मित्रों!
मंगलवार की चर्चा में आपका स्वागत है।
देखिए मेरी पसन्द के कुछ लिंक।
(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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अमरीका में रहना विज्ञान
और भारत में रहना कला
आज जुगलबंदी का विषय ’हवा’ था. हवा जब आक्सीजन सिलेंडर से हवा हो जाती है तब गोरखपुर जैसी हृदय विदारक घटना घटित होती है जिसमें ६२ बच्चे अपनी जान से हाथ धो बैठेते हैं और कारण पता चलता है कि सिलेंडर सप्लाई करने वाली कम्पनी को पेमेंट नहीं किया गया था अतः सिलेंडर भरे नहीं गये. ऐसे में जब पेमेंट के आभाव में सिलेंडर से हवा गायब हो सकती है तो हमें ही लिखने के कौन से पैसे मिले जा रहे हैं..
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आसपास कुछ ईश्वरीय होने का अहसास
या और भी कई प्रकार के आभास कराते
अपने ही आसपास के कार्यकलाप...
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कलाकार हर पल ‘मध्यम वर्ग
और सत्ता’ के शोषणवादी चक्रव्यूहों को
अपनी कला से भेदतें हैं! ------
मंजुल भारद्वाज
क्रांति स्वर पर विजय राज बली माथुर
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हर घर में पल रहा है इक साथी नवाब का--
ग़ज़ल
मजमून ही न पढ़ पाए दिल की किताब का
क्या फ़ायदा मिला उसे फिर आफ़ताब का...
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अब क्यों नहीं बजते
ये फ़िल्मी गाने ?
कुछ दशक पहले के फ़िल्मी गीतों में मनोरंजन के साथ कोई न कोई सामाजिक सन्देश भी हुआ करता था । उन गीतों के जरिए देश और समाज की बुराइयों पर और बुरे लोगों पर तीखे प्रहार भी किए जाते थे । जैसे - *दो जासूस करे महसूस कि दुनिया बड़ी खराब है , कौन है सच्चा ,कौन है झूठा , हर चेहरे पे नकाब है । ---
*क्या मिलिए ऐसे लोगों से , जिनकी फितरत छुपी रहे ,
नकली चेहरा सामने आए , असली सूरत छिपी रहे...
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जो अपने दिल में इन्कलाब लिए बैठा है ...
वो रौशनी का हर हिसाब लिए बैठा है
जो घर में अपने आफताब लिए बैठा है...
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शुभ प्रभात..
जवाब देंहटाएंआभार और फिर आभार
सादर
विस्तृत चर्चा आज की ...
जवाब देंहटाएंआभार मेरी रचना को शामिल करने का ...
बहुत सुन्दर प्रस्तुति । 'उलूक' के 'आसपास के ईश्वर' को जगह देने के लिये आभार।
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