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मंगलवार, अगस्त 27, 2019

"मिशन मंगल" (चर्चा अंक- 3440)

मित्रों!
मंगलवार की चर्चा में आपका स्वागत है। 
देखिए मेरी पसन्द के कुछ लिंक।
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चेतना 

पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा  
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केदारनाथ सिंह :  

क़ब्रिस्तान की पंचायत में सरपंच :  

संतोष अर्श 

समालोचन पर arun dev  
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वह हृदय नहीं पत्थर है,  

जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं 

चौथाखंभा पर Arun sathi 
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इन्तक़ाम 

यह किस्सा आज से करीब सौ साल पुराना है. उन दिनों बड़े शहरों में तो कारों का चलन हो गया था लेकिन छोटे-शहरों में तो कार देखने के लिए भीड़ जुट जाती थी. एक छोटे शहर के धन्ना सेठ ने कार खरीदी. शोफ़र द्वारा चालित कार की बैक-सीट पर सेठ ऐसे निकलता था जैसे कोई बादशाह हाथी पर निकलता हो और गाड़ी में बैठकर सभी पैदल यात्रियों को, इक्के-तांगे पर या रिक्शे-साइकल पर आने-जाने वालों को बड़ी हिकारत भरी नज़रों से देखता था... 
गोपेश मोहन जैसवाल  
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गाँठ सुलझा रफ़ू.....  

विभा रानी श्रीवास्तव 

मेरी धरोहर पर संजय भास्‍कर  
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"बीमार होना भी एक कला है " 

ब से ज़िन्दगी शुरू होती है , हम जो भी करते है वह एक कलाकारी सा ही होता है , सांस लेना एक कला , चलना ,उठना ,बैठना ,खाना सीधे मुहं से खाना एक कला ही तो है । ऐसे ही बीमार होना भी एक कला है , और यह करतब आप नहीं आपका शरीर करता है ,बेशक उस कला के "कर्ता -धर्ता" आप ही है पर शरीर उस "क्रियाकलाप" से क्या बीमारी की कला दिखायेगा यह वह ही जाने ! अब ज़िन्दगी के 50 साल तक "खुद को मैं "यह समझने वाली कि "लकड़ भी हज़म ,पत्थर भी हज़म " ,पेट को अपने खूब लाड़ से खिलाती पिलाती रही , पर अचानक एक दिन पेट को न जाने क्या सूझी खाने ले जाने वाली नली को रिवर्स गेयर में चलाने लगा... 
**पर रंजू भाटिया 
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शिला 

निर्जीव और बेजान   
निष्ठुरता का अभिशाप लिये
मूक पड़ी है सदियों से
स्पंदनहीन शिलाएँ... 
मन के पाखी पर Sweta sinha  

5 टिप्‍पणियां:

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