फ़ॉलोअर



यह ब्लॉग खोजें

शुक्रवार, अगस्त 30, 2019

"चार कदम की दूरी" (चर्चा अंक- 3443)

मित्रों!
शुक्रवार की चर्चा में आपका स्वागत है। 
देखिए मेरी पसन्द के कुछ लिंक।
--
--
--

जरुरत 

मुझे जब तुम्हारी जरूरत थी  
जब मैं टूटने लगी थी  
जगह जगह दरारें पड़ने लगी थी  
तुम देख कर समझ न पाए..,. 
प्यार पर Rewa Tibrewal  
--
--

तपिश 

पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
--

प्रेम बिन सूना संसार 

जिन आंखों में अंगड़ाई है,  
फिर याद उसी की आई है।  
पास मिले या ना मिले ,  
यादों में हर पल छाई है.. 
--

पिंकी के बिल्ले --- 

Fulbagiya पर 
डा0 हेमंत कुमार ♠ Dr Hemant Kuma 
--
--

इंतजार ! 

मिश्रा जी की माताजी का सुबह निधन हो गया । बिजली की तरह खबर फैल गई । लोगों का आना जाना शुरू हो गया । अभी मिश्रा की बहनें नहीं आईं थीं , इसलिए उनका इंतजार हो रहा था । घर का बरामदा औरतों से भरा था । पार्थिव शरीर भी वहीं रखा था । औरतें यहाँ भी पंचायत कर रहीं थी - " देखना अब मिश्रा जी भी यहाँ नहीं रहेंगे । दोनों आदमी बीमार रहते हैं , बेटे के पास चले जायेंगे ।" सामने घर वाली तिवारिन बोली । " और ये इत्ता बड़ा मकान , इसका क्या करेंगे ?" बगल वाली गुप्ताइन ने.पूछा । " अब तो बिकेगा ही , अभी तक तो माताजी के कारण यहाँ थे ... 
कथा-सागर पर रेखा श्रीवास्तव  
--
--

.....एक बार फोन कर देना 

बतरसियों और अड्डेबाजों के लिए बीमा एजेण्ट होना सर्वाधिक अनुकूल धन्धा है। लोगों से मिलने, बतियाने शौक भी पूरा होता है और दो जून की रोटी भी मिल जाती है। जाहिर है, बीमा एजेण्ट के सम्पर्क क्षेत्र में ‘भाँति-भाँति के लोग’ स्वाभाविक रूप से होते ही हैं। ये ‘भाँति-भाँति के लोग’ एजेण्ट को केवल आर्थिक रूप से ही समृद्ध नहीं करते, जीवन के अकल्पित आयामों से भी परिचित कराते हैं। ये ‘भाँति-भाँति के लोग’ कभी गुदगुदाते हैं, कभी चिढ़ाते है, कभी क्षुब्ध करते हैं तो कभी उलझन में डाल देते हैं आज सुबह हुआ एक फोन-संवाद बिना किसी टिप्पणी, बिना किसी निष्कर्ष के, जस का तस प्रस्तुत है ... 
एकोऽहम् पर विष्णु बैरागी 
--
--

अशांन्ति की तलाश 

370 और 35 ए में तीन की प्राथमिकता है। ठीक वैसे ही इसे हटाये जाने से तीन को जलन हो रही है। एक पड़ोसी पाक। दूसरा अपने देश के नापाक। तीसरा युवराज गैंग। जार जार घड़ियाली आंसू बहा रहे हैं। दुख का कारण कश्मीर है। 70 सालों तक कश्मीर से उनकी राजनीति चलती थी । आज एक झटके से राजनीति को खत्म कर दिया गया। बावजूद वे निराश नहीं है ... 
चौथाखंभा पर Arun sathi  
--

(व्यंग्य)  

माटी -पुत्र , डामर -पुत्र या सीमेंट -पुत्र ? 

 क्या शब्द अपनी भावनाओं को खो चुके हैं ?  कुछ दशक पहले तक  अगर किसी मंच से किसी को 'माटी पुत्र ' या 'माटी के लाल' कहकर संबोधित किया जाता था ,तो ये शब्द  श्रोताओं की संवेदनाओं को छू जाते थे ,लेकिन आज के समय में  इन भावनात्मक शब्दों से किसी की तारीफ की जाए तो सुनने वालों को हँसी आती है  और उन पर इन लफ्जों का  कोई असर नहीं होता ,बल्कि ये लफ्ज़ महज लफ्फाजी की तरह लगते हैं... 
Swarajya karun  
--

आस्थावान या आस्थाहीन? 

मुझे याद है उन दिनों, की जब मोहल्ले के मंदिरों में सुबह-शाम झाँझ-मझीरे बजाकर आरती होती थी ,आस-पास के बच्चे बड़े चाव से इकट्ठे हो कर मँझीरा बजाने की होड़ लगाए रहते थे.नहीं तो ताली बजा-बजा कर ही सही आरती गाते थे... 
लालित्यम् पर प्रतिभा सक्सेना 
--

अधूरापन 

मैं अक़्सर सुनता हूँ तुम्हारा ये शिकायती लहजा जब तुम मुझे बताती हो कि तुमने बहुत बार प्रेमियों को अपनी प्रेमिकाओं से ये कहते हुए सुना है कि तुम बिन मैं अधूरा हूँ, तुम मिल जाओ तो पूरा हो जाऊँ और तुम ना मिलो तो जी ना पाऊँ। तुम शायद उम्मीद करती होगी मुझसे भी यही सब सुनने की, और तुम्हारी ये उम्मीद वाजिब भी है... 
Amit Mishra 'मौन' 
--

हौले से कदम बढ़ाए जा.... 

सुधा देवरानी 

मेरी धरोहर पर संजय भास्‍कर 
--
--

6 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर शुक्रवारीय प्रस्तुति में 'उलूक' को भी जगह देने के लिये आभार आदरणीय।

    जवाब देंहटाएं
  2. लातों के भूत बातों से नहीं मानते न !

    जवाब देंहटाएं
  3. सुंदर संयोजन...मेरी रचना 'अधूरापन' को स्थान देने के लिए हार्दिक धन्यवाद आपका

    जवाब देंहटाएं
  4. उम्दा चर्चा। मेरी रचना को चर्चा मंच में शामिल करने के बहुत बहुत धन्यवाद, आदरणीय शास्त्री जी।

    जवाब देंहटाएं
  5. स्थापित रचनाकारों की बेहतरीन संकलन के साथ मेरी रचना को साझा करने के लिए आभार आपका !

    जवाब देंहटाएं

"चर्चामंच - हिंदी चिट्ठों का सूत्रधार" पर

केवल संयत और शालीन टिप्पणी ही प्रकाशित की जा सकेंगी! यदि आपकी टिप्पणी प्रकाशित न हो तो निराश न हों। कुछ टिप्पणियाँ स्पैम भी हो जाती है, जिन्हें यथा सम्भव प्रकाशित कर दिया जाता है।