मित्रों!
मंगलवार की चर्चा में आपका स्वागत है।
देखिए मेरी पसन्द के कुछ लिंक।
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आने वाले कल के लिए
ये
अनिश्चित-से
काश और शायद सरीखे शब्दों की ही महिमा है
कि हम चलते चले जाते हैं
उन मोड़ों से भी आगे
जहाँ से आगे की कोई राह नहीं दिखती
ये शब्द सम्भावनाओं का वो आकाश हैं
जो घिरे हुए बादलों के बीच भी
चमक उठते हैं
अपनी रौ में!...
अनिश्चित-से
काश और शायद सरीखे शब्दों की ही महिमा है
कि हम चलते चले जाते हैं
उन मोड़ों से भी आगे
जहाँ से आगे की कोई राह नहीं दिखती
ये शब्द सम्भावनाओं का वो आकाश हैं
जो घिरे हुए बादलों के बीच भी
चमक उठते हैं
अपनी रौ में!...
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बाकी है एक उम्मीद
यूँ ही कल झाड़ पोंछ में ज़हन की
वक़्त की दराज़ से निकल आये
कुछ ख़्याल पुराने
जो कहने थे उनसे
जो मौजूद नही थे
सुनने के लिए....
वक़्त की दराज़ से निकल आये
कुछ ख़्याल पुराने
जो कहने थे उनसे
जो मौजूद नही थे
सुनने के लिए....
अनकहे किस्से पर
Amit Mishra 'मौन'
जाने क्यों आँखें रहती नम नम ...
गीत प्रेम के गाता है हर दम
जाने क्यों आँखें रहती नम नम
नाच मयूरी हो पागल
अम्बर पे छाए बादल
बरसो मेघा रे पल पल
बारिश की बूँदें करतीं छम छम
जाने क्यों आँखें ...
स्वप्न मेरे ...पर दिगंबर नासवा
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लोहे का घर-56
जैसे सभी के पास होता है, ट्रेन में चढ़ने समय पाण्डे जी के पास भी एक जोड़ी चप्पल था। चढ़े तो अपनी बर्थ पर किसी को सोया देख, प्रेम से पूछे.…भाई साहब! क्या मैं यहाँ बैठ सकता हूँ? वह शख्स पाण्डे जी की तरह शरीफ नहीं था। हाथ नचाते हुए, मुँह घुमाकर बोला...यहाँ जगह नहीं है, आगे बढ़ो! अब पाण्डे जी को भी गुस्सा आ गया और जोर से बोले..यह मेरी बर्थ है। अब वह आदमी एकदम से सीरियस हो गया! समझ गया कि मुसीबत आ गई है...
बेचैन आत्मा पर देवेन्द्र पाण्डेय
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भाव जगेंं जब अनुपम भीतर
हमने स्वतन्त्रता दिवस मनाया और रक्षा बंधन भी, हर भारतीय के मन में दोनों के लिए आदर और गौरव का भाव है. देश की रक्षा करने वाले वीरों की कलाई में बहनें जब राखी बांधती हैं तो उनके मनों में आजाद हवा में साँस लेने का सुकून भर जाता है. सृष्टि में प्रतिपल कोई न कोई किसी की रक्षा कर रहा है. वृक्ष के तने पर जब हम लाल धागा बांधते हैं तो हम उसके द्वारा स्वयं को रक्षित हुआ मानते हैं. एक तरह से सुरक्षित होना ही स्वतंत्र होना है,..
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कभी तो चौंक के देखे कोई हमारी तरफ,
किसी की आंख में हमको भी इंतज़ार दिखे ….
Gulzar
अब छोड़ो भी पर
Alaknanda Singh
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ऐसे भी दिन तूने देखे,
ओए नूरू!
कवि त्रिलोचन शास्त्री एक बात कहा करते थे - अच्छी कविता वह नहीं है जो पूरी तरह बन्द रहे और वह भी नहीं जो पूरी तरह खुली हो। अच्छी कविता वह है जो थोड़ी खुली हो और थोड़ी बन्द। अच्छी कविता वह है जो पहली बार सुनने पर भी समझी जा सके और बाद में जितनी बार पढ़ी-सुनी जाए, उसके उतने नए-नए अर्थ, नए-नए भाव खुलें। आजकल गाली गलौज को बिलकुल वैसे ही साहित्य का अभिन्न अंग माना जाने लगा है जैसे नंगेपन को सिनेमा और नंगई को राजनीति का। गजब यह है कि साहित्य वालों को सिर्फ अपने ही पढ़े-लिखे होने का भयावह और बीभत्स अहंकार है ...
इयत्ता पर इष्ट देव सांकृत्यायन
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सुंदर प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंइस श्रमसाध्य कार्य के लिए चर्चामंच का कोटि कोटि आभार!
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंउम्दा लिंक्स आज चर्चामंच पर |
मेरी रचना शामिल करने के लिए धन्यवाद सर|
सुन्दर चर्चा सार्थक लिंक्स के साथ, मेरी पोस्ट को स्थान् देने हेतु हार्दिक धन्यवाद
जवाब देंहटाएंसार्थक चर्चा ...
जवाब देंहटाएंआभार मेरी रचना को शामिल करने के लिए ...
सुप्रभात, सुंदर संयोजन पठनीय रचनाओं की खबर देते सूत्रों का..आभार !
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर प्रस्तुति सर
जवाब देंहटाएंसादर
सुप्रभात,
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर प्रस्तुति
आभार ..मेरी रचना को pichali shrinkhlaa me शामिल करने के लिए ..
सुंदर संयोजन पठनीय रचनाओं ka guldasta
सुन्दर चर्चा सार्थक लिंक्स के साथ
..आभार !
सुन्दर चर्चा. मेरी कविता शामिल की. आभार.
जवाब देंहटाएंसुन्दर दोहे
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