मित्रों!
बुधवार की चर्चा में आपका स्वागत है।
देखिए मेरी पसन्द के कुछ लिंक।
(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
दोहे "घटते जंगल-खेत"
घटते जाते धरा से, बरगद-पीपल-नीम।
इसीलिए तो आ रहे, घर में रोज हकीम।।
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रक्षक पर्यावरण के, होते पौधे-पेड़।
लेकिन मानव ने दिये, जड़ से पेड़ उखेड़।।
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पेड़ काटता जा रहा, धरती का इंसान।
प्राणवायु कैसे मिले, सोच अरे नादान...
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हिन्दुस्तानी भाषा साहित्य समीक्षा सम्मान –
2015’ हेतु प्रविष्टियों का आमंत्रण
'दि वेस्टर्न विंड' पर PAWAN VIJAY
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त्रिवेनियाँ
अगर जिंदगी फिर कभी ऐसे दोराहे पर लाये
जहाँ तुम्हे कोई लाख चाहकर न पुकार पाये
तो समझना तुम अपने ही सन्नाटें में खो चुके हो...
Vandana Singh
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मंगलाचार :
ज्योत्स्ना पाण्डेय
ज्योत्स्ना अर्से से कविताएँ लिख रही हैं.
तमाम पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं.
वैविध्य पूर्ण काव्य- संसार तो है ही
शिल्प पर भी मेहनत दिखती है...
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जाने कहाँ ?
गुम जाने की उसकी बुरी आदत थी,
या फिर मेरे रखने का सलीका ही सही न था,
चश्मा दूर का अक्सर पास की
चीजें पढ़ते वक़्त नज़र से हटा देती थी
एक पल की देरी बिना
वह हो जाता था मेरी नज़रों से ओझल
कितनी बार नाम लेती उसका
जाने कहाँ गया...
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अंतर कल व आज में
एक वह भी लेखनी थी
था वजन जिस में इतना
लिखा हुआ मिटता न था
लाग लपेट न थी जिसमें
वह बिकाऊ कभी न थी
किसी का दबाव नहीं सहती
थी स्वतंत्र सत्य लेखन को
अटल सदा रहती थी ...
था वजन जिस में इतना
लिखा हुआ मिटता न था
लाग लपेट न थी जिसमें
वह बिकाऊ कभी न थी
किसी का दबाव नहीं सहती
थी स्वतंत्र सत्य लेखन को
अटल सदा रहती थी ...
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उम्दा लिखावट ऐसी लाइने बहुत कम पढने के लिए मिलती है धन्यवाद् Aadharseloan (आप सभी के लिए बेहतरीन आर्टिकल संग्रह जिसकी मदद से ले सकते है आप घर बैठे लोन) Aadharseloan
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