मित्रों।
मंगलवार की चर्चा में आपका स्वागत है।
देखिए मेरी पसन्द के कुछ लिंक।
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पाँचदोहे
"अहोई-अष्टमी"
कृष्णपक्ष की अष्टमी, और कार्तिक मास।
जिसमें पुत्रों के लिए, होते हैं उपवास।१।
दुनिया में दम तोड़ता, मानवता का वेद।
बेटा-बेटी में बहुत, जननी करती भेद।२।
पुरुषप्रधान समाज में, नारी का अपकर्ष।
अबला नारी का भला, कैसे हो उत्कर्ष।३।
बेटा-बेटी के लिए, हों समता के भाव।
मिल-जुलकर मझधार से, पार लगाओ नाव।४।
एक पर्व ऐसा रचो, जो हो पुत्री पर्व।
व्रत-पूजन के साथ में, करो स्वयं पर गर्व।५।
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आश्वस्त हूँ अपने मानवाधिकार से
और मुझसे परे भी क्या जरूरत होती है
किसी को किसी और अधिकार की .......
जरा सोचिये !!! ...
vandana gupta
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मैं कहना चाहता हूं------
कुल दीप ठाकुर
मैं कहना चाहता हूं, इक बातदिवाने से,
कुछ भी हासिल न होगा, व्यर्थ में आँसु बहाने से।
उसे तुझ से प्यार होता, तेरा जीवन तबाह न करती,
पत्थर दिल नहीं पिघलते, किसी के रोने और मिट जाने से...
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बीमा और लुगाई
... जल्द ही खोज लो,
ससुराल नामक बीमा कम्पनी,
कयोंकि कोई भी इतना रिटर्न नहीं देता
जितना देती है लुगाई...
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500.
उऋण...
कुछ ऋण ऐसे हैं
जिनसे उऋण होना नहीं चाहती
वो कुछ लम्हे
जिनमें साँसों पर क़र्ज़ बढ़ा
वो कुछ एहसास
जिनमें प्यार का वर्क चढ़ा...
जिनसे उऋण होना नहीं चाहती
वो कुछ लम्हे
जिनमें साँसों पर क़र्ज़ बढ़ा
वो कुछ एहसास
जिनमें प्यार का वर्क चढ़ा...
डॉ. जेन्नी शबनम
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चाँद को मैं खिड़की से देखती रही....
रात चाँद को..
मैं खिड़की से देखती रही....
इक यही तो है,
जो हम दोनों को जोड़ता है..
इक दुसरे से...
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ज़िंदगी की रात
खोई खोई उदास सी है
मेरी ज़िंदगी की रात
दर्द की चादर ओढ़ कर
याद करती हूँ तेरी हर बात
तुम बिन ना जीती हूँ ना मरती हूँ मैं
होंठो पर रहती है हर पल
तुमसे मिलने की फ़रियाद...
ranjana bhatia
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संशय
क्षद्म-दाम-वाम के नापतोल बहुत हो गए, क्या करें,
सब रंग फीके पड़ गए घोल बहुत हो गए, क्या करें।
कलतलक जिन्हें जानता न था, श्वान भी गली का,
ऐसे दुर्बुद्धिवृन्दों के मोल बहुत हो गए , क्या करें...
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दिव्य सौंदर्य
हिरनी जैसे नैन हैं, चंदा जैसा रूप
कुंतल सावन की घटा, स्मित खिलती धूप !
आँखों का उपकार है, कह डाली हर बात
अधर सकुच कर रह गये, करने को संवाद...
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मोहताज
धुंधला रहे हैं किताबो में लिखे हर्फ
कांप रहे हाथ
कटोरी को थामते हुए लकीरे
बना चुकी हैं अपना साम्राज्य
पेशानी और आँखों के इर्द गिर्द
यह उम्र दराज़ होना भी
कितना दर्द देता हैं...
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