पंचायत में सरपंच :
संतोष अर्श
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वह हृदय नहीं पत्थर है,
जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं
चौथाखंभा पर Arun sathi
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इन्तक़ाम
यह किस्सा आज से करीब सौ साल पुराना है. उन दिनों बड़े शहरों में तो कारों का चलन हो गया था लेकिन छोटे-शहरों में तो कार देखने के लिए भीड़ जुट जाती थी. एक छोटे शहर के धन्ना सेठ ने कार खरीदी. शोफ़र द्वारा चालित कार की बैक-सीट पर सेठ ऐसे निकलता था जैसे कोई बादशाह हाथी पर निकलता हो और गाड़ी में बैठकर सभी पैदल यात्रियों को, इक्के-तांगे पर या रिक्शे-साइकल पर आने-जाने वालों को बड़ी हिकारत भरी नज़रों से देखता था...
तिरछी नज़र पर
गोपेश मोहन जैसवाल
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गाँठ सुलझा रफ़ू.....
विभा रानी श्रीवास्तव
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इसाबेले एलेंदे की कहानी
'आखिर हम सब मिट्टी के ही बने हैं।'
अनुवाद और प्रस्तुति यादवेन्द्र
पहली बार पर santosh chaturvedi
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"बीमार होना भी एक कला है "
जब से ज़िन्दगी शुरू होती है , हम जो भी करते है वह एक कलाकारी सा ही होता है , सांस लेना एक कला , चलना ,उठना ,बैठना ,खाना सीधे मुहं से खाना एक कला ही तो है । ऐसे ही बीमार होना भी एक कला है , और यह करतब आप नहीं आपका शरीर करता है ,बेशक उस कला के "कर्ता -धर्ता" आप ही है पर शरीर उस "क्रियाकलाप" से क्या बीमारी की कला दिखायेगा यह वह ही जाने ! अब ज़िन्दगी के 50 साल तक "खुद को मैं "यह समझने वाली कि "लकड़ भी हज़म ,पत्थर भी हज़म " ,पेट को अपने खूब लाड़ से खिलाती पिलाती रही , पर अचानक एक दिन पेट को न जाने क्या सूझी खाने ले जाने वाली नली को रिवर्स गेयर में चलाने लगा...
**पर रंजू भाटिया
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बहुत सुन्दर चर्चा प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंविविधापूर्ण लिंकों का सुंदर संयोजन है सर बहुत बहुत आभार और शुक्रिया मेरी रचना को शामिल करने के लिए।
जवाब देंहटाएंबहुता अच्छी चर्चा प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंवाह बेहतरीन रचनाओं का संगम।एक से बढ़कर एक प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंBhojpuriSong.in
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जवाब देंहटाएंExiledros
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